लोकसभा चुनाव 2019: क्या सेक्यूलर पार्टियां मुसलमानों को धोखा दे रही है?
यह पहली बार है जब सत्तारूढ़ पार्टी का कोई भी चुना हुआ सांसद मुसलमान नहीं है.
बिहार का मधुबनी अपनी चित्रकारी के लिए दुनियाभर में मशहूर है. लेकिन इस बार चुनाव में इसकी चर्चा एक ख़ास राजनीतिक वजह से रही.
कई वर्षों तक यहां से कांग्रेस का प्रमुख चेहरा रहे शकील अहमद पार्टी का साथ छोड़ कर चुनाव मैदान में निर्दलीय उतरे.
छह मई को हुए मतदान के पहले शकील अहमद के प्रचार अभियान के एक दिन की तस्वीर पेश करें तो वो कुछ ऐसी थी.
सुबह का वक़्त, सूरज धीरे-धीरे आसमान चढ़ता रहा. खुले नालों और तंग गलियों में राजनीतिक कार्यकर्ता, स्थानीय व्यापारी और समर्थक शकील अहमद को चारों तरफ़ से घेरे हुए थे.
फिर ये सभी धूल भरी गलियों में चुनाव प्रचार करने निकले.
कांग्रेस पार्टी के पूर्व प्रवक्ता और केंद्रीय मंत्री रहे शकील अहमद कोई साधारण उम्मीदवार नहीं. उनका इस पार्टी से तीन पीढ़ी पुराना जुड़ाव रहा था. उनके दादा और पिता दोनों ही कांग्रेस के विधायक रह चुके हैं.
लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव में टिकट कट जाने से नाराज़ शकील अहमद ने अपनी परंपरागत घरेलू सीट मधुबनी से निर्दलयी चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया.
भारतीय संसद में मुसलमानों के घटते प्रतिनिधित्व ने उन्हें 'चुनाव में खड़ा होने के लिए मजबूर किया.'
पिछले महीने दिल्ली से कांग्रेस के चार पूर्व विधायक शोएब इक़बाल, मतीन अहमद, हसन अहमद और आसिफ़ मोहम्मद ख़ान ने अपने पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी से दिल्ली की कम से कम एक लोकसभा सीट पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारने की बात कही थी, जिसे राहुल गांधी ने ठुकरा दिया.
कांग्रेस ने सातों सीटों से उम्मीदवारों की जो लिस्ट जारी की है उनमें एक भी मुसलमान नहीं हैं. एक सिख हैं अरविंदर सिंह लवली, बाक़ी छह हिंदू उम्मीदवार हैं.
- यह भी पढ़ें | दिल्ली में अबकी बार, किसके साथ पूर्वांचली
वोट मांगती हैं पर टिकट नहीं देती पार्टियां
पटना स्थित इमारत-ए-शरिया के सचिव मौलाना अनीसुर रहमान क़ासमी कहते हैं, "शकील अहमद जैसे बड़े कांग्रेसी नेता को अपनी ही सीट के लिए अपनी पार्टी से भीख मांगनी पड़ी. उन्हें पार्टी बहुत पहले ही छोड़ देनी चाहिए थी. केवल मुसलमान ही कांग्रेस पार्टी को जीत दिला सकते हैं."
"यह हमारे ख़िलाफ़ साज़िश है. आप मुसलमानों से कहते हैं कि उन्हें वोट दें लेकिन आप उन्हें टिकट नहीं देंगे?"
उनके ये आरोप ग़लत नहीं है. राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के वोट तो चाहती हैं लेकिन उस समाज को टिकट देने में हिचकिचाती हैं.
बिहार में 40 लोकसभा सीटे हैं, जिन पर बड़ी संख्या में उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन उनमें से मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है. कांग्रेस, राजद गठबंधन ने 40 में से सात सीटों पर मुसलमानों को टिकट दिया है जबिक बीजेपी-जदयू ने सिर्फ़ एक मुसलमान को टिकट दिया है.
यहां ये बताना भी ज़रूरी है कि राजद ने आठ यादवों को टिकट दिया है. और जनसंख्या की बात की जाए तो मुसलमान क़रीब 18 फ़ीसदी हैं जबिक यादव 12-13 फ़ीसदी हैं.
भाजपा ने पूरे देश में कुल सात मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है. ये सभी सात उम्मीदवार वही हैं, जिन्हें पार्टी ने 2014 के चुनावों में उतारा था. इनमें से कोई भी चुनाव जीत नहीं सका था.
यह पहली बार है जब सत्तारूढ़ पार्टी का कोई भी चुना हुआ सांसद मुसलमान नहीं है.
पिछले महीने कर्नाटक में भाजपा के वरिष्ठ नेता केएस ईश्वरप्पा ने एक सभा में कथित तौर पर कहा था, "अंसारियों को समझना चाहिए कि उन्होंने [कांग्रेस] उन्हें [मुसलमानों] सिर्फ़ एक वोट बैंक समझा है और हम कर्नाटक में मुसलमानों को टिकट नहीं देंगे क्योंकि वे हम पर विश्वास नहीं करते हैं. अगर वे हम पर विश्वास करेंगे, हमें वोट देंगे तब हम उन्हें टिकट देंगे?"
- यह भी पढ़ें | 'मुस्लिम घरों में हिंदू मंदिर मिलने' का सच
घट रही है मुस्लिम सांसदों की संख्या
कांग्रेस ने 2014 के चुनाव में 31 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, जिनमें से सात उम्मीदवार संसद पहुंचने में सफल रहे.
इस बार कांग्रेस ने देश की विभिन्न सीटों पर 32 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है.
संसद में मुस्लिम सांसदों की संख्या लगातार घट रही है. 1981 में देश की मुस्लिम आबादी क़रीब 6.8 करोड़ थी, जो 2011 में बढ़ कर 17.2 करोड़ हो गई.
लोकसभा में 1980 में कुल 49 मुस्लिम प्रतिनिधि थे, जबकि 2014 में यह आंकड़ा महज़ 22 पर सिमट गया.
मुस्लिम कार्यकर्ताओं का कहना है कि उनकी ज़्यादा शिकायत कांग्रेस से है. पार्टी उन्हें प्रतिनिधित्व का मौक़ा नहीं दे रही है.
इंसाफ़ इंडिया के राष्ट्रीय संयोजक और यूनाइटेड मुस्लिम पॉलिटिकल एम्पावरमेंट नाम से अभियान चलाने वाले मुस्तक़ीम सिद्दीक़ी कहते हैं, "उन्होंने मुसलमानों के मन में भाजपा के लिए इतना भय पैदा कर दिया है कि अब भी अगर वो हमें एक भी टिकट नहीं देते हैं तो भी मुसलमान इसके ख़िलाफ़ एक शब्द नहीं कहेंगे."
सिद्दीक़ी कहते हैं, "वे हमसे कहते हैं कि अगर वे मुसलमानों को टिकट देते हैं तो चुनावों में वोटों का ध्रुवीकरण होगा. वे यह भी कहते हैं कि मुसलमानों को टिकट न देकर, वे मतदाताओं को साबित कर रहे हैं कि वे मुस्लिम तुष्टिकरण में लिप्त नहीं हैं."
कांग्रेस से मुसलमानों की उम्मीद
समाज के घटते प्रतिनिधित्व से मुस्लिम वोटर परेशान हैं. उनका कहना है कि वे केवल मुसलमानों के मुद्दों के लिए वोट नहीं करते हैं.
मधुबनी के आसपास के खेतों में काम करने वाले मोहम्मद क़ादरी कहते हैं, "हर कोई बेहतर सड़क, बेहतर स्कूल, बेहतर नौकरी चाहता है, लेकिन वे धर्म के नाम पर चुनाव लड़ रहे हैं. शकील अहमद ने यहां अच्छा काम किया है लेकिन उन्हें टिकट नहीं दिया गया, क्योंकि वो मुसलमान हैं. ये ग़लत है."
"कोई भाजपा से ऐसी उम्मीद नहीं करता है पर हम कांग्रेस से इस तरह उम्मीद लगाते हैं."
धार्मिक नेताओं का यह भी कहना है कि उन्होंने अपने अनुयायियों को इस बार 'धर्मनिरपेक्ष दलों' को वोट करने के लिए प्रेरित किया है, क्योंकि उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है.
मौलाना क़ासमी कहते हैं, "हमलोग बंधुआ मज़दूर की तरह हैं जो स्वतंत्र तो हैं लेकिन नहीं भी हैं. एक समुदाय के रूप में, हमारी आबादी बढ़ी है लेकिन हमारे युवाओं के पास दूरदर्शिता नहीं है, वो शिक्षित नहीं हैं... इसलिए हम बंधुआ मज़दूर की तरह उन्हें वोट करते आ रहे हैं, जिन्हें हमारे पूर्वज किया करते थे."
दूरदर्शी मुस्लिम नेताओं की ज़रूरत
मुसलमानों को इसका एहसास है. मधुबनी में निचली जाति के मुसलमानों के लिए काम करने वाले अताउर्रहमान अंसारी कहते हैं, "हमें उनकी ज़रूरत है, जो हमारे लिए बोले. यहां रोज़गार की स्थिति ठीक नहीं है. हमारे बुनकर काम की तलाश में अपना घर छोड़ने को मजबूर हैं. अगर पार्टियां हमें मौक़ा नहीं देंगी तो हमारी आवाज़ कौन उठाएगा?"
इसलिए अब मुसलमानों के कई समूह इस राजनीतिक स्थिति को सुधारने के लिए अलग तरह की कोशिश कर रहे हैं.
सीएसडीएस ने मार्च 2019 में एक प्री-पोल सर्वे किया था, जिसमें दावा किया गया है कि कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और राजस्थान के मुसलमान कांग्रेस को छोड़ कर भाजपा को वोट देना पसंद कर रहे हैं.
हालांकि सीएसडीएस के उस सर्वे को कई लोगों ने मानने से इंकार कर दिया है.
धार्मिक नेताओं ने मुख्यधारा के मुस्लिम नेताओं की एक नई पीढ़ी की कल्पना करना शुरू कर दिया है जो देश का नेतृत्व कर सके, न कि केवल मुसलमानों का.
मौलाना क़ासमी कहते हैं कि नए नेताओं के लिए हमेशा जगह होती है और "मुसलमानों को अब नए नेतृत्व पर भरोसा करने के बारे में सोचना चाहिए न कि पार्टियों के भरोसे रहना चाहिए. हमलोगों को आज़ादी के समय के जैसे नेताओं की ज़रूरत है, जो दूरदर्शी हों, जिनकी पहचान न केवल मुसलमान के नेता के तौर पर हो, बल्कि पूरे देश के नेता के रूप में हो."