कुंभ 2019: किन्नरों के अखाड़े में क्या चल रहा है?
टेंट के अंदर बैठी लक्ष्मी से आशीर्वाद लेने वालों में साधु संत से लेकर गर्भवती महिलाएं तक शामिल हैं. यहां की एक ख़ास बात यह भी है कि लक्ष्मी हर किसी को सेल्फ़ी क्लिक करने का मौक़ा ज़रूर देती हैं और कई बार ख़ुद आगे बढ़कर फ़ोटो क्लिक करती हैं.
हालांकि लक्ष्मी के अलावा बाक़ी टेंट में अमूमन दिनभर चहल-पहल कम ही दिखती है. बाक़ी अखाड़ों की तरह न तो यहां चिलम फूंकते संत नज़र आते हैं और न ही किसी तरह की हलचल. सिर्फ़ लाउडस्पीकर पर भजन बजते हैं.
प्रयागराज यानी इलाहाबाद का कुंभ मेला इस बार कई वजहों से चर्चा में है. उन तमाम वजहों में से एक है- किन्नर अखाड़ा. रोशनी में डूबी कुंभनगरी में अमूमन हर शख़्स की ज़बान पर किन्नर अखाड़े का नाम है. हालांकि अखाड़ों को मान्यता देने वाली संस्था अखाड़ा परिषद इसे अखाड़ा मानने से इनकार करती है.
साल 2019 के कुंभ मेले के शुभारंभ की तैयारियां ज़ोंरों पर थीं, जब किन्नर अखाड़े के पदाधिकारी शाही पेशवाई लेकर शहर में दाख़िल हुए.
शहर से उनकी पेशवाई निकली तो लोग पहली बार किन्नरों को इस तरह देखकर दंग थे. साल 2016 में उज्जैन कुंभ मेले से चर्चा में आए किन्नर अखाड़े ने प्रयागराज के कुंभ में जूना अखाड़े से हाथ मिलाया और उसी के साथ आगे बढ़ने का फ़ैसला लिया. हालांकि इस फ़ैसले को लेकर किन्नर अखाड़ा की आचार्य महामंडलेश्वर और अखाड़ा प्रमुख लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी कहती हैं कि ये किन्नर अखाड़े का जूना अखाड़े में विलय नहीं है.
इस बात से जूना अखाड़े के संरक्षक हरि गिरि भी सहमत दिखते हैं. बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि ये कहना बिल्कुल ग़लत होगा कि किन्नर अखाड़े का जूना अखाड़े में विलय हो गया है. किन्नर अखाड़ा एक अलग संगठन है जो आगे भी रहेगा.
अलग से अखाड़ा बनाने की ज़रूरत क्यों?
किन्नरों के लिए अलग से अखाड़ा बनाने की ज़रूरत के सवाल पर लक्ष्मी कहती हैं, ''किन्नर अखाड़ा बनाने की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि किन्नर समुदाय का पतन सनातन धर्म से हुआ था और किसी ने उनकी सुध नहीं ली. साल 2014 में जब सुप्रीम कोर्ट ने हमें तीसरे जेंडर के तौर पर पहचान दी तो मुझे लगा कि किन्नरों को मान-सम्मान दिलाने के लिए धर्म से अच्छा रास्ता कुछ और नहीं हो सकता. लेकिन मैं स्पष्ट कर दूं कि मुझे किसी पद का लालच नहीं है, मैं ख़ुद को इस गद्दी की वॉचमैन समझती हूं.''
उन्होंने कहा, ''जूना अखाड़ा का माइंडसेट किन्नरों के प्रति काफ़ी अच्छा रहा है और हमें जिस तरह उन्होंने अपने साथ रखा वो हमारे लिए सम्मान की बात है. हमें जूना अखाड़े ने बड़ी उदारता से अपनाया.''
किन्नर अखाड़ा की महामंडलेश्वर भवानी नाथ वाल्मीकि कहती हैं, ''अखाड़ा बनाने की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमें मुख्यधारा से जुड़ना है. समाज के लोग हमें स्वीकार नहीं करते. लेकिन अपनी बात रखने और मनवाने के लिए धर्म सबसे अच्छी चीज़ है. सबको पूजा और सम्मान का अधिकार है तो किन्नर समाज के साथ भी वैसा ही बर्ताव हो.''
किन्नरों के अखाड़े का विरोध
किन्नर अखाड़ा बनाने की बात जब शुरू हुई तो किन्नर समुदाय के लोगों ने ही इसका विरोध करना शुरू किया. किन्नर समुदाय में विरोध की वजह भी धर्म है. यही नहीं, सनातन परंपरा पर बने 13 अखाड़ों ने भी शुरुआत से ही किन्नरों का अलग अखाड़ा बनाने का विरोध किया.
अखाड़ों को मान्यता देने वाली संस्था अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि का मानना है कि किन्नर अखाड़ा का कोई अस्तित्व सनातन परंपरा में नहीं है और आगे चलकर भी इसे 14वें अखाड़े के तौर पर मान्यता नहीं मिलेगी.
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नरेंद्र गिरि ने कहा, ''कोई किन्नर अखाड़े की मान्यता नहीं है. 13 अखाड़े हैं और 13 ही रहेंगे. वैसे भी वो जूना अखाड़े में समाहित हो गया है तो उसका कोई अस्तित्व अब रहा नहीं. किन्नर एक ऐसा समुदाय है जो किसी से अलग थोड़ी है. लक्ष्मी त्रिपाठी आई हैं, वही थोड़ा हल्ला कर रही हैं, लेकिन इससे कुछ हासिल नहीं होगा. जूना अखाड़ा में हैं वो लेकिन आगे चलकर जूना से भी वो बाहर हो जाएंगे, इसमें दोराय नहीं है. संन्यास परंपरा में किन्नरों को संन्यास लेने का अधिकार नहीं है. उन्होंने लालच में अगर ऐसा किया है तो ये किन्नर समुदाय का अपमान है.''
