जानिए, बुआ के सामने क्यों सरेंडर कर चुके हैं बबुआ?
नई दिल्ली- उत्तर प्रदेश में इस बार बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन बनने से चुनावी माहौल में ही बदलाव नहीं आया है, जातीय समीकरणों के दायरे में पली-बढ़ी प्रदेश की दो प्रमुख राजनीतिक पार्टियों की सोच में भी परिवर्तन महसूस किया जा रहा है। हम बात कर रहे हैं समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की। लगभग ढाई दशकों तक ये दोनों पार्टियां और इसके नेता राजनीतिक विरोध के लिए ही नहीं, सामाजिक संघर्ष के लिए चर्चा में रहे हैं। लेकिन, बदली राजनीतिक परिस्थियों में ये दोनों पार्टियां न सिर्फ सियासी तौर पर एक प्लेटफॉर्म पर आने को मजबूर हुई हैं, बल्कि बार-बार इसके जरिए सामाजिक परिवर्तन का संकेत भी देने की कोशिश हो रही है। अगर हम सपा अध्यक्ष अखिलेश सिंह यादव और बसपा अध्यक्ष मायावती के महागठबंधन बनाने के फैसले से लेकर अब तक के सभी सियासी संकेतों को समझने का प्रयास करें, तो एक बात साफ नजर आती है। हर मौके पर बबुआ और उनका कुनबा, बुआ मायावती के सामने राजनीतिक तौर पर एक तरह से हथियार डालता हुआ नजर आया है। जबकि, राजनीतिक दबदबे में आज भी सपा की हैसियत बसपा से कहीं बड़ी है। ऐसे में सवाल बनता है कि आखिर क्यों अखिलेश ही बार-बार मायावती के सामने सरेंडर करने वाली भूमिका में नजर आ रहे हैं?
'बुआ' के पैर छूकर आशीर्वाद
गुरुवार को यूपी के कन्नौज में बीएसपी सुप्रीमो मायावती अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव के लिए वोट मांगने पहुंचीं थीं। वहां मंच पर डिंपल ने सार्वजनिक रूप से मायावती के पैर छूए और बहनजी ने उनके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। ढाई दशक की राजनीतिक दुश्मनी के बाद मुलायम के परिवार और मायावती के इस व्यवहार को देखकर लोगों का चौंकना असामान्य नहीं है। क्योंकि, कुछ महीने पहले तक कम से कम सार्वजनिक तौर पर तो इस तरह के सामाजिक शिष्टाचार की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। इस दौरान मायावती ने कहा, "गठबंधन के बाद मैंने इसे दिल से अपना बहू स्वीकार कर लिया है और अब यह मेरे अपने परिवार की सदस्य की तरह है। यह सब अखिलेश यादव के कारण हो रहा है, जो मुझे इतना सम्मान देते हैं, जैसे परिवार में एक बड़े को दिया जाता है। इनकी पत्नी के साथ मेरा भी एक खास लगाव है और मुझे विश्वास है कि भविष्य में भी ऐसा ही रहेगा। अब यह आपकी जिम्मेदारी है कि आप इन्हें वोट दें। पिछली बार यह यहां कम अंतर से जीती थी, इस बार लाखों वोटों से जिताइए।"
इससे पहले मायावती जब 24 साल की कटुता भुलाकर अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव के लिए वोट मांगने मैनपुरी पहुंचीं थीं, तो वहां भी अखिलेश के परिवार ने सामाजिक शिष्टाचार की सार्वजनिक पहल की थी। उस दिन अखिलेश के चचेरे भाई और मैनपुरी से मौजूदा सांसद तेज प्रताप यादव ने मायावती के पैर छूकर आशीर्वाद मांगे थे। उसी मंच पर मायावती के भतीजे आकाश आनंद ने बुजुर्ग मुलायम सिंह यादव का अभिवादन किया था, तो उन्होंने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिए थे।
मुलायम ने जताया माया का अहसान
जब से सपा और बसपा में तालमेल हुआ है, अखिलेश अपनी बुआ को सम्मान देने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं। मैनपुरी में जब मायावती अपने एक समय के सबसे बड़े विरोधी मुलायम सिंह यादव के लिए वोट मांगने पहुंचीं थी, तो भतीजे ने अपनी बुआ की मान-मर्यादा और राजनीतिक प्रतिष्ठा का ख्याल रखते हुए खूब सम्मान देने की कोशिश की थी। मायावती के प्रति बेटे के इस आदर भाव का मुलायम पर भी पिघलते नजर आए। उन्होंने मंच से लोगों को संबोधित कर कहा, "मायावती जी आई हैं, उनका स्वागत है। वो मेरे लिए समर्थन मांगने आई हैं, मैं उनका अहसान कभी नहीं भूलूंगा।"
