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जानिए, बिहार में बीजेपी को उसकी जीती हुई सीटों ने भी क्यों डरा दिया?

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नई दिल्ली- सत्ता में दोबारा वापसी के लिए बीजेपी हर फैसला बहुत ही सूझबूझ के साथ लेने की कोशिश कर रही है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी को उनके विरोधी अहंकारी साबित करने की कोशिश करते रहे हैं। पार्टी के कुछ पुराने साथी भी पूरे पांच साल से इसे मुद्दा बनाए हुए हैं। लेकिन, देशभर में बीजेपी और उसके सहयोगियों के बीच लोकसभा चुनाव के लिए सीटों के हुए तालमेल को देखने पर कहानी कुछ अलग ही नजर आती है। पूरब में असम से लेकर पश्चिम में महाराष्ट्र तक पार्टी ने बिना किसी ज्यादा विवाद के सहयोगी दलों के साथ आसानी से सीटों का बंटवारा कर लिया है। इसके लिए मोदी और अमित शाह को सहयोगियों के सामने झुकना भी पड़ा है, तो इसके लिए वे बड़ी ही चतुराई के साथ तैयार हुए हैं। चतुराई शब्द का प्रयोग करना इसलिए उचित लग रहा है, क्योंकि इस फैसले से कुछ सांसदों के खिलाफ जनता की नाराजगी को आसानी से दूर करने का प्रयास किया गया है।

जीती हुई सीटें छोड़ने की मजबूरी

जीती हुई सीटें छोड़ने की मजबूरी

बिहार में बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में जीती हुई जो सीटें सहयोगियों के लिए छोड़ी हैं, उनमें सीवान,गोपालगंज और नवादा की सीटें शामिल हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के मुताबिक इनमें से सीवान और गोपालगंज की सीटें भाजपा ने जेडीयू को इसलिए दी हैं, क्योंकि पार्टी को यहां के मौजूदा सांसदों के खिलाफ जबर्दस्त नाराजगी की जानकारी मिली थी। दरअसल,कुछ महीने पहले पार्टी ने अपने सांसदों को लेकर एक आंतरिक सर्वे कराया था और लोगों से अपने प्रत्याशियों को लेकर राय भी मांगी थी। जानकारी के मुताबिक नवादा सीट भी एलजेपी के खाते में जाने का आधार भी पार्टी का वही आंतरिक सर्वे हो सकता है। वैसे बीजेपी को रामविलास पासवान की एलजेपी के लिए 6 सीटें छोड़नी भी मजबूरी थी और निश्चित रूप से नवादा सीट भी उनकी पसंदीदा सीटों में एक रही होगी। इसी तरह भागलपुर सीट बीजेपी की मानी जाती रही है। पिछली बार बीजेपी वहां हार तो गई थी, लेकिन वहां पार्टी का अच्छा दबदबा माना जाता है। लेकिन, बीजेपी नेतृत्व को लगा कि आरजेडी के मुकाबले के लिए वहां अभी शायद जेडीयू ही बेहतर रहेगी।

कौन फंसे-कौन निपट गए?

कौन फंसे-कौन निपट गए?

बीजेपी की इस रणनीति में उसके कई मौजूदा सांसदों को अपनी सीटें गंवानी पड़ गईं और कुछ को सीटें छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। इसमें सबसे चर्चित नाम केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह का है, जिनकी नवादा सीट एलजेपी को दी गई है। चर्चा है कि उन्हें बेगूसराय भेजा जा रहा है, लेकिन इस फैसले से वो नाखुश नजर आ रहे हैं। उन्होंने साफ कहा है कि वो तो नवादा से ही लड़ना चाहते थे। बेगूसराय वही सीट है, जहां से सीपीआई की ओर से जेएनयू स्टूडेंट्स यूनियन के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार को चुनाव लड़ाने की चर्चा है। जाहिर है कि कन्हैया के लिए देशभर की विपक्षी पार्टियां एकजुट होंगी। ऐसे में मंत्री जी के सामने चुनौती बड़ी है।

लेकिन, सीवान के मौजूदा पार्टी सांसद ओम प्रकाश यादव और गोपालगंज से जनक राम को तो जोर का झटका लग चुका है। उनकी सीटें जेडीयू के खाते में हैं। पार्टी ने शायद उनके बारे में मिली फीडबैक देखकर कोई जोखिम लेने से बेहतर वह सीट सहयोगी को ही देने में भलाई समझी। एक और नाम है जो पार्टी नेतृत्व के फैसले से बहुत मायूस हुआ होगा। वह नाम है बीजेपी के प्रवक्ता और पूर्व केंद्रीय मंत्री शाहनवाज हुसैन का। पिछली बार भागलपुर में वो आरजेडी उम्मीदवार से मात खा गए थे। अगर जीते रहते तो शायद मोदी कैबिनेट में जगह जरूर मिली होती। लेकिन, इसबार उम्मीद संवरने से पहले ही बिखर चुकी है। जानकारी के मुताबिक अश्विनी चौबे भी उसी सीट को लेकर अड़े हुए थे। इसलिए पार्टी ने उसे जेडीयू को ही देना ठीक समझा। यानी सोच सिर्फ एक है कि बीजेपी उम्मीदवार के चलते किसी तरह से हार का खतरा है, तो उस क्षेत्र को सहयोगियों के खाते में डाल दिया जाय, ताकि चेहरा भी बदल जाय और पार्टी में भीतरघात की आशंका भी कम पड़ जाय।

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गठबंधन भरोसे पार्टी

गठबंधन भरोसे पार्टी

दरअसल, इस पूरी कवायद में बीजेपी का नजरिया साफ है कि थोड़ा-बहुत समाझौता करके भी सहयोगियों को साथ लेकर चलना जरूरी है। क्योंकि, दोबारा सरकार बनाने के लिए पहले जादूई आंकड़ा पार करना ज्यादा जरूरी है। अगर कुछ सीटें देकर सहयोगियों का आंकड़ा बढ़ भी जाए तो यह स्थिति ज्यादा अच्छी होगी, न कि वह सीट ही हाथ से निकल जाए। इसी रणनीति के तहत पार्टी ने कुछ सीटों पर अपने निकम्मे सांसदों को किनारे लगाने का आसान सा फैसला किया है। इस तरह से बीजेपी अधिकतम सीटें जीतने की ठोस रणनीति पर चल रही है, जिसमें सफलता कितनी मिलेगी यह कहना फिलहाल मुश्किल लग रहा है।

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English summary
Know why the BJP in Bihar also scared their winning seats
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