उन्होंने कहा, ''अपने घर में कोई ख़ुद को प्रधानमंत्री घोषित कर ले तो हर कोई थोड़ी मान लेगा. लेकिन मान्यता सिर्फ़ 13 अखाड़ों की है और वही रहेंगे. किन्नरों को संन्यास दिलाने वाले भी पाप के भागी होंगे क्योंकि शास्त्रों में किन्नरों को संन्यास दिलाने का कोई विवरण नहीं हैं.''
यही नहीं, किन्नर अखाड़े की कई पदाधिकारियों ने ये बात मानी कि अखाड़ा बनाने से पहले उन्हें अपने ही समाज के लोगों से विरोध झेलना पड़ा क्योंकि उनमें से बहुतायत इस्लाम को मानने वाले हैं. इस्लाम को मानने वाले किन्नर अखाड़ा बनाने के ख़िलाफ़ थे क्योंकि वो अपना धर्म छोड़कर हिंदू रीति-रिवाज नहीं अपनाना चाहते थे.
दिलचस्प बात ये है कि किन्नर अखाड़े की उत्तर भारत की महामंडलेश्वर भवानी ने ख़ुद इस्लाम छोड़कर हिंदुत्व को अपनाया है. वो हज पर भी जा चुकी हैं. हालांकि साल 2010 में इस्लाम धर्म को अपनाने से पहले वो हिंदू थीं.
वो कहती हैं, ''मैं लगातार हो रहे भेदभाव से परेशान हो गई थी और इसीलिए मैंने इस्लाम को अपनाया. मैं हज पर भी गई. मुझे इस्लाम ने नमाज़ पढ़ने की आज़ादी दी, मुझे हज पर जाने दिया. लेकिन जब मुझे मौक़ा मिला कि मैं अपनी सनातन परंपरा में वापस आ जाऊं और इसमें रहकर अपने समाज के लिए कुछ कर सकती हूं तो मैं आ गई. घर वापसी की कोई सज़ा थोड़ी है.''
क्या किन्नर अखाड़े में समलैंगिकों को जगह मिलेगी?
समलैंगिकों को किन्नर अखाड़े में शामिल करने के सवाल पर अखाड़ा के पदाधिकारियों में मतभेद साफ़ नज़र आता है. कुछ किन्नर मानते हैं कि समलैंगिकों को अखाड़े से जोड़ना उनका हक़ मारने जैसा क़दम होगा, जबकि अखाड़े की प्रमुख लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी हर वर्ग को अखाड़े से जोड़ने और साथ लेकर चलने की बात कहती हैं.
लक्ष्मी कहती हैं, ''ये सनातन धर्म का अखाड़ा है. हमारे अखाड़े में सबका स्वागत है. चाहे वो गे हो, लेस्बियन हो, या किसी भी सेक्सुअल ओरिएंटेशन के हों, हम सब को साथ लेकर आगे बढ़ने में भरोसा करते हैं. मैं किसी का पाप-पुण्य देखकर आशीर्वाद नहीं देती. हमारे अखाड़े के दरवाज़े सबके लिए खुले हैं.''
हालांकि भवानी नाथ वाल्मीकि इसके ठीक विपरीत अपना पक्ष रखती हैं. वो कहती हैं, ''समलैंगिकों ने किन्नर समुदाय का बहुत नुक़सान किया है. उनकी वजह से हमें बेहद मुसीबतें झेलनी पड़ी हैं. मेरे समाज में, मेरे अखाड़े में सिर्फ़ किन्नर होगा. मैं किन्नर हूं, किन्नरों का ही विकास करूंगी. मैं उनकी बुराई नहीं करूंगी लेकिन साथ भी नहीं दूंगी. बाक़ी लोग मेरी बात से इत्तेफ़ाक़ भले ही न रखें, लेकिन किन्नर समाज की दुर्दशा समलैंगिकों की वजह से ही है. उन्हें आज़ादी चाहिए थी, किन्नरों को नहीं.''
बाक़ी अखाड़ों से कैसे अलग?
किन्नर अखाड़े का नाम कुंभ मेले में हर किसी की ज़बान पर है. दूसरे अखाड़ों और बाबाओं का पता भले ही किसी को मालूम न हो लेकिन किन्नर अखाड़े के बारे में हर किसी को पता है.
किन्नर अखाड़े के मुख्य पंडाल पर लोगों की भीड़ दिनभर जुटती है जहां बैठे कुछ किन्नर उन्हें आशीर्वाद दे रहे होते हैं. इसके साथ ही अखाड़े की प्रमुख आचार्य महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी के टेंट के बाहर सुबह से शाम तक लोग जमा रहते हैं और उनकी एक झलक पाने को बेताब दिखते हैं.
टेंट के अंदर बैठी लक्ष्मी से आशीर्वाद लेने वालों में साधु संत से लेकर गर्भवती महिलाएं तक शामिल हैं. यहां की एक ख़ास बात यह भी है कि लक्ष्मी हर किसी को सेल्फ़ी क्लिक करने का मौक़ा ज़रूर देती हैं और कई बार ख़ुद आगे बढ़कर फ़ोटो क्लिक करती हैं.
हालांकि लक्ष्मी के अलावा बाक़ी टेंट में अमूमन दिनभर चहल-पहल कम ही दिखती है. बाक़ी अखाड़ों की तरह न तो यहां चिलम फूंकते संत नज़र आते हैं और न ही किसी तरह की हलचल. सिर्फ़ लाउडस्पीकर पर भजन बजते हैं.