भाजपा को मुख्यमंत्री को फ्री हैंड छोड़ना पड़ रहा महंगा!
Leaving The Free Hand to The Chief Minister Made Troubleझारखंड चुनाव में भाजपा की जबरदस्त हार का प्रमुख कारण मुख्यमंत्री रघुवर दास द्वारा पिछले पांच साल में लिए गए निर्णय भी बने। भाजपा ने सीएम रघुवर दास को अन्य राज्यों को फ्री हैंड छोड़ रखा था जिसका खामियाजा भाजपा को झारखंड राज्य गंवाने के रुप म
बेंगलुरु। एक के बाद एक बड़ी चुनावी सफलता हासिल करने वाले अमित शाह की हाल में हुए विधानसभा चुनाव में जादुई छड़ी मानों कहीं खो गई है। झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा की जबरदस्त हार भी इसका एक हिस्सा है। झारखंड में भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह समेत अन्य बीजेपी के बड़े नेताओं की चुनावी रैली हुई। अंतिम दो चरणों के चुनाव में तो प्रधानमंत्री ने जमकर प्रचार किया और अपने नाम पर वोट मांगे। इस सबके बावजूद भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा।
बता दें इस चुनाव ने भाजपा ने झारखंड चुनाव में बूथ मैनेजमेंट से लेकर सोशल मीडिया तक जमकर प्रचार किया था। भाजपा को झारखंड में अपनी खराब हुई छवि का थोड़ा अंदाजा थाा इसलिए जीत हासिल करने के लिए उसने पूरा दम लगा दिया। इस चुनाव में केंद्र की मोदी सरकार और राज्य की रघुवर दास दोनों सरकारों की उपलब्धियों का जमकर प्रचार किया गया। इस सारी कवायतों के बावजूद पिछली बार के मुकाबले पार्टी 12 सीटें कम जीती और बहुमत से दूर रहकर सरकार बनाने में असफल हो गयी। याद दिला दें झारखंड वह राज्य है जहां अभी 6 महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को14 में से 12 सीटों पर जीत मिली थी। अधिकतर लोकसभा क्षेत्रों में भाजपा उम्मीदवारों को 40 से 50 प्रतिशत तक वोट मिले। फिर इन छह महीनों में ऐसा क्या हुआ या क्या कमी कहां रह गई कि उसके प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री दोनों को ही जनता ने हार का स्वाद चखा दिया।
गौरतलब है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से जीतने के बावजूद तीन राज्यों के चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन उम्मीद से बहुत कमजोर रहा। हरियाणा विधानसभा चुनाव की बात करें तो भाजपा की सात सीटें कम हुई। हालांकि गठजोड़ से सरकार बनाने में भाजपा वहां सफल रही। वहीं महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 17 सीटें खोई और शिवसेना से संबंध टूटने के कारण सरकार भी नहीं बना पाई। अब तीसरा राज्य झारखंड था जहां पर भी बीजेपी की बुरी हार हुई।
भाजपा का ये दांव विफल रहा
भारतीय जनता पार्टी नेता रघुबर दास हमेशा से तेज नेता रहे, लेकिन झारखंड विधानसभा चुनाव में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री रघुवर दास को फ्री हैंड छोड़ना भाजपा की हार की वजह बना। वहीं झारखंड में भी भाजपा ने महाराष्ट्र और हरियाणा में जो गलती की उसे दोहराई। जिस तरह, महाराष्ट्र में गैर-मराठा (देवेंद्र फडणवीस) और हरियाणा में गैर-जाट (मनोहर लाल खट्टर) पर भरोसा किया गया था, उसी तरह झारखंड में भी पहली बार कोई गैर-आदिवासी (रघुवर दास) मुख्यमंत्री बना था। मगर यहां भी भाजपा का यह दांव विफल रहा। इतना ही नहीं महाराष्ट्र और हरियाणा की तरह झारखंड में मुख्यमंत्री को पूरी आजादी मिली हुई थी। इस कारण रघुवर ने अन्य राज्यों की तरह मनमाने निर्णय लिए जिसके कारण भाजपा के प्रति जनता की दूरी बढ़ती गयी।
रघुवर का ये कदम ने भाजपा से जनता को किया दूर
