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कृष्णा सोबतीः जिन्होंने हिंदीभाषी समाज को बताया कि स्त्री होना क्या होता है

.बेशक, शारीरिक तौर पर वे कुछ कमज़ोर थीं, लेकिन कहीं से अशक्त नहीं दिखीं और दो घंटे तक लगातार कई विषयों पर बात करती रहीं. उनसे मिलकर लौटते हुए हमें लगा कि हमारे भीतर भी एक नई स्मृति का संचार हो चुका है.

वे स्मृतियों से भी लबालब थीं और योजनाओं से भी लैस. वे अस्पताल जा-जा कर लौट आती थीं- जैसे बार-बार किसी अनजान ख़ुदा से इक़बाल का यह शेर कह कर लौट आती हों-

By BBC News हिन्दी
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कृष्णा सोबती
Facebook/Krishna Sobti
कृष्णा सोबती

94 साल की उम्र में मृत्यु शोक का विषय नहीं होती. कृष्णा सोबती के संदर्भ में यह शोक और बेमानी हो जाता है, जिनका पूरा जीवन और साहित्य जीवट, उल्लास और जिजीविषा की एक अदम्य मशाल रहा.

हाल के वर्षों में वे मुझे अपने बेहद संक्षिप्त उपन्यास 'ऐ लड़की' की वृद्ध नायिका की याद दिलाती रही थीं, जिसके मन-मस्तिष्क पर उम्र नाम की किसी सलवट, किसी झुर्री का आभास तक नहीं मिलता था.

इसके अलावा हाल के दिनों में वे लगातार बीमार रह रही थीं. बीते साल उन्हें जब ज्ञानपीठ सम्मान दिया जा रहा था तब भी वे आयोजन की जगह अस्पताल में थीं.

लेकिन यह समझना ज़रूरी है कि कृष्णा सोबती के होने का मोल क्या था और उनके जाने का मतलब क्या है. वह कौन सी परंपरा लेकर आईं और कैसी लीक छोड़ कर गई हैं.

कृष्णा सोबती हिंदी में ख़ासकर स्त्री-लेखन के शांत-शीतल तालाब में ऐसे पत्थर की तरह आईं, जिसने पूरे तालाब को हलचलों से भर दिया. बेशक, उनके पहले की नायिकाएं भी स्वतंत्र और स्वाभिमानी दिखती थीं, अपने व्यक्तित्व को खोजती थीं, लेकिन वे बड़ी सुघड़ गुड़ियाओं की तरह थीं, जो अच्छी तो लगती हैं, लेकिन जो ऐसी जीवंत नहीं हैं कि हमें परेशान कर डालें.

कृष्णा सोबती ने पहला काम यही किया कि इन गुड़ियाओं को हाड़-मांस की औरतों में बदला और फिर वह ज़ुबान दी जो मर्दवाद के कान में शीशे की तरह पड़ती थी.

उन दिनों के हिंदी संसार में अपनी देह से घबराई-सकुचाई, उसे छुपाने और उसकी कामनाओं को न दिखाने के लाख जतन करती नायिकाओं ने कृष्णा सोबती के उपन्यास 'मित्रो मरजानी', के प्रकाशन के बाद अचानक पाया कि उनके बीच एक मित्रो खड़ी है जो अपनी दैहिकता को लेकर कहीं भी संकोची नहीं है, वह अपने पति से पिट भी जाती है, लेकिन उसके व्यक्तित्व की जो चमक है, उसमें जो संघर्ष का माद्दा है, वह जैसे ख़त्म होता ही नहीं.

कृष्णा सोबती
Facebook/Om Thanvi
कृष्णा सोबती

हिंदीभाषी समाज को बताया- स्त्री होना क्या होता है

आने वाले तमाम बरसों में कृष्णा सोबती इस जीवट को बार-बार लिखती और जीती रहीं. 'डार से बिछड़ी', 'जिंदगीनामा', 'सूरजमुखी अंधेरे के", 'दिलो दानिश', 'समय सरगम' जैसी ढेर सारी कृतियां हैं जो अलग-अलग किरदारों और कहानियों में ढल कर बार-बार कृष्णा सोबती की अपनी जीवन दृष्टि के बेबाक बयान की तरह सामने आती रहीं.

वे बहुत घनघोर अर्थों में स्त्रीवादी नहीं थीं, शायद ख़ुद को ऐसे किसी विशेषण में ढाले जाने में संकोच भी करती थीं, लेकिन उनके उपन्यासों ने हिंदी लेखन की वह खिड़की खोली, हिंदीभाषी समाज को वह दुनिया दिखाई जिसमें स्त्री होने का मतलब देवी या दासी होना नहीं, हाड़-मांस की वे लड़कियां होना भी होता है जिनकी अपनी इच्छाएं होती हैं, जिनकी अपनी हताशाएं होती हैं, जिनकी अपनी विफलताएं होती हैं, लेकिन इन सबके बावजूद जिनके भीतर लड़ने और जीने का अपना माद्दा भी होता है.

