कॉन्स्टेबल से जानिए नरोदा पाटिया दंगे के दिन जो हुआ
इन दंगों में हुई हिंसा का प्रदीप सिंह वाघेला पर कुछ ऐसा असर हुआ कि वो मानसिक रूप से पूरी तरह टूट गए. हालत इतनी खराब हो गई कि वो ज़िंदगी और मौत के बीच झूलने लगे.
प्रदीप सिंह आज भी वो दिन नहीं भूल पाए हैं. उन्होंने उस इलाके में स्थित अपना सरकारी आवास भी बदलकर कहीं और ले लिया है.
उन्होंने बीबीसी गुजराती संवाददाता वैभव पारिख से बातचीत में उस दौर के हालातों के बारे में बताया.
ख़ून, हत्या, पत्थरबाज़ी कर रही हिंसक भीड़ और दंगे जैसे कठिन हालातों में अपना होश संभालते हुए फर्ज़ निभाने वाले एक पुलिस कॉन्स्टेबल पर इन घटनाओं का क्या असर हो सकता है?
ज़्यादातर लोगों का जवाब होगा कुछ खास नहीं.
लेकिन, एक कॉन्स्टेबल के साथ ऐसा नहीं हुआ. साल 2002 के दौरान गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में लगी आग में कई कारसेवकों की मौत हुई थी.
उसके बाद राज्य में फैले दंगों में अहमदाबाद के नरोदा पाटिया इलाके में हुआ हत्याकांड इतना भयंकर था कि उसके गवाह रहे पुलिस कॉन्स्टेबल प्रदीप सिंह वाघेला आज भी एंटी डिप्रेशन दवाएं लेते हैं. उनका वजन अब 129 किलो हो गया है.
आज भी नहीं भूले वो दो दिन
साल 2002 के दंगों में जब नरोदा पाटिया इलाके में ये हत्याकांड हो रहा था तब प्रदीप सिंह वहां ड्यूटी पर थे.
उन्होंने उस दिन कई मुस्लिमों को हिंसक भीड़ से बचाते हुए सुरक्षित निकाला था. उन्होंने जले हुए लोगों का अंतिम संस्कार भी किया था.
इन दंगों में हुई हिंसा का प्रदीप सिंह वाघेला पर कुछ ऐसा असर हुआ कि वो मानसिक रूप से पूरी तरह टूट गए. हालत इतनी खराब हो गई कि वो ज़िंदगी और मौत के बीच झूलने लगे.
प्रदीप सिंह आज भी वो दिन नहीं भूल पाए हैं. उन्होंने उस इलाके में स्थित अपना सरकारी आवास भी बदलकर कहीं और ले लिया है.
उन्होंने बीबीसी गुजराती संवाददाता वैभव पारिख से बातचीत में उस दौर के हालातों के बारे में बताया.
प्रदीप सिंह वाघेला की आपबीती
मुझे आज भी वो दिन याद है, मेरी ड्यूटी नरोदा पाटिया के पास थी. मैं सरदार नगर पुलिस स्टेशन में सालों से नौकरी कर रहा था और पास ही की पुलिस लाइन में रहता था.
नरोदा और आसपास के लोग मुझे पहचानते थे इसलिए मुझे यहां ड्यूटी पर रखा गया था. तब वहां दंगे नहीं हुए थे.
सुबह वहां शांति थी और गुजरात बंद का ऐलान किया गया था. हज़ारों लोगों की भीड़ दुकानें बंद करा रही थी.
यूं तो सब कुछ शांत था लेकिन धीरे-धीरे भीड़ बढ़ती जा रही थी. पांच हज़ार से ज़्यादा लोग सड़क पर उतर आए थे लेकिन अभी दंगे शुरू नहीं हुए थे. नारे लग रहे थे और भीड़ बढ़ रही थी.
11 बजे से लेकर डेढ़ बजे के बीच अचानक एक मुस्लिम शख़्स टाटा 407 लेकर वहां से निकला. तब मैं वहीं खड़ा था.
भीड़ ने गाड़ी रोकने की कोशिश की तो उस शख़्स ने गाड़ी भीड़ पर चढ़ा दी. उसमें एक व्यक्ति गाड़ी के नीचे दब गया और तभी हालात खराब हो गए.
भीड़ भड़क गई, किसे कहां रोकूं समझ नहीं आया. लोगों ने पत्थरबाज़ी शुरू कर दी.
नरोदा पाटिया के पास अहमद हुसैन की चाली से पत्थर फेंके जाने लगे. इस पर सामने मौजूद भीड़ भी पत्थर मारने लगी. तब उन्हें संभालने के लिए पुलिस भी कम थी.
भीड़ बेकाबू हो रही थी
पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े. कुछ अधिकारियों ने भीड़ को काबू में करने के लिए फायरिंग भी की, पर काबू नहीं किया जा सका.
भीड़ में कौन थे समझ नहीं आ रहा था. कौन पत्थर फेंक रहा था ये पता ही नहीं चल रहा था.
तभी वहां ये बात फैल गई कि एक लड़के के हाथ-पैर काटकर उसे ठेले पर डालकर सड़क पर छोड़ दिया गया है. अब तनाव और बढ़ गया.
मकान और दुकान आग की लपटों में जल रहे थे. सभी पुलिस अधिकारी वहां मौजूद थे. मुझे एक आपा का फोन आ रहा था कि वहां कई लोग फंसे हुए हैं.
आपा ने कहा कि मुझे बचाओ. मैं और अन्य पुलिस अधिकारी लाचार थे क्योंकि हम बाहर का ही दंगा काबू करने की कोशिश में लगे हुए थे.
