जानिए, NRC में ऐसा क्या है, जिसके खिलाफ कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष एकजुट है?
बेंगलुरू। असम इकलौता राज्य है जहां नेशनल सिटीजन रजिस्टर लागू किया गया। सरकार की यह कवायद असम में अवैध रूप से रह रहे अवैध घुसपैठिए का बाहर निकालना था। एक अनुमान के मुताबिक असम में करीब 50 लाख बांग्लादेशी गैरकानूनी तरीके से रह रहे हैं। यह किसी भी राष्ट्र में गैरकानूनी तरीके से रह रहे किसी एक देश के प्रवासियों की सबसे बड़ी संख्या थी।
दरअसल, 80 के दशक में इसे लेकर छात्रों ने आंदोलन किया था। इसके बाद असम गण परिषद और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के बीच समझौता हुआ। समझौते में कहा गया कि 1971 तक जो भी बांग्लादेशी असम में घुसे, उन्हें नागरिकता दी जाएगी और बाकी को निर्वासित किया जाएगा।
गौरतलब है असम में अब तक सात बार एनआरसी जारी करने की कोशिशें हुईं, लेकिन राजनीतिक कारणों से यह नहीं हो सका। वर्ष 2013 में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। अंत में अदालती आदेश के बाद असम एनआरसी की लिस्ट जारी की गई। असम की राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर सूची में कुल तीन करोड़ से अधिक लोग शामिल होने के योग्य पाए गए।
गृह मंत्रालय द्वारा जारी किए गए फाइनल लिस्ट के मुताबिक असम एनआरसी में कुल 19,06,657 लोग दावा पेश नहीं कर पाए। वहीं, इस सूची के लिए कुल 3,11,21,004 लोग पात्र पाए गए हैं। करीब 19 लाख लोग जो अपनी पात्रता नहीं घोषित कर पाए। इनमें 5 लाख बंगाली हिंदू थे जबकि 7 लाख मुस्लिम थे और शेष उत्तर भारत के स्थानीय हिंदू थे।
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एनआरसी की खामियां ही मानेंगे कि 31 अगस्त, 2019 में जारी किए असम एनआरसी में कुल 19 लाख लोग देश के नागरिक नहीं माने गए। यह दुनिया की सबसे बड़ी आबादी होगी, जिसके पास किसी भी देश की नागरिकता नहीं होगी। असम की यह आबादी स्टेटलेस आबादी की एक तिहाई होगी।
दुनिया में म्यांमार में सबसे ज्यादा 10 लाख रोहिंग्या आबादी है, जो किसी देश के नागरिक नहीं हैं। इसके बाद थाईलैंड में 7 लाख, सीरिया में 3.6 लाख, लातविया में 2.6 लाख लोगों के पास किसी भी देश की नागरिकता नहीं हैं। यूएन के मुताबिक दुनिया में एक करोड़ लोग ऐसे हैं, जो किसी देश के नागरिक नहीं है।
उल्लेखनीय है असम में एनआरसी लागू करने का मकसद घुसपैठियों की पहचान करना था। असम में रह रहे व्यक्ति को खुद को असम का नागरिक साबित करने के लिए 24 मार्च, 1971 से पहले जारी किया दस्तावेज बतौर सबूत पेश करना था। इसके लिए 1951 के एनआरसी या 24 मार्च,1971 तक जारी किया गया इलेक्ट्रोल रोल मान्य था।
इसके जरिए यह साबित करना था कि व्यक्ति के पूर्वज इस तारीख से पहले राज्य के नागरिक थे। इसके बाद पूर्वज से व्यक्ति का संबंध दिखाने वाला दस्तावेज भी पेश करना था। यह मुश्किल काम था, क्योंकि भारत में लोग दस्तावेज के महत्व को लेकर ज्यादा जागरूक नही हैं।
असम में लागू किए गए एनआरसी में लोगों को खुद को नागरिकता रजिस्टर में शामिल करने के लिए आवेदन देना जरूरी था। यह बहुत बड़ी कवायद थी। इसमें राज्य सरकार के 52,000 कर्मचारी शामिल किए गए थे। दस्तावेजों की जांच के लिए सैकड़ों एनआरसी सेवा केंद्र बनाए गए थे। पूरी प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में अंजाम दी गई। व्यक्ति को दो सूची में से एक दस्तावेज का चुनाव करना था।