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सपा से ज्यादा बसपा को सीटें दीं
यूपी की 80 लोकसभा सीटों पर जब सपा और बसपा ने गठबंधन करने का फैसला किया तब सपा को 37 सीटें और बसपा को उससे एक ज्यादा 38 सीट मिलीं। दोनों पार्टियों की राजनीतिक हैसियत में आए इस बदलाव को संकेतों में समझा जा सकता है। क्योंकि, तथ्य यह है कि आज की स्थिति में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन पार्टी से बड़ी पार्टी है। अगर 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजों को देखें, तो बसपा एक भी सीट नहीं जीत पायी थी और उसे महज 19.77% वोट मिले थे। जबकि, उसी चुनाव में सपा को उससे ज्यादा यानी 22.35% वोट मिले थे और वह मोदी लहर में भी 5 सीटें जीतने में सफल हुई थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी दोनों के प्रदर्शन में कोई तुलना नहीं है। यूपी की सभी 403 सीटों पर लड़कर मायावती ने सिर्फ 22.23% वोट शेयर के साथ 19 सीटें हासिल की थी, जबकि अखिलेश की अगुवाई में सपा ने उससे काफी कम यानी 311 सीटों पर लड़कर भी 47 सीटें जीती थीं और उससे कहीं ज्यादा यानी 28.32% वोट शेयर हासिल किए थे। यही नहीं, तथ्य ये भी है कि इस चुनाव में ज्यादातर कठिन सीटें सपा ने अपने खाते में ही रखी है और तुलनात्मक रूप से आसान सीटें बहुजन समाज पार्टी को दिए हैं। मसलन, ज्यादातर शहरी सीटें अखिलेश ने अपने पास रखे हैं, जहां बीजेपी से उसका कड़ा मुकाबला है या भाजपा के हाईप्रोफाइल प्रत्याशी मैदान में हैं। जैसे- वाराणसी, लखनऊ, गाजियाबाद, मेरठ जैसी सीटों पर समाजवादी पार्टी चुनाव लड़ रही है। इसलिए ऐसा लगना स्वाभाविक है कि बीजेपी से टक्कर लेने के लिए बबुआ ने बुआ के सामने सियासी सरेंडर कर दिया है।
अखिलेश के झुकने के कारण क्या हैं?
अखिलेश यादव 2012 में यूपी के मुख्यमंत्री बने थे, तो उस समय उनके पीछे उनके पिता मुलायम सिंह यादव की सक्रिय भूमिका थी। धीरे-धीरे मुलायम की उम्र ढलती गई और उनके लिए राजनीतिक तौर पर ज्यादा सक्रिय रहना मुमकिन नहीं रहा। यानी पहले सरकार की और बाद में पार्टी की भी पूरी जिम्मेदारी अकेले अखिलेश के कंधे पर आ गई। इस दौरान 2014 के आम चुनाव में मोदी लहर ने साइकिल की ऐसी हवा निकाली कि उसे खींचकर लेकर आगे बढ़ने में अखिलेश का दम निकलने लगा। नतीजा, परिवार में कलह मचना शुरू हो गया। चाचा शिवपाल यादव ने भतीजे के खिलाफ ताल ठोक दिया। अखिलेश किसी तरह पिता के आशीर्वाद से पार्टी के अंदर चाचा पर तो भारी पड़ गए, लेकिन 2017 के यूपी विधानसभा के चुनाव में उनकी साइकिल के दोनों टायर पंक्चर हो गए। अखिलेश ने गांधी-नेहरू परिवार के लड़के से दोस्ती के जरिए फिर से यूपी जीतने की रणनीति बनाई थी, लेकिन मोदी-योगी की जोड़ी ने दोनों लड़कों का सपना चकनाचूर कर दिया। ऐसे में अखिलेश के सामने परिवार की राजनीतिक विरासत को सहेजकर रखने की चुनौती सामने आ गई। पिता भी गाहे-बगाहे उसी मोदी के मुरीद बनते दिखाई दे रहे थे, जिसने परिवार के विकास की रफ्तार पर रोक लगा दी थी। लिहाजा, बबुआ को बुआ को मनाने के अलावा कोई चारा नहीं दिखा। वक्त की सियासी मार से पीड़ित बुआ भी थीं, ऐसे में उनको भी पुरानी बातें भूल कर भविष्य में आगे बढ़ने का मौका दिखाई पड़ा। अबकी बार उन्हें अखिलेश जैसा भतीजा मिला है, जो हर कीमत पर उनका सम्मान करने के लिए तैयार है और अपनी कीमत पर भी उनके राजनीतिक मंसूबों को पूरा करने में सहायक बनने के लिए तैयार है।
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