जानिए बच्चों के स्वास्थ्य पर कैसे प्रभाव डाल रहा जलवायु परिवर्तन
बेंगलुरु। देश भर में आज बाल दिवस मनाया जा रहा है। बच्चे सज-धज कर स्कूल गये हैं और उनके लिये तमाम कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है। लेकिन क्या आपको पता है- हमारे ये छोटे-छोटे नौनिहालों पर जलवायु परिवर्तन का जबर्दस्त खतरा मंडरा रहा है। साइंस जर्नल दि लैंसेट में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि आज पैदा होने वाले बच्चे बढ़ते तापमान की वजह से आजीवन अलग-अलग प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से ग्रसित रहेंगे। इस नए शोध में जलवायु परिवर्तन के बच्चों पर पड़ रहे प्रभावों पर अध्यध्यन किया गया है।
द लैंसेट में प्रकाशित एक नई प्रमुख रिपोर्ट विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ), विश्व बैंक, यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन, और सिंघुआ विश्वविद्यालय सहित 35 संस्थानों के 120 विशेषज्ञों ने मिलकर तैयार की है। रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि आने वाली पूरी पीढ़ी की भलाई इसी में है कि दुनिया पेरिस समझौते, जिसके अनुसार ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से कम करने के लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ें। चलिये बात करते हैं उन प्रभावों की जो बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ रहे हैं।
शिशुओं में कुपोषण का खतरा
तापमान बढ़ने के साथ, शिशुओं में कुपोषण और बढ़ती खाद्य कीमतों का सबसे बड़ा बोझ पड़ेगा - 1960 के दशक के बाद से भारत में मक्का और चावल की औसत उपज क्षमता लगभग 2% कम हो गई, कुपोषण पहले से ही 5 साल से कम उम्र में बच्चों की होने वाली दो - तिहाई मौतों के लिए जिम्मेदार है। जैसे जैसे तापमान बढ़ेगा खेतीबाड़ी कम होती जाएगी, कम फसल खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल देंगी और खाद्य कीमतों को बढ़ाएंगी। जब अनाज की कीमतें 2007-2008 में बढ़ गईं उसके फलस्वरूप मिस्र में ब्रेड की कीमतें 37% बढ़ीं। पिछले 30 वर्षों में मक्का (-4%), शीतकालीन गेहूं (-6%), सोयाबीन (-3%), और चावल (-4%) की वैश्विक उपज क्षमता में गिरावट आई है। शिशुओं और छोटे बच्चों को कुपोषण और संबंधित स्वास्थ्य समस्याओं जैसे कि संकुचित विकास (बौनापन), कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली और दीर्घकालिक विकास समस्याएं सबसे अधिक होने की आशंका रहेगी।
संक्रामक रोगों का खतरा
बढ़ते संक्रामक रोगों की वृद्धि से बच्चे सबसे अधिक पीड़ित होंगे - विब्रियो बैक्टीरिया के पनपने की जलवायु अनुकूलता के कारण 1980 के दशक की शुरुआत से भारत में प्रत्येक वर्ष 3% की दर से हैजा की बीमारी बढ़ रही हैं। यह ऐसा बैक्टीरिया है, जो डायरिया रोग पैदा करता है। बढ़ते तापमान और बारिश के पैटर्न में बदलाव इस बैक्टीरिया के लिये अनुकूल वातावरण तैयार हो रहा है। जिसके मद्देनजर बच्चों पर बीमारियों का खतरा मंडरा रहा है। खास कर डेंगू का। वैसे भी बच्चे विशेष रूप से संक्रामक रोगों के लिए अतिसंवेदनशील होते हैं।
हवा की गिरती गुणवत्ता के प्रभाव