पहली सूची में लोगों को दस्तावेज दिखाने थे, उनमें 1951 का एनआरसी, 24 मार्च, 1971 तक जमीन या किराए का रिकॉर्ड, नागरिकता प्रमाण पत्र, स्थायी नागरिकता प्रमाण पत्र, सरकार द्वारा जारी कोई लाइसेंस अथवा सर्टिफिकेट, बैंक या पोस्ट ऑफिस खाता, जन्म प्रमाण पत्र, राज्य शैक्षणिक बोर्ड या विश्वविद्यालय का शैक्षणिक प्रमाण पत्र, कोर्ट का रिकॉर्ड अथवा प्रक्रिया पासपोर्ट और एलआईसी की पॉलिसी शामिल थे।
उपर्युक्त दस्तावेज 24 मार्च, 1971 (मध्यरात्रि) से बाद के नहीं होने चाहिए थे और जिन लोगों के पास 1971 तक का कोई ऐसा दस्तावेज नहीं था, जिसमें उनका नाम हो वे इस लिस्ट में शामिल ऐसा कोई दस्तावेज दिखा सकते थे, जिसमें उनके माता-पिता/दादा-दादी के नाम हों। ऐसे लोगों को माता-पिता/दादा-दादी से संबंध स्थापित करने के लिए दूसरी सूची में शामिल 8 विकल्प में से कोई एक पेश करना जरूरी था।
दूसरी सूची में जन्म प्रमाण पत्र अथवा जमीन का दस्तावेज, बोर्ड अथवा यूनिवर्सीट का प्रमाण पत्र, बैक अथवा एलआईसी या पोस्ट ऑफिस का रिकॉर्ड, विवाहित स्त्री के मामले में सर्किल ऑफिसर अथवा ग्राम पंचायत सचिव का प्रमाण पत्र, मतदाता सूची राशन कार्ड और कोई अन्य मान्य कानूनी दस्तावेज शामिल थे.
असम एनआरसी में लिस्ट में जिन लोगों के नाम अंतिम एनआरसी में नहीं शामिल हुए उन्हें फॉरनर्स ट्राइब्यूनल का दरवाजा खटखटाना था। इस काम के लिए 200 नए फॉरनर्स ट्राइब्यूनल बनाए गए थे। फॉरनर्स ट्राइब्यूनल के फैसले से व्यक्ति के संतुष्ट नहीं होने पर वह उसके खिलाफ अपील कर सकता था।
उपर्युक्त प्रक्रिया के बावजूद एनआरसी का हिस्सा नहीं बन सके लोगों के लिए राज्यभर में डिटेंशन सेंटर बनाए गए थे। अभी राज्य में छह डिटेंशन सेंटर हैं। ये गोपालपाड़ा, डिब्रूगढ़, जोरहट, सिलचर, कोकराझार और और तेजपुर में हैं, जहां जिला जेलों को कैंप का रूप दिया गया है।
आईएएनएस-सीवोटर द्वारा जारी किए गए एक सर्वे में दावा किया गया कि देश के 62.1% नागरिक सीएए के पक्ष में हैं। 65.4% लोग चाहते हैं कि एनआरसी को पूरे देश में लागू किया जाए। 55.9% का मानना है कि सीएए और एनआरसी केवल अवैध प्रवासियों के खिलाफ हैं। इस सर्वे में 17 से 19 दिसंबर के बीच देशभर के 3,000 से ज्यादा नागरिकों की राय ली गई। इनमें असम, पूर्वोत्तर और मुस्लिम समुदाय से 500-500 लोग शामिल थे।
हाल में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि 2024 तक देश के सभी घुसपैठियों को बाहर कर दिया जाएगा। संभवतः गृहमंत्री शाह पूरे देश में एनआरसी लागू करने की ओर इशारा कर रहे थे। दिलचस्प यह है कि विवादास्पद सिटीजनशिप एमेंडमेंट एक्ट क़ानून के पक्ष में वोट कर चुके जेडीयू चीफ नीतीश कुमार ने अमित शाह सिटीजनशिप एक्ट में संशोधन को एनआरसी के दिशा में पहला क़दम बताया है।
एनआरसी का विरोध और सिटीजनशिप एक्ट का समर्थन करने वाले नीतीश कुमार वैसे देश के दूसरे मुख्यमंत्री हैं, क्योंकि ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल ने भी सिटीजनशिप एक्ट का समर्थन किया है, लेकिन एनआरसी का विरोध कर रहे हैं।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का एनआरसी के विरोध में कहना है कि बिहार में नेशनल रजिस्टार ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी) की ज़रूरत नहीं है। उनसे जब पूछा गया कि केंद्र के एनआरसी पर उनका स्टैंड क्या है? तो इसके जवाब में नीतीश कुमार ने कहा, "बिहार में इसे क्यों लागू किया जाए?
