झारखंडः भाजपा के सामने रिकॉर्ड बचाने की चुनौती
रांची। लोकसभा चुनाव का ऐलान होने के साथ ही स्वाभाविक तौर पर झारखंड का सियासी माहौल गरम हो गया है। राज्य की 14 में से अधिकांश सीटों पर मुकाबला सीधा ही होगा, ऐसा माना जायेगा। इस सीधे मुकाबले में एनडीए और विपक्ष का महागठबंधन है। एकाध सीट पर वाम दल या दूसरे छोटे दल मुकाबले को तिकोना बना सकते हैं, लेकिन फिलहाल इसकी संभावना कम ही दिखती है। झारखंड के इस सियासी परिदृश्य में अब यह सवाल उठ रहा है कि क्या भाजपा पिछले संसदीय चुनाव में स्थापित रिकॉर्ड को बचा सकेगी। यह सवाल पिछले दिसंबर में हिंदी पट्टी के तीन बड़े राज्यों, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसकी हार के बाद और भी मौजूं हुआ है। इन राज्यों के विधानसभा चुनाव में अपनी हार के बाद से भाजपा बेहद सतर्क है और झारखंड के अपने दुर्ग को हर कीमत पर बचाने की जी-तोड़ कोशिश में जुटी है। इसके तहत ही उसने पहली बार आजसू के साथ तालमेल किया है और पांच बार से अपने कब्जे में रही गिरिडीह सीट को अपने सहयोगी दल के लिए छोड़ दिया है।
भाजपा के लिए इस बार लड़ाई आसान नहीं
भाजपा के नेता सभी राज्य की सभी 14 सीटों पर एनडीए की जीत का दावा कर रहे हैं, लेकिन इन दावों का हकीकत से कोई वास्ता नहीं है। अलग झारखंड के गठन से पहले भी एकीकृत बिहार के जमाने में भाजपा इस इलाके की सभी सीटें कभी नहीं जीत सकी है। इस बार तो मुकाबला और भी कड़ा है। पिछले संसदीय चुनाव में मोदी लहर के सहारे पार्टी 12 सीटों पर जीत सकी थी और उसे कुल 47.44 लाख के आसपास वोट मिले थे। यह भाजपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। शेष दो सीटों पर झामुमो ने कब्जा जमाया था।
पिछले चुनाव के बाद स्थिति बहुत बदल चुकी है। झारखंड की लाइफलाइन कही जानेवाली दो नदियों, दामोदर और स्वर्णरेखा में बहुत पानी बह चुका है। भाजपा के लिए इस बार चुनौती पिछली बार के मुकाबले बहुत बड़ी है। हालांकि भाजपा पिछले रिकॉर्ड को दोहराने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। इसके तहत ही पिछले तीन महीने के दौरान दो बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यहां आ चुके हैं। प्रधानमंत्री पांच जनवरी को पलामू आये और फिर 17 फरवरी को हजारीबाग का उनका दौरा हुआ। हजारीबाग में प्रधानमंत्री का नरम अंदाज देख कर लोगों को और खास कर भाजपा समर्थकों को अंदाजा हो गया कि इस बार लड़ाई उतनी आसान नहीं है।
वोटों का समीकरण
चुनावी राजनीति में सत्ता विरोध की कीमत हर सत्ताधारी दल को चुकानी पड़ती है। हाल के दिनों में इस लहर का कुछ अधिक ही असर देखने को मिल रहा है। इसके कारण भी भाजपा के सभी सीट जीतने के दावे पर संदेह होता है। यदि 2014 के चुनाव की बात करें, तो झारखंड में विरोधी दलों को 54 लाख वोट मिले थे। इनमें लगभग 47 लाख वोट कांग्रेस, झारखंड विकास मोर्चा, झारखंड मुक्ति मोर्चा और राजद के थे और चार सीटों पर चुनाव लड़ कर झामुमो ने 12 लाख 50 हजार 31 वोट हासिल किये थे। कांग्रेस और झामुमो ने गठबंधन के तहत चुनाव लड़ा था। राजद के लिए पलामू की सीट छोड़ी गयी थी, जहां वह दूसरे स्थान पर रहा था, जबकि जेवीएम ने अकेले लड़कर 15 लाख से कुछ अधिक वोट हासिल किये थे। भाजपा से अधिक वोट लाकर भी झामुमो के अलावा किसी दूसरे दल को कोई सीट नहीं मिली थी।