शाम को छह बजे के बाद हम नरोदा पाटिया की गलियों में घुसे जहां जली हुई लाशें पड़ी थीं. लाशें उठाने के लिए कोई नहीं था.
मैंने और मेरे साथियों ने कई लाशों को एंबुलेंस में डाला. उन लाशों के बीच एक आठ साल के लड़के का हाथ नज़र आया.
उसकी कमीज़ पूरी तरह जली हुई थी. मैंने उसे बाहर निकालकर पानी पिलाया. उसका आधा चेहरा जला हुआ था. मैं उसे तुरंत अस्पताल ले गया.
वहां छुपे लोगों को निकालते-निकालते हमें रात के एक बजे गए थे. हमने उन्हें राहत शिविर में भेज दिया.
उस रात पंचनामा और लाशों की पहचान के बीच उलझा हुआ था मैं, उस बच्चे को मैंने किसे सौंपा ये मुझे याद नहीं. उसका नाम युनूस या यासीन था.
अपने इलाके के लोगों को बचा न सका
''मुझे ऐसा लगता था कि मैं अपने इलाके के लोगों को बचा नहीं सका.
वो हिंदू हों या मुस्लिम वो मेरे पुलिस थाने की सीमा में थे. मेरे पिता भी पुलिसकर्मी थे. उन्होंने मुझे सिखाया था कि किसी व्यक्ति को ज़िंदा बचाना क़ानून से ऊपर है.
मुझे रात को नींद आनी बंद हो चुकी था. थोड़ी देर सोता तो सपनों में जलते मकान दिखते और लोगों की चीखें सुनाई देंती और मैं घबराकर जाग जाता.
मैं बहुत चिड़चिड़ा हो गया था. किसी से बात करने का मन नहीं करता था.
अहमदाबाद में हिंसा जारी थी. कर्फ़्यू लगा हुआ था. पर मेरे मन में हमेशा यही बात चलती कि पुलिसकर्मी होने के बावजूद भी मैं लोगों को बचा नहीं सका.
लोगों ने मुझे फ़ोन किया और मैं उनकी मदद नहीं कर सका.''
मैं बोल भी नहीं पाता था
''खाने-पीने से मेरा मन ऊब गया था. कोई खाने की बात भी करता तो मुझे गुस्सा आता.
धीरे-धीरे मेरा वज़न कम होने लगा. मुझे बार-बार जली हुई दुकानों और मकानों में जाना पड़ता था तो मुझे वही याद आता था.
मेरी हालत देखकर मेरे अधिकारियों ने मुझे मेडिकल लीव पर भेज दिया. मेरा परिवार भी तनाव में था. फिर मुझे सिविल हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ा.
मैं अस्पताल के बेड पर पड़ा रहता. मेरी पगार भी आनी बंद हो गई थी क्योंकि मेरी पत्नी को पता नहीं था कि मेडिकल लीव की रिपोर्ट देनी होती है.
मैं भी उसे बता नहीं पाया क्योंकि मैं बोल ही नहीं पाता था.''
'' मुझ पर कर्ज़ भी बढ़ता गया और घर की हालत खराब हो गई. जब अधिकारियों को मेरे बारे में साथियों ने ख़बर दी तो उन्होंने रुकी हुई सैलरी दिलवाई.
धीरे-धीरे मैं ठीक होता गया. लेकिन मैं मानसिक तौर पर टूट चुका था. मेरे अधिकारियों ने मुझे कहा कि ट्रैफिक विभाग में तैनात करने पर मुझे कम परेशानी होगी या फिर मुझे रीडर बना दिया जाए.
नरोदा पाटिया में लोगों को बचाने के लिए मुझे राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने बुलाकर शाबाशी भी दी थी.
मैंने पीसीआर वैन में फिर से काम शुरू किया और लोगों से मिलने पर मेरा जोश लौट आया.
मेरी इलाज चल रहा था और दवाओं के कारण मेरा वजन काफी बड़ गया था. मेरा वजन 70 से 129 किलो हो गया है. लेकिन, मेरी दौड़ने की क्षमता अब भी उतनी ही है.''
प्रदीप सिंह की पत्नी
प्रदीप सिंह की पत्नी ने बताया, ''मेरे लिए मेरे पति सबसे महत्वपूर्ण हैं इसलिए मैंने अपने सारे गहने गिरवी रख दिए थे. पति के इलाज में हुई तकलीफ़ के कारण बच्चों की पढ़ाई पर भी असर हुआ.''
प्रदीप सिंह के बारे में गुजरात पुलिस वेल्फेयर हॉस्पिटल की इंचार्ज डॉ. हिना त्रिवेदी ने बीबीसी को बताया, ''मानसिक रोग के इलाज की जानकारी निजी रखी जाती है. इसलिए मैं इस बारे में विस्तार से नहीं बता सकती.''
हालांकि, प्रदीप सिंह बताते हैं कि वो अब भी एंटी डिप्रेशन दवाइयां लेते हैं. लेकिन, अब उनकी हालत में काफी सुधार आया है और वो ट्रैफिक पुलिस के तौर पर काम कर रहे हैं.
प्रदीप सिंह वाघेला के मामले से वाकिफ़ गुजरात पुलिस वेल्फेयर हॉस्पिटल से जुड़े मनोचिकित्सक डॉ. गोपाल भाटिया ने बीबीसी को बताया कि एंटी डिप्रेशन ड्रग से उनका वज़न बढ़ सकता है.
"उनमें ऐसी मानसिक यातना के बाद मैच्योर साइकोलॉजिकल डिफेंस कायम हुआ है. जिसके कारण उन्होंने अपनी मानसिक समस्या की तरफ सकारात्मक रुख अपनाया है."