भारत समेत कई देशों में वायु की गुणवत्ता लगातार गिरती जा रही है। इसके चलते आगे चलकर हृदय और फेफड़ों को नुकसान पहुंच रहा है। अगर भविष्य की बात करें तो आज पैदा होने वाला बच्चा जब किशोरावस्था में पहुंचेगा तो बेहद जहरीली हवा में सांस ले रहा होगा जिसकी वजह जीवाश्म ईंधन होगा। जिस प्रदूषण के बीच इन बच्चों के फेफड़े विकसित हो रहे हैं, उसे देखते हुए भविष्य में उनके फेफड़े कमजोर होंगे। उनके फेफड़ों के कार्य करने की क्षमता कम होगी, जिसके चलते अस्थमा का खतरा बढ़ सकता है।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन की सह-लेखक डॉ पूर्णिमा प्रभाकरन का कहना है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से स्वास्थ्य संबंधी खतरा भारत पर अधिक है। डायरिया के केस यहां आये दिन आते हैं। यहां पर डायरिया के कारण बच्चों की मौत भी हो जाती है। 2015 में भीषण गर्मी के चलते एक हजार से अधिक लोगों की मौत हुई थी। भविष्य में ऐसी घटनाएं बार-बार हो सकती हैं। पिछले दो दशकों में, भारत सरकार ने कई बीमारियों और घातक कारकों को दूर करने के लिए कई पहल और कार्यक्रम शुरू किए हैं। लेकिन यह रिपोर्ट बताती है कि पिछले 50 वर्षों में जो कुछ भी सार्वजनिक स्वास्थ्य लाभ में हासिल किया गया है जलवायु परिवर्तन से उलट सकता हैं।
अगली पीढ़ी के सामने कि चुनौती
रिपोर्ट जारी करते हुए दि लांसेट के प्रधान संपादक डॉ रिचर्ड होर्टन ने कहा कि जलवायु संकट आज मानवता के स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक है, लेकिन दुनिया को अभी तक सत्ता में बैठी सरकारों से ऐसी कोई खास प्रतिक्रिया नहीं मिली है, जो अगली पीढ़ी के सामने कि चुनौती के अभूतपूर्व पैमाने से मेल खाती हो। पेरिस समझौते की पूरी ताकत के साथ 2020 में लागू होने के साथ हम आज इस स्थिति में हैं कि इससे अलग होना या इसको नकार नहीं सकते।
संयुक्त राष्ट्र के प्रयास
आपको बता दें कि संयुक्त राष्ट्र की इकाई इंटर गवर्नमेंटल पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज इस दिशा में वृहद स्तर पर कार्य कर रही है। दुनिया के लिए संयुक्त राष्ट्र के जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने और अगली पीढ़ी के स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिए, ऊर्जा परिदृश्य में काफी बदलाव करना होगा और ऐसा जल्द ही करना होगा। यानी कोयले का प्रयोग कम करना होगा। दि लांसेट के अनुसार 2019 से 2050 तक जीवाश्म CO2 उत्सर्जन में 7.4% की वर्ष-दर-वर्ष कटौती करनी होगी तभी जाकर ग्लोबल वार्मिंग के 1.5 ° C के लक्ष्य को हासिल किया जा सकेगा। इसे हासिल करने के लिये लांसेट काउंटडाउन ने निम्न सुझाव दिये हैं-
- दुनिया भर में चरणबद्ध तरीके से कोयला आधारित ऊर्जा को तेजी से और तत्काल हटाना चाहिये।
- उच्च आय वाले देशों को सुनिश्चित करना कि कम आय वाले देशों की मदद करने के लिए 2020 तक एक वर्ष में 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वित्त प्रतिबद्धताओं को पूरा करें।
- सुलभ, सस्ती, कुशल सार्वजनिक और सक्रिय परिवहन प्रणालियों को बढ़ावा देना होगा। विशेष रूप से पैदल चलना और साइकिल चलाना जैसे कि साइकिल लेन बनाना और साइकिल किराए पर लेना या खरीद योजनाओं को प्रोत्साहित करना चाहिये।
- जलवायु परिवर्तन से हुए स्वास्थ्य नुकसान की भरपाई को सुनिश्चित करने के लिए स्वास्थ्य प्रणाली में भारी वित्तीय निवेश करना चाहिये, जिससे समय पर इलाज सुनिश्चित हो सके।
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