अजय और शालिनी के मैदान में आने से साबित हो गया खोखले थे भाजपा को हराने के तमाम दावे
नई दिल्ली। लोकसभा चुनावों की घोषणा के पहले और बाद में भी इसको लेकर किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि विपक्ष भाजपा को हराना चाहता है। पहले सीटों के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में विपक्ष एकजुट नहीं हो सका। वहां सपा-बसपा ने गठबंधन कर लिया और कांग्रेस को अकेले छोड़कर यह तय कर दिया कि अपने-अपने हितों के आधार पर ही भाजपा से लड़ेंगे। उसके बाद पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के साथ भी कांग्रेस का समझौता नहीं हो सका। शायद वहां भी वामदलों ने यह मान लिया कि वे अकेले दम पर भाजपा को रोक सकते हैं। सबसे बाद में दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी (आप) ने खुद ही तय कर लिया कि वही भाजपा को शिकस्त दे सकती है। इसके अलावा कांग्रेस पर आरोप भी लगाए जाते रहे कि वह भाजपा को हराने के प्रति गंभीर नहीं है। इस सबके बाद आम लोगों के बीच किसी कोने में एक उम्मीद बची रह जा रही थी कि पूरे देश में भले ही विपक्ष एकजुट नहीं हो सका, संभवतः वाराणसी में तमाम अंतर्विरोधों को भुलाकर कोई संयुक्त प्रत्याशी खड़ा किया जा सके। इस संभावना के बावजूद कोई आसानी से यह मानने को तैयार नहीं था कि वाराणसी में उसके बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आसानी से हराया जा सकता है। लेकिन यह जरूर माना जा रहा था कि अगर विपक्ष की ओर से एक ही उम्मीदवार होगा, तो भाजपा के सामने कड़ी चुनौती अवश्य खड़ी हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। फिलहाल तीनों प्रमुख उम्मीदवारों के नाम घोषित हो जाने के बाद यह साबित हो गया कि विपक्ष के भाजपा को हराने के तमाम दावे खोखले ही रहे हैं। सियासी हलको में यह साफ संदेश भी गया है कि विपक्ष चाहता ही नहीं कि भाजपा को सत्ता से हटाया जाए।
वाराणसी: तीनों प्रमुख उम्मीदवारों के नाम घोषित
हालांकि बीते करीब एक वर्ष से विपक्ष लगातार यह दिखाने की कोशिश कर रहा था कि वह एकजुट हो रहा है और चुनावों में संयुक्त विपक्ष मैदान में होगा। तब भी न केवल सत्ता पक्ष बल्कि विपक्षी हलकों में इसे टेढ़ी खीर ही माना जा रहा था। हर किसी को इसमें संदेह ही लग रहा था। इसके बावजूद आम लोगों में किसी कोने में यह उम्मीद जगती रहती थी कि शायद पूरा विपक्ष एकजुट होकर चुनाव मैदान में जाए। इसी उम्मीद के आधार पर इस संभावना को मजबूती मिलती रहती थी कि अगर ऐसा हो पाता है तो निश्चित रूप से इन चुनावों के बाद आने वाला परिणाम कुछ अलग हो सकता है। परंतु जो खतरा लोगों के दिमाग में चल रहा था, वह एक-एक कर सामने आता गया और यह धुंध लगातार छंटती गई कि विपक्ष में एका हो सकता है। कर्नाटक में जब तकरीबन पूरा विपक्ष एक मंच आ गया था और कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने बड़े उत्साह से बसपा प्रमुख मायावती को गले लगाया था, तब यह साफ संदेश दिए जाने की कोशिश की गई थी कि अक्सर अकेले चुनावों में जाने वाली बसपा भी एका में शामिल हो सकती है। लेकिन बहुत जल्दी मोहभंग की स्थिति सामने आ गई थी, जब छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में मायावती ने कांग्रेस के बजाय अजीत जोगी की पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया था। यह एक तरह का पहला स्पष्ट संकेत था जो यह बताने के लिए काफी था कि लोकसभा चुनाव में भी संयुक्त विपक्ष का सपना अधूरा ही रहने वाला है।
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सपा ने कांग्रेस छोड़कर आई शालिनी यादव को दिया टिकट
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में यह पहले से ही तय था कि वह वाराणसी से उम्मीदार होंगे। लेकिन विपक्ष की ओर से इस सीट पर उम्मीदवारी को लेकर कभी कोई बात नहीं की गई। इसी आधार पर यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि संभवतः अंदरखाने इस पर कुछ विचार चल रहा हो कि कम से कम वाराणसी में संयुक्त प्रत्याशी उतारा जाए। जब से प्रियंका गांधी को कांग्रेस का महासचिव और पूर्व उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया था, तब से इन चर्चाओं ने भी काफी जोर पकड़ा था कि कांग्रेस उन्हें वाराणसी से उम्मीदवार बना सकती है। इसके साथ ही यह भी कहा