मालूम हो, नीतीश कुमार बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) शासित राज्यों में पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने एनआरसी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है। हालांकि नीतीश कुमार ने बिहार में एनआरसी नहीं लागू करने के पीछे कोई सार्थक तथ्य नहीं रखा, जिससे माना जा रहा है कि एनआरसी का विरोध भी राजनीतिक है।
बिहार के मुख्यमंत्री की तरह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी चीफ ममता बनर्जी ने एनआरसी के खिलाफ हैं। माना जा रहा है कि इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठाकर ममता बंगाल में हिंदुओं के बीच अपनी पैठ और छवि को और मज़बूत करना चाहती हैं।
चूंकि ममता के ख़िलाफ़ अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के आरोप लगाते रहे हैं, इसलिए ममता एनआरसी के विरोध के ज़रिए ऐसे आलोचकों का भी यह कर मुंह बंद कर सकती हैं कि एनआरसी के सूची से बाहर रखे गए लोगों में सिर्फ़ अल्पसंख्यक ही बल्कि हिंदू और हिंदी भाषी भी हैं।
एनआरसी के मुद्दे पर अपनी पक्ष को मजबूती देते हुए ममता का कहना है कि असम में रोजी-रोटी और कारोबार के सिलसिले में बंगाल के 1.20 लाख लोग रहते हैं, लेकिन उनमें से महज 15 हज़ार को ही एनआरसी में जगह मिल सकी है। उनकी दलील है कि देश के तमाम राज्यों में बाक़ी राज्यों के लोग रहते हैं।
लेकिन अगर एनआरसी की आड़ में लाखों-करोड़ों लोगों को विदेशी घोषित कर दिया गया तो देश में गृहयुद्ध से हालात पैदा हो जाएंगे। तृणमूल कांग्रेस प्रमुख का कहना है कि आख़िर ऐसे लोग कहां जाएंगे? क्या उनको बांग्लादेश भेजा जाएगा और क्या बांग्लादेश उनको वापस लेने पर राजी होगा?
माना जा रहा है कि एनआरसी के मुद्दे पर आक्रामक रुख अपना कर ममता बनर्जी राज्य के लोगों को यह संदेश देने का प्रयास कर रही हैं कि हिंदुत्व का नारा देने वाली भाजपा अपने सियासी फ़ायदे के लिए असम में हिंदू बंगालियों को भी निशाना बनाने से नहीं चूक रही है।
हालांकि 2005 में ममता बनर्जी का मानना था कि पश्चिम बंगाल में घुसपैठ आपदा बन गया है और वोटर लिस्ट में बांग्लादेशी नागरिक भी शामिल हो गए हैं। अरुण जेटली ने ममता बनर्जी के उस बयान को ट्वीट भी किया. उन्होंने लिखा, '4 अगस्त 2005 को ममता बनर्जी ने लोकसभा में कहा था कि बंगाल में घुसपैठ आपदा बन गया है।
बकौल ममता बनर्जी, मेरे पास बांग्लादेशी और भारतीय वोटर लिस्ट है. यह बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है. मैं यह जानना चाहती हूं कि आख़िर सदन में कब इस पर चर्चा होगी? वहीं, इस मुद्दे पर बैकफुट पर चल रही कांग्रेस पार्टी ने अब इस मसले पर फ्रंट फुट पर खेलने लगी है। कांग्रेस को लग रहा है कि एनआरसी पर स्टैंड साफ ना होने से बीजेपी को राजनीतिक फायदा हो रहा है।
यही वजह है कि हालिया कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक में एनआरसी मुद्दे पर विस्तार से चर्चा हुई है और कांग्रेसी नेताओं ने याद आया कि एनआरसी कांग्रेस का चलाया हुआ प्रोग्राम है, इसमें बीजेपी क्रेडिट क्यों ले रही है? कांग्रेस की कार्यसमिति ने कहा है कि जो भारतीय नागरिक हैं, उनको नागरिकता साबित करने में कांग्रेस मदद करेगी।