लेकिन इस बार स्थिति एकदम उलट है। इस बार कांग्रेस के नेतृत्व में झामुमो, झाविमो और राजद मिल कर चुनाव लड़ रहे हैं। हालांकि इन दलों में सीटों का तालमेल अब तक नहीं हुआ है, लेकिन यदि वाकई ये सभी मिल कर चुनाव लड़ गये, तो भाजपा के लिए रिकॉर्ड बचाना तो दूर, प्रतिष्ठा बचानी भी मुश्किल हो जायेगी।
अधिकांश सीटों पर डरी हुई है भाजपा
भाजपा खेमे में राज्य की अधिकांश सीटों को लेकर डर का माहौल भी है। ये सीटें रांची, हजारीबाग, धनबाद, कोडरमा, पलामू, चाईबासा, लोहरदगा और गोड्डा हैं। पिछले चुनाव में इन सीटों पर जीत हासिल करने में भाजपा के पसीने छूट गये थे। धनबाद में पीएन सिंह हालांकि तीन लाख के करीब के अंतर से जीते थे, लेकिन इस बार वह प्रदर्शन दोहराने के बारे में खुद भाजपाइयों को भी संदेह है। रांची में रामटहल चौधरी ने कांग्रेस के सुबोधकांत सहाय को लगभग दो लाख वोट से हराया था, लेकिन इस जीत में भाजपा की भूमिका कम थी, जातीय वोटों का समीकरण अधिक हावी था। हजारीबाग से जयंत सिन्हा और पलामू से बीडी राम ने दो-दो लाख के करीब के अंतर से जीत हासिल की थी, लेकिन इस बार इन दोनों को यदि संयुक्त विपक्ष का सामना करना पड़ा, तो फिर लेने के देने पड़ सकते हैं।
लोहरदगा में सुदर्शन भगत महज साढ़े छह हजार वोटों से और गोड्डा में निशिकांत दूबे 60 हजार से कुछ अधिक वोटों के अंतर जीते थे। इन दोनों सीटों पर भी यदि विपक्ष एक होकर उतरा, तो भाजपा के लिए मुश्किल हो सकती है। उधर चाईबासा में गीता कोड़ा की चुनौती ने भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ की नींद हराम कर रही है। पिछली बार गिलुआ बड़ी मुश्किल से गीता कोड़ा को मात दे सके थे।
इसके साथ ही भाजपा को राज्य में 2004 में हुए चुनाव के परिणाम को भी ध्यान में रखना होगा, जब कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए ने राज्य की 13 सीटों पर कब्जा जमाया था और उस चुनाव में केवल कोडरमा से बाबूलाल मरांडी ही भाजपा की प्रतिष्ठा बचाने में कामयाब रहे थे। इस बार बाबूलाल मरांडी भी यूपीए खेमे में हैं और भाजपा का खतरा बड़ा हो गया है।
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विपक्ष में टूट पर निगाह
भाजपा को विपक्षी गठबंधन में दरार को लेकर भरोसा है। वह पिछली बार की तरह इस बार भी विपक्ष के वोटों के बिखराव के भरोसे है। लेकिन महागठबंधन में अभी कायम अनिश्चतता यदि दूर हो गयी, तो वोटों के समीकरण के पैमाने के आधार पर कहा जा सकता है कि भाजपा के लिए यह चुनाव अग्निपरीक्षा साबित होगी। इसके साथ ही यह भी तय है कि विपक्ष यदि एकजुट नहीं हुआ, तो भाजपा का वोट विपक्ष की दीवार को आसानी से भेद देगी।
भाजपा के रणनीतिकारों और नेताओं को भरोसा है कि केंद्र और राज्य की सरकार ने विकास के जो काम किये हैं, चुनाव में उनके बदले वोट जरूर मिलेगा। इसके अतिरिक्त नरेंद्र मोदी का चेहरा भी है, जो पार्टी के सबसे बड़े खेवनहार बने हुए हैं।
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