गौरतलब है कि पहले लोगों में यह धारणा थी कि भाजपा स्थानीय जातिगत समीकरण को महत्व नहीं देती। ‘स्थानीय बनाम बाहरी' की इस सोच को झारखंड की रघुवर सरकार के फैसलों ने और मजबूत किया। रघुवर सरकार ने वर्षो पुराने छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम में बदलाव की कोशिश की गई। कहा गया कि इन संशोधनों के बाद ‘विकास-कार्यों' के लिए जमीन का अधिग्रहण करना आसान हो जाएगा। लेकिन हर तरफ विरोध के बाद राज्य सरकार ने संशोधन की प्रक्रिया स्थगित कर दी लेकिन इससे जतना में यह संदेश गया ही कि स्थानीय सरकार आदिवासियों की जमीन छीनना चाहती है।
रघुवर के इन फैसलों ने भाजपा को पहुंचाया नुकसान
बता दें रघुवर दास ने पिछले पांच सालों में लिए गए कई फैसलों का खामियाजा भाजपा को चुनाव में भुगतना पड़ा। रघुवर दास को आदिवासियों से जुड़े किरायेदारी कानून में संशोधन लाने में असफलता का सामना करना पड़ा। इसके अलावा झारखंड धर्म की आजादी ऐक्ट, 2017 लाकर आदिवासियों का धर्म परिवर्तन रोकने, सरकारी स्कूलों को विलय जैसे फैसलों को खामियाजा भी भुगतना पड़ा। इनके अलावा जमशेदपुर और सरायकेला-खरसावां में उत्पादन की छोटी इकाइयों को बंद करने से नौकरियां चली गईं, प्याज के बढ़ते दाम और भूख और मॉब लिन्चिंग के कारण गईं जानों ने भी दास की लोकप्रियता को ऊंचाई से उतार दिया।
आदिवासी विरोधी पार्टी का तमगा भारी पड़ा
इतना ही नहीं, पांच साल के कार्यकाल में रघुवर सरकार ने विरोध-प्रदर्शन कर रहे करीब 10,000 आदिवासियों पर राज्य-द्रोह का मुकदमा दर्ज किया, जबकि राज्य में आदिवासियों की आबादी लगभग 26 फीसदी है और 30 विधानसभा सीटों पर वे निर्णायक की भूमिका में हैं। विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व कर रहे हेमंत सोरेन ने इस मुद्दे को चुनाव में खूब उठाया। उन्होंने अपना अभियान इसी पर केंद्रित रखा कि भाजपा सरकार आदिवासियों से उनका हक छीन रही है और बाहरी लोग बहुतायत में बसाए जा रहे हैं। कुल मिलाकर आदिवासी विरोधी पार्टी होने का तमगा सत्तारूढ़ दल पर भारी पड़ गया।
चुनाव के समय रघुवर के ये फैसले मंहगे पड़े
इतना ही नहीं इस बार चुनावों से पहले बीजेपी की सहयोगी ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन के सीट बंटवारे पर असहमत होकर अकेले चुनाव लड़ने के फैसले से पार्टी को झटका लगा। हालांकि, इसके बावजूद रघुवर दास अपने मुताबिक उम्मीदवार चुनते गए। यहां तक कि उन्होंने कैबिनेट सदस्य सरयू राय समेत दूसरे कई विधायकों को टिकट नहीं दिए। इससे उनके खिलाफ बगावत होने लगी।
एक बीजेपी कार्यकर्ता ने कहा है, 'बीजेपी नेता हर रैली में राम मंदिर की बात कर रहे थे उन्होंने स्थानीय मुद्दों को दर किनार कर दिया। भाजपा नेताओं में एक-दूसरे के प्रति इस कदर अविश्वास था कि मुख्यमंत्री रघुवर दास ने केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा को बिल्कुल किनारे कर दिया था, जबकि अर्जुन मुंडा राज्य में पार्टी का प्रमुख आदिवासी चेहरा रहे हैं।
वह मुख्यमंत्री पद भी संभाल चुके हैं। स्थिति यह थी कि रघुवर दास जब देवेंद्र फडणवीस की ‘महा-जनादेश यात्रा' व मनोहर लाल खट्टर की ‘जन-आशीर्वाद' यात्रा की तरह चुनावी यात्रा पर निकलने की सोच रहे थे और केंद्रीय शीर्ष ने उस यात्रा में अर्जुन मुंडा को भी शामिल करने की बात कही, तो रघुवर दास ने यात्रा ही स्थगित कर दी। इस तरह की घटनाओं ने भाजपा समर्थकों को काफी निराश किया।
नेतृत्च बदला जाता तो स्थिति बदल सकती थी
झारखंड में झामुमो का सबसे बड़े दल के रूप में उभरकर आना और गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिलने से दो बातें साफ हो जाती हैं। एक, राज्य सरकार के खिलाफ जनता में खासी नाराजगी थी। क्योंकि झामुमो को अभूतपूर्व सफलता मिली है। गठबंधन द्वारा हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करना विपक्ष के लिए लाभकारी रहा। जनता ने दोनों नेताओं की तुलना की। यह माना जा रहा है कि यदि चुनाव शुरू होने से पूर्व नेतृत्व बदला जाता तो, हो सकता है कि स्थिति बदल जाती।