जब आरा लोकसभा सीट पर रणवीर सेना ने राजनीति मंच बना कर खड़ा किया था उम्मीदवार
जब आरा लोकसभा सीट पर रणवीर सेना ने खड़ा किया था उम्मीदवार
नई दिल्ली। आरा लोकसभा सीट इस बार इस लिए चर्चा में है क्यों कि भाकपा माले पहली बार मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में चुनाव लड़ रही है। महागठबंधन ने इस सीट पर कोई उम्मीदवार नहीं दिया है। यहां भाकपा माले के प्रत्याशी राजू यादव का भाजपा के नेता और केन्द्रीय मंत्री राजकुमार सिंह से सीधा मुकाबला है। भाकपा माले नक्सली विचारधारा के समर्थकों की पार्टी है। एक समय ऐसा भी था जब रणवीर सेना के खुले मंच राष्ट्रवादी किसान महासंघ ने भी इस सीट पर चुनाव लड़ा था। ये वो दौर था जब बिहार में नक्सली बनाम रणवीर सेना की लड़ाई चल रही थी। हालांकि रणवीर सेना के समर्थकों को चुनाव में कामयाबी नहीं मिली लेकिन इसके बावजूद वे चुनावी राजनीति के मजबूत दवाब समूह बन गये। जीत-हार के लिए वे आज भी डिसाइडिंग फैक्टर माने जाते हैं।
लोकसभा चुनाव में रणवीर समर्थक
आमतौर यही माना जाता है कि रणवीर सेना भूमिहार ब्राह्मणों का सशस्त्र संगठन है। लेकिन इसके पहले अध्यक्ष राजपूत समुदाय के किसान रंगबहादुर सिंह थे। रणवीर सेना पर जब सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया तो इसने राष्ट्रवादी किसान महासंघ के नाम से एक खुला मंच बनाया। नक्सली बनाम रणवीर सेना की लड़ाई में दोनों संगठन अपना राजनीति आधार भी बढ़ाने की कोशिश करते रहे। भूमिगत नक्सली संगठन पहले आइपीएफ के नाम पर चुनाव लड़ते थे। फिर वे भाकपा माले के नाम पर चुनावी अखाड़े में उतरने लगे। इसको देख कर रणवीर सेना के समर्थकों ने भी चुनावी किस्मत आजमाने की सोची। 1998 के चुनाव में रणवीर समर्थकों ने राष्ट्रवादी किसान महासंघ की ओर से रंगबहादुर सिंह को आरा लोकसभा सीट पर खड़ा किया। रंगबहादुर सिंह राजपूत समुदाय से थे। नक्सलियों ने न केवल भूमिहारों के खेत पर लाल झंडा गाड़ा था बल्कि उनसे राजपूत किसान भी परेशान थे। रंगबहादुर सिंह को करीब 90 हजार ही वोट मिले। कहा जाता है कि ऐन चुनाव के समय समता-भाजपा के उम्मीदवार हरिद्वार सिंह ने भूमिहार-राजपूत किसानों से मेल कर लिया था। इस चुनाव में हरिद्वार सिंह की जीत हुई थी। रणवीर सेना का खुला मंच चुनाव हार गया लेकिन उसकी राजनीति हैसियत बढ़ गयी।
नक्सली विचारधारा का राजनीतिक मंच
बिहार में नक्सलवाद का जन्म आरा के एकवारी गांव में हुआ था। इस लिए आरा मैं उनका मजबूत आधार बना। नक्सली संगठन पहले इंडियन पीपुल्स फ्रंट के बैनर तले चुनाव लड़ते थे। आइपीएफ उम्मीदवार के रूप में रामेश्वर प्रसाद आरा सीट पर 1989 का लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं। लेकिन 1994 में आइपीएफ को भंग कर दिया गया। इसके बाद 1995 से नक्सली संगठन भाकपा माले के बैनर पर चुनाव लड़ने लगे। आइपीएक का गठन 1982 में हुआ था। 1985 के विहार विधानसभा में आइपीएफ ने 49 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन कहीं जीत नहीं मिली थी।
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जब 1989 में मिली जीत
1989 के लोकसभा चुनाव में आइपीएफ को ऐसी कामयाबी मिली कि पूरा देश हैरान रह गया। 1989 में इस दल के रामेश्वर प्रसाद ने आरा में जीत का झंडा गाड़ कर तहलका मचा दिया था। इसके बाद आइपीएफ और मजबूत हुआ। 1990 के बिहार विधानसभा चुनाव में उसने सात सीटें जीतीं। 14 सीटों पर उसके प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे। आइपीएफ ने बड़ी संख्या में दलित वोटरों को अपनी और खींचा। लेकिन एक साल बाद ही लालू यादव ने आइपीएक को जोर का झटका दिया। जातीय आघार पर लालू ने आपीएफ के सात में से चार विधायकों को अपनी तरफ तोड़ लिया। 1991 के लोकसभा चुनाव में आइपीएफ बुरी तरह बिखर गया। उसने 15 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन उसके सीटिंग एमपी रामेश्वर प्रसाद समेत सभी उम्मीदवार हार गये। इसके बाद नक्सली विचारधारा के समर्थकों ने भाकपा माले पार्टी बनायी। भाकपा माले बिहार विधानसभा के चुनाव में कभी-कभार अपनी उपस्थिति दिखाती रही लेकिन लोकसभा चुनाव में कोई खास प्रदर्शन नहीं रहा।
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2019 में क्या हो सकता है आरा में ?
पिछले चुनाव के आधार पर देखा जाए तो भाजपा-जदयू गठबंधन की स्थिति मजबूत दिखती है। 2014 के लोकसभा चुनाव में राजद को 2 लाख 55 हजार 204 वोट मिले थे जब कि भाकपा माले के राजू यादव को 98 हजार 805 वोट मिले थे। दोनों के मतों को मिला दिया जाय तो कुल मतों की संख्या 3 लाख 54 हजार 9 होती है। यह संख्या भाजपा के विजयी उम्मीदवार राज कुमार सिंह के कुल वोटों से कम है। राज कुमार सिंह को 3 लाख 91 हजार 74 वोट मिले थे। अगर इसमें जदयू की उम्मीदवार रहीं मीना सिंह के 75 हजार 962 मतों को जोड़ दिया जाए तो एनडीए का आंकड़ा 4 लाख 67 हजार से आगे निकल जाता है। 2019 के चुनाव में भाकपा माले को अपने कैडर वोट और राजद, रालोसपा के समर्थकों पर भरोसा है। आरा की तड़ारी विधानसभा सीट भाकपा माले के पास है। माले के लिए यह चुनाव बहुत मायने रखता है क्यों कि पहली बार उसे मुख्य विपक्षी की भूमिका हासिल हुई है। राजद ने जानबूझ कर ये सीट माले को दी है। अगर इस बार नहीं जीते तो फिर कभी ऐसा मौका नहीं मिलेगा। माले बिहार में अन्य चार सीटों पर लोकसभा का चुनाव तो लड़ रही है लेकिन वह मुख्य मुकाबले में कहीं नहीं है।
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