वहीं, बीजेपी लगातार कांग्रेस पर इल्ज़ाम लगा रही है कि पार्टी बांग्लादेशी घुसपैठियों के साथ है। पलटवार करते हुए कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा है कि असम समझौता कांग्रेस ने किया था। एनआरसी के लिए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सरकार ने प्रयास किया।
मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही एनआरसी के लिए 490 करोड़ रुपए दिए गए थे। हालांकि कांग्रेस ने सवाल किया कि 1998 से 2004 तक रही वाजपेयी सरकार ने कितने पैसे इस काम के लिए दिए थे? ज़ाहिर है कि इस मसले पर कांग्रेस की रणनीति बदल रही है। पार्टी अपने आपको बांग्लादेशी खासकर मुसलमानों के हिमायती के तौर पर नहीं दिखाना चाहती है।
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भारत में नागरिकता से जुड़ा कानून क्या कहता है?
नागरिकता अधिनियम, 1955 में साफ तौर पर कहा गया है कि 26 जनवरी, 1950 या इसके बाद से लेकर 1 जुलाई, 1987 तक भारत में जन्म लेने वाला कोई व्यक्ति जन्म के आधार पर देश का नागरिक है। 1 जुलाई, 1987 को या इसके बाद, लेकिन नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2003 की शुरुआत से पहले जन्म लेने वाला और उसके माता-पिता में से कोई एक उसके जन्म के समय भारत का नागरिक हो, वह भारत का नागरिक होगा. नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2003 के लागू होने के बाद जन्म लेने वाला कोई व्यक्ति जिसके माता-पिता में से दोनों उसके जन्म के समय भारत के नागरिक हों, देश का नागरिक होगा। इस मामले में असम सिर्फ अपवाद था। 1985 के असम समझौते के मुताबिक, 24 मार्च, 1971 तक राज्य में आने वाले विदेशियों को भारत का नागरिक मानने का प्रावधान था। इस परिप्रेक्ष्य से देखने पर सिर्फ असम ऐसा राज्य था, जहां 24 मार्च, 1974 तक आए विदेशियों को भारत का नागरिक बनाने का प्रावधान था।
क्या है एनआरसी और क्या है इसका मकसद?
एनआरसी या नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन बिल का मकसद अवैध रूप से भारत में अवैध रूप से बसे घुसपैठियों को बाहर निकालना है। बता दें कि एनआरसी अभी केवल असम में ही पूरा हुआ है। जबकि देश के गृह मंत्री अमित शाह ये साफ कर चुके हैं कि एनआरसी को पूरे भारत में लागू किया जाएगा। सरकार यह स्पष्ट कर चुकी है कि एनआरसी का भारत के किसी धर्म के नागरिकों से कोई लेना देना नहीं है इसका मकसद केवल भारत से अवैध घुसपैठियों को बाहर निकालना है।
एनआरसी में शामिल होने के लिए क्या जरूरी है?
एनआरसी के तहत भारत का नागरिक साबित करने के लिए किसी व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि उसके पूर्वज 24 मार्च 1971 से पहले भारत आ गए थे। बता दें कि अवैध बांग्लादेशियों को निकालने के लिए इससे पहले असम में लागू किया गया है। अगले संसद सत्र में इसे पूरे देश में लागू करने का बिल लाया जा सकता है। पूरे भारत में लागू करने के लिए इसके लिए अलग जरूरतें और मसौदा होगा।
एनआरसी के लिए किन दस्तावेजों की जरूरत है
भारत का वैध नागरिक साबित होने के लिए एक व्यक्ति के पास रिफ्यूजी रजिस्ट्रेशन, आधार कार्ड, जन्म का सर्टिफिकेट, एलआईसी पॉलिसी, सिटिजनशिप सर्टिफिकेट, पासपोर्ट, सरकार के द्वारा जारