शेर की मौत: जंगल के राजा के लिए जगह की माँग
"शेरों को वहां पर भेजने के लिए आईयूसीएन के दिशानिर्देशों के अनुसार अध्यनन नहीं किया गया है. मामला अब भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
वन्यजीव संरक्षण ट्रस्ट के सदस्य भूषण पांड्या ने कहा कि शेरों का स्थानांतरण तब तक संभव नहीं है जब तक कि मध्य प्रदेश सरकार आईसीसीएन के दिशानिर्देशों के मुताबिक अध्ययन पूरा नहीं कर लेती.
आठ दिनों में 11 एशियाई शेरों की मौत.
गुजरात के स्थानीय अख़बारों के पहले पन्ने के साथ-साथ यह ख़बर राष्ट्रीय अख़बारों में भी प्रमुखता से प्रकाशित की गई थी. राज्य सरकार के आंकड़ो के मुताबिक, पिछले दो सालों में गुजरात की गीर सेंक्चुरी में 184 शेरों की मौत हुई है जिनमें से 30 की मौत असामान्य थी.
आख़िर किन वजहों से हो रही है इन शेरों की मौत ?
शेरों की मौत बड़ा मुद्दा न बने इसलिए सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि इन शेरों की मौत आपसी लड़ाई की वजह से हुई हैं.
हालांकि वन्य जीव कार्यकर्ताओं का मानना है कि यह ख़तरे की स्थिति है और शेरों की बढ़ती आबादी की वजह से अपने इलाक़े को लेकर उनके बीच और लड़ाईयां हो सकती हैं. ये शेरों के लिए जानलेवा साबित होगा.
इसी साल 12 से लेकर 19 सितंबर के बीच गीर सेंक्चुरी के डलखानिया और जसधर रेंज में 11 बाघों की मौत हो गई.
गांधीनगर में वन विभाग के अधिकारी जीके सिन्हा ने पत्रकारों को बताया, "इन 11 शेरों में से आठ शेरों की मौत इलाक़े के लिए लड़ाई की वजह से हुई."
उन्होंने बताया कि किसी दूसरी जगह से आए तीन शेर डलखानिया रेंज में घुस गए और उन्होंने शावकों को मार डाला.
उन्होंने कहा, "शेरों में इस तरह के हमले बहुत ही सामान्य बात है."
एक ओर जहां सरकारी अधिकारी इसे शेरों के बीच बेहद सामान्य क्रिया बता रहे हैं वहीं इस मामले ने शेरों की बढ़ती संख्या और जगह की कमी के मुद्दे को एक बार फिर हवा देने का काम किया है.
गुजरात में गीर नेशनल पार्क, गीर सेंक्चुरी, गिरनार सेंक्चुरी, मितियाला सेंक्चुरी और पनिया सेंक्चुरी शेरों के लिए संरक्षित क्षेत्र हैं. ये इलाक़े कम से कम 323 शेरों का आवास हैं.
राज्य के तटीय इलाक़ों में भी शेर रहते हैं. दक्षिण पश्चिम तट जिसके तहत सुत्रपदा, कोदीनार, ऊना और वेरावट तट आते हैं और दक्षिण पूर्व तट जिसके तहत राजुला, जाफ़राबाद और नागेश्री इलाक़े आते हैं, यहां भी शेरों की मौजूदगी है.
साल 2015 के आंकड़ों की मानें तो गुजरात में 523 शेर थे जबकि 2010 में इनकी संख्या 411 थी.
अगर बात जंगल से बाहर रह रहे शेरों की करें तो अमरेली ज़िले में इनकी संख्या सबसे अधिक है. साल 2015 के आंकड़ों के मुताबिक सवरकुंडला, लिलिया, राजुला और इसके आस-पास के इलाक़ों में 80 शेरों के होने की बात कही गई. इसके अलावा भावनगर में 37 शेर हैं. अमरेली और भावनगर में शेरों के लिए कोई अलग से सेंक्चुरी नही है.
भावनगर और अमरेली दो ऐसे ज़िले हैं जहां शेर अपने इलाक़ों को लेकर लड़ते रहे हैं. राज्य के वन विभाग ने राज्य की सरकार को एक प्रस्ताव भी दिया था, जिसमें कहा गया था कि इस इलाक़े के 109 स्क्वायर किलोमीटर को शेरों की सेंचुरी बना देनी चाहिए.
गुजरात राज्य के वन विभाग के प्रमुख संरक्षक जीके सिन्हा ने बीबीसी गुजराती को बताया कि "यह प्रस्ताव अभी भी राज्य सरकार के अधीन है"
राज्य वन मंत्री गणपत वसावा ने जून 2018 में घोषणा की थी कि भावनगर और अमरेली की 109 स्क्वायर किलोमीटर की ज़मीन शेरों के संरक्षण के लिए सुरक्षित कर दी जाएगी, हालांकि घोषणा पर अभी तक ज़मीनी स्तर पर अमल नहीं हुआ है.
बीते कुछ दशकों में गुजरात में शेरों की संख्या में खासी बढ़ोत्तरी देखने को मिली है. गुजरात हाईकोर्ट में राज्य वन विभाग की ओर से दायर किए गए हलफ़नामे के अनुसार, राज्य के 523 शेरों में कम से कम 200 शेर असुरक्षित इलाक़ों में रह रहे हैं.
वन्यजीव कार्यकर्ताओं का कहना है कि शेरों की बढ़ती संख्या को किसी भी सूरत में नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए. उनका आरोप है कि राज्य सरकार तमाम प्रयासों के बावजूद शेरों के लिए एक सुरक्षित इलाक़ा तैयार करने में नाकामयाब रही है.
बीबीसी से बात करते हुए वन्य विभाग संरक्षणकर्ता भूषण पांड्या ने बताया कि 2015 के बाद से शेरों की संख्या अधिकारिक आंकड़ों से कहीं ज़्यादा बढ़ी है.
"अगर हम अपने कार्यकर्ताओं और स्थानीय लोगों से मिली जानकारी के आधार पर बात करें तो साल 2017 तक गुजरात में क़रीब 700 शेर थे और इनमें से आधे सेंक्चुरी से बाहर रहते हैं."
पांड्या दशकों से शेरों के संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं. वो आगे कहते हैं कि जब तक सरकार शेरों के लिए एक ईको-सेंसिटिव ज़ोन नहीं बनाती और वे आराम से नहीं रहने लग जाते, उनकी मौतों का सिलसिला यूं ही बना रहेगा. कभी असमान्य मौत की वजह से तो कभी आपसी लड़ाई के चलते.
हाल की मौतों को लेकर आधिकारिक बयानों पर संदेह
अमरेली स्थित वन्य जीव संरक्षणकर्ता राजन जोशी का कहना है कि इस बात पर यक़ीन करना थोड़ा मुश्किल है कि 11 शेरों की मौत आपसी लड़ाई में हो गई.
"बीते कुछ सालों में मैंने तो इस तरह की कोई घटना नहीं देखी."
राजन किसी संक्रामक बीमारी के होने का संदेह जताते हैं. वो कहते हैं कि वन्य विभाग को शेरों के मौत की असल वजह तलाशने की कोशिश करनी चाहिए.
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"कई बार ऐसा होता है कि बाहरी कुत्ते, शेरों के इलाकों में घुस जाते हैं और उनके साथ शिकार खाते हैं. ऐसे में उनका स्लाइवा शेरों में चला जाता है. फिर ये संक्रमण एक शेर से दूसरे में फैल जाता है. सरकार को ऐसी आशंकाओं को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए."
वैसे वन विभाग के अधिकारी जीके सिन्हा इस तरह की किसी भी आशंका से इनकार करते हैं. वो बताते हैं कि शेरों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट आ गई है जिसमें किसी भी तरह के वायरस की बात सामने नहीं आई है.
वन विभाग अधिकारियों की एक टीम आगे की जांच के लिए जूनागढ़ भेजी जा चुकी है. इस बीच वन विभाग मंत्री गणपत वसावा ने इस बात की आशंका ज़रूर जताई है कि हो सकता है स्थानीय लोगों ने शिकार के लिए इन शेरों को ज़हर दिया हो.
गीर सेंक्चुरी 300 शेरों के रहने और खाने के लिए पर्याप्त है. लेकिन साल 1995 में ही यह संख्या 304 के क़रीब पहुंच गई थी.
शेरों को मध्य प्रदेश भेजा जाए
सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ, जिसमें जस्टिस एस एस राधाकृष्णन और चंद्रमौली कुमार प्रसाद शामिल हैं, ने 2013 में आदेश दिया कि एशियाई शेरों को पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश में भेज दिया जाए. अदालत ने कहा कि शेरों का दूसरी जगह भेजने का काम इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़रवेशन ऑफ़ नेचर (आईयूसीएन) के दिशानिर्देश के अनुसार किया जाना चाहिए.
वन्यजीव संरक्षण ट्रस्ट के अध्यक्ष किशोर कोटेचा ने बीबीसी गुजराती को बताया कि मध्य प्रदेश में कुनो राष्ट्रीय उद्यान एशियाई शेरों के लिए उचित जगह नहीं है.
"शेरों को वहां पर भेजने के लिए आईयूसीएन के दिशानिर्देशों के अनुसार अध्यनन नहीं किया गया है. मामला अब भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
वन्यजीव संरक्षण ट्रस्ट के सदस्य भूषण पांड्या ने कहा कि शेरों का स्थानांतरण तब तक संभव नहीं है जब तक कि मध्य प्रदेश सरकार आईसीसीएन के दिशानिर्देशों के मुताबिक अध्ययन पूरा नहीं कर लेती.
अध्ययन में रहने की जगह, खाना, वनस्पति और स्थानीय मौसम आदि जैसे मुद्दों को शामिल किया जाता है.
सेंचुरी और संरक्षित इलाक़ों के बाहर शेरों की मौत की प्रमुख वजहें
बिजली के करंट की वजह से मौत
राज्य वन विभाग के मुताबिक़, साल 2016-2017 में तीन शेर करंट लगने से मर गए थे. संरक्षणकर्ता जोशी का कहना है कि अकसर गांव वाले अपनी फसलों को बचाने के लिए बिजली के तारों का इस्तेमाल करते हैं. ऐसे में कई बार शेर भी इन तारों के संपर्क में आ जाते हैं.
सड़क दुर्घटना
राज्य सरकार के आंकड़ों की मानें तो साल 2016 से 2017 के बीच तीन शेर दुर्घटना के चलते मारे गए. पिपावव-सुरेंद्रनगर राजमार्ग पर यात्रियों अक्सर सड़क पार करते शेर मिल जाते हैं. इसके अलावा कई बार बाइकर्स को शेरों को तंग करते हुए बी देखा जाता है.
खुले कुंए
बहुत से शेर कुंओं में गिरने की वजह से भी मारे जाते हैं. ये कुंए ढके हुए नहीं होते हैं और न ही इनके चारों ओर किसी तरह का बाड़ा लगा होता है, ऐसे में कई बार शिकार के पीछे भागते हुए शेर कुंए में गिर जाते हैं.
ज़हरीला पानी
साल 2017 में दो शेर ज़हरीला पानी पीने की वजह से मारे गए थे. बीबीसी से बात करते हुए राजन बताते हैं कि कई बार किसान अपने खेतों में यूरिया का इस्तेमाल करते हैं. ऐसे में अगर शेर इस पानी को पी लेता है या फिर इस पानी को पीने वाले जानवर का शिकार करता है तो भी उनकी मौत होने का ख़तरा बढ़ जाता है.
रेलवे दुर्घटना
साल 2017 में पिपावव-सुरेंद्रनगर के बीच चलने वाली मालगाड़ी से कटकर दो मादा शेर की मौत हो गई थी. इन मौतों के बाद प्रशासन ने कुछ हिस्सों की घेराबंदी कर दी थी लेकिन एक बड़ा हिस्सा अब भी वैसा ही है. और अक्सर शेर इन रास्तों को पार करते देखे जाते हैं.
शेर की संख्या को लेकर अंतिम गणना साल 2015 में की गई थी और यह संख्या अनुमानित संख्या से 27 फ़ीसदी ज़्यादा थी.
एशियाई शेरों का इतिहास
गुजरात के बाहर 1884 में आखिरी बार एशियाई शेर देखा गया था, जबकि गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में जैसे ध्रंगधारा, जसदन, चोटीला, बरदा हिल्स, गिरनार और गीर वनों के कुछ हिस्सों में रहते है. हालांकि, धीरे-धीरे उनकी संख्या गीर वन तक ही सीमित हो गई थी और तब जूनागढ़ के नवाबों ने शेरों के संरक्षण के बारे में सोचना शुरू किया.
2015 में शेरों की गिनती की गई थी और तब के आंकड़ों के मुताबिक 523 शेर राज्य के आठ जिलों के 22,000 किलोमीटर के क्षेत्र में रहते हैं. उनका आवास गीर वन में सीमित था, जो गीर सोमनाथ ज़िले में पड़ता है. ये शेर जूनागढ़, अमरेली, भावनगर, राजकोट, बोतद, पोरबंदर और जामनगर जिलों में पाए जाते हैं.
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