आज अगर हिंदी का स्त्री लेखन ने अपनी एक अलग जगह-ज़मीन और दृष्टि बनाई है तो इसमें कुछ योगदान कृष्णा सोबती के लेखन का भी है.

दरअसल कृष्णा सोबती एक पूरी परंपरा का विस्तार हैं. जिसको समझने के लिए हमें हिंदी के दायरे के बाहर जाना होगा. यह अनायास नहीं है कि बीसवीं सदी के तीसरे दशक में तीन बड़ी लेखिकाएं लगभग एक साथ पैदा होती हैं- महाश्वेता देवी, कृष्णा सोबती और कुर्रतुलऐन हैदर.

तीनों में बस एक-एक साल का अंतर है. इससे कुछ बरस पहले अमृता प्रीतम आती हैं. और उनसे कुछ बरस पहले इस्मत चुगतई.

पता नहीं, भारतीय उपमहाद्वीप में एक ही समय वह कौन सा सांचा था जिसमें विद्रोह की ये मूरतें आकार ले रही थीं, लेकिन इन बहुत सशक्त लेखिकाओं और स्त्रियों ने भारतीय स्त्रित्व का वह परचम फहराया जिसकी शायद मजाज ने कभी उन्हीं दिनों कल्पना की थी-

माथे पे तेरे आंचल ये बहुत ख़ूब है लेकिन

इस आंचल से तू इक परचम बना लेती तो अच्छा था.

तो यह वह परंपरा है जिसने कृष्णा सोबती को बनाया और जिसे कृष्णा सोबती ने बनाया.

कृष्णा सोबती
Facebook/Shumita Didi Sandhu
कृष्णा सोबती

लेखन में जीवटता

कृष्णा सोबती के लेखन में जो जीवट दिखता रहा, वही उनके जीवन में भी नज़र आता रहा. बेशक बाद के वर्षों में उनकी कृतियों में बीमारी और बुढ़ापे की छाया दिखती है, लेकिन बेबसी की नहीं.

इस उत्तरकाल में वे 'समय सरगम' जैसा उपन्यास लिखती हैं और उसके बाद भी दो दशक से ज्यादा समय तक सक्रिय रहती हैं. इस सक्रियता के कई आयाम हैं.

करीब दो बरस पहले उनका आत्मकथात्मक उपन्यास 'गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान' आता है, जिसमें वे विभाजन की त्रासदी के बीच एक छोटी सी रियासत की कहानी कहती हैं और इस बात की तरफ़ ध्यान खींचती हैं कि सरहदों के आरपार चल रही सियासत कितनी तरह के वहशत पैदा करती है, उसने कैसे-कैसे बंटवारे कर दिए हैं.

शायद यह जीवट ही था जिसने कृष्णा जी को लगातार वैचारिक तौर पर सक्रिय बनाए रखा. कुछ वर्ष पहले जब हिंदी के बौद्धिकों ने समाज में बढ़ती असहिष्णुता के ख़िलाफ़ मुहिम चलाई और एक कार्यक्रम रखा तो वहां वे व्हीलचेयर पर पहुंची और उन्होंने 'बाबरी से दादरी तक' की घटनाओं को रेखांकित किया.

उनसे जब-जब मिला, वे बेहद उत्फुल्ल, समकालीन प्रश्नों ही नहीं, बिल्कुल तात्कालिक संदर्भों पर भी उत्सुक दिखीं और हमेशा बराबरी के पक्ष में मुखर नज़र आईं.

दो बरस पहले उनसे मेरी आखिरी मुलाकात उनके घर पर हुई. 92 पार की कृष्णा जी से उस मुलाकात के पहले मेरी पत्नी स्मिता और मैं यह सोच रहे थे वे कुछ अशक्त होंगी.

बेशक, शारीरिक तौर पर वे कुछ कमज़ोर थीं, लेकिन कहीं से अशक्त नहीं दिखीं और दो घंटे तक लगातार कई विषयों पर बात करती रहीं. उनसे मिलकर लौटते हुए हमें लगा कि हमारे भीतर भी एक नई स्मृति का संचार हो चुका है.

वे स्मृतियों से भी लबालब थीं और योजनाओं से भी लैस. वे अस्पताल जा-जा कर लौट आती थीं- जैसे बार-बार किसी अनजान ख़ुदा से इक़बाल का यह शेर कह कर लौट आती हों-

बागे बहिश्त से मुझे हुक्मे सफ़र दिया था क्यों

कारे जहां दराज़ है अब मिरा इंतज़ार कर.'

बेशक कारे जहां दराज़ है- बहुत सारा काम बचा हुआ है- समाज को सुंदर बनाने का, मनुष्य को उसकी मनुष्यता लौटाने का, समय और सभ्यता को ज़्यादा समृद्ध बनाने का.

कृष्णा जी अब चली गई हैं और हमारे ज़िम्मे यह काम छोड़ गई हैं.

BBC Hindi
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English summary
Krishna Sobati Who told Hindi-speaking society what it is to be a woman
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