जा रहा था कि ऐसे में संभव है सपा भी उनका समर्थन कर दे क्योंकि यह सीट उसी के खाते में है। प्रियंका ने भी मीडिया से बार-बार यह कह कर कुछ हवा दे दी थी कि अगर पार्टी कहेगी, तो वह वाराणसी से चुनाव लड़ सकती हैं। लेकिन लोग इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। लोगों के बीच यह बातें आम थीं कि कांग्रेस कभी यह नहीं चाहेगी प्रियंका पहला ही चुनाव हार जाएं। इससे बहुत खराब संदेश जाएगा। इसी तर्क पर कोई यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होता था कि प्रियंका वाराणसी से चुनाव लड़ सकती हैं और वही हुआ। कांग्रेस ने वाराणसी से अपने पुराने प्रत्याशी को ही आखिरकार टिकट देकर मैदान मे उतार दिया। इससे पहले सपा ने कांग्रेस छोड़कर आई शालिनी यादव को टिकट दे दिया था। मतलब एक तरह से विपक्ष की ओर से मोदी की राह आसान बना दी गई।
कांग्रेस ने एक बार फिर अजय राय को दिया टिकट
ऐसे में एक तरह से साफ हो गया कि वाराणसी में मोदी के समक्ष किसी तरह की चुनौती नहीं रह गई है। यह चुनौती तब जरूर हो सकती थी जब विपक्ष का कोई मजबूत संयुक्त प्रत्याशी मैदान में होता। इसे समझने के लिए 2014 में प्रत्याशियों को मिले मतों से कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। उस चुनाव में मोदी के पक्ष और कांग्रेस के विरोध में मजबूत लहर थी। तब मोदी को कुल 5,81,022 वोट मिले थे। उन्होंने अपने निकटतम प्रत्याशी आम आदमी पार्टी (आप) के अरविंद केजरीवाल को 3,71,784 मतों से हराया था। केजरीवाल को कुल 2,09,238 वोट मिले थे। कांग्रेस के उम्मीदवार अजय राय को 75,614 मत, बसपा प्रत्याशी विजय प्रकाश को 60,579 और सपा प्रत्याशी कैलाश चौरसिया 45,291 वोट मिले थे। कांग्रेस, सपा और बसपा तो उत्तर प्रदेश की पुरानी पार्टियां रही हैं, लेकिन केजरीवाल उस तरह न उत्तर प्रदेश के थे और न ही वाराणसी के। उनका नाम जरूर बड़ा था क्योंकि कभी उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ा आंदोलन चलाया था, उनकी पार्टी भारी बहुमत से दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीती थी और वे मुख्यमंत्री बने थे। उसके बाद वाराणसी में चुनाव लड़ा था। तब भी मोदी जैसे मजबूत प्रत्याशी के खिलाफ उन्हें दो लाख से ज्यादा वोट मिलना और दूसरे स्थान पर आना यह बताता है कि अगर मजबूत प्रत्याशी हो, तो भाजपा की इस परंपरागत सीट पर भी कड़ी टक्कर दी जा सकती है।
चुनाव के बाद विपक्ष प्रधानमंत्री कैसे तय कर सकेगा?
इससे पहले एक चुनाव में मुख्तार अंसारी ने भाजपा के दिग्गज नेता मुरली मनोहर जोशी को कड़ी टक्कर दी थी। तब वह केवल 16 हजार मतों से हार गए थे। अगर 2014 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी प्रत्याशियों को मिले वोटों को जोड़ दिया जाए, तो पता चलता है कि वह संख्या करीब उतनी तक पहुंचने लगती है जितने वोट मोदी को मिले थे। मतलब यह कि इस चुनाव में जब इस तरह की चर्चाएं हैं कि फिलहाल मोदी के पक्ष में पिछली बार की तरह की लहर नहीं है और लोगों में काफी नाराजगी है, ऐसे में अगर विपक्ष का कोई मजबूत संयुक्त उम्मीदवार उतारा गया होता, तो हालात निश्चित रूप से विपरीत हो सकते थे। बीते चुनाव में यह भी माना गया था कि जातीय समीकरण से ऊपर उठकर तकरीबन सभी जातियों से मोदी को वोट मिले थे। तब सपा और बसपा भी अलग-अलग मैदान में थे। लेकिन फूलपुर, गोरखपुर और कैराना के परिणामों के बाद से यह भी माना जाने लगा है कि सपा-बसपा की एकजुटता से दलित-पिछड़ा और मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण विपक्ष की ओर है। यह संख्या और इसमें कांग्रेस के मतों को भी जोड़ दिया जाए, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि विपक्षी प्रत्याशी कितना मजबूत साबित हो सकता था। लेकिन अब तो ऐसी सारी संभावनाओं पर खुद विपक्ष ने ही एक तरह से पानी फेर दिया है। अब तो विपक्ष के उन दावों पर गंभीर सवाल उठने लगेंगे जिसमें कहा जा रहा है कि चुनाव बाद सारा विपक्ष एकजुट हो जाएगा और सरकार बनाएगा। सबसे बड़ा सवाल है कि जब विपक्ष एक सीट पर प्रधानमंत्री के खिलाफ संयुक्त प्रत्याशी नहीं उतार सका, तो अगर ऐसी स्थिति बनी भी तो वह चुनाव बाद मोदी के खिलाफ प्रधानमंत्री कैसे तय कर सकेगा? चुनाव बाद हालात चाहे जेसे बनें, विपक्ष को इन सवालों का जवाब देने के लिए तैयार रहना होगा।