लालू यादव के बिना राजद का वजूद नहीं, बिहार में भाजपा के हाथों महागठबंधन की करारी हार
नई दिल्ली बिहार की राजनीति की बात हो और लालू प्रसाद यादव का जिक्र ना हो ऐसा नामुमकिन है। बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव हमेशा से ही प्रासंगिक रहे हैं। लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव की नामौजूदगी राष्ट्रीय जनता दल के लिए महंगी साबित हुई है। आलम यह है कि बिहार में लालू प्रसाद यादव की पार्टी महज दो सीटों पर सिमटती नजर आ रही है। बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीटों में से राजद को सिर्फ दो सीटें मिलती दिख रही है, वहीं एनडीए की बात करें तो वह बिहार में 38 सीटों पर प्रचंड जीत दर्ज करती नजर आ रही है। ना सिर्फ राजद बल्कि कांग्रेस सहित महागठबंधन के तमाम सहयोगी बिहार में अपना खाता तक नहीं खोल सके।
लालू के बिना पहला चुनाव
बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव की एंट्री 1977 में हुई थी और उसके बाद से यह पहला ऐसा चुनाव है जब लालू प्रसाद यादव इस बार चुनाव में मौजूद नहीं रहे। इस चुनाव में उनकी कोई जनसभा नहीं हुई और ना ही वह किसी भी तरह के प्रचार में शामिल हो सके, जिसका खामियाजा राजद को चुनाव में उठाना पड़ा। बता दें कि लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में दोषी साबित होने के बाद सजा काट रहे हैं और वह जेल में बंद है। इस बार लालू के बेटे तेजस्वी यादव की अगुवाई में राजद ने यह चुनाव लड़ा है।
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कई दिग्गज पीछे
इस बार के चुनाव में विपक्ष के कई बड़े नेता हार का सामना करते दिख रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी छोड़ कांग्रेस में शामिल हुए शत्रुघ्न सिन्हा पीछे चल रहे हैं। शत्रुघ्न सिन्हा के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद मैदान में हैं। वहीं उत्तर प्रदेश की अमेठी सीट जिसे कांग्रेस का गढ़ माना जाता है, वहां पर भाजपा उम्मीदवार स्मृति ईरानी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को कड़ी टक्कर दे रही हैं। फिलहाल स्मृति ईरानी राहुल गांधी से आगे चल रही हैं, ऐसे में हर किसी की नजर अमेठी पर बनी हुई है कि यहां पर नतीजे क्या होते हैं।
भाजपा पूर्ण बहुमत के पार
शुरुआती रुझान के अनुसार भाजपा के रवि किशन गोरखपुर में बड़ी अंतर से आगे चल रहे हैं। बता दें कि गोरखपुर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का संसदीय क्षेत्र है। उत्तर प्रदेश में महागठबंधन सिर्फ उन्ही सीटों पर आगे चल रहा है जहां पर मुस्लिम, दलित, यादव मतदाताओं की संख्या 50 फीसदी से अधिक है। बहरहाल देखने वाली बात यह है कि क्या इस चुनाव में भी हार के बाद सपा-बसपा एक साथ रहते हैं या फिर चुनाव में निराशा हाथ लगने के के बाद दोनों ही दलों के बीच का गठबंधन खत्म हो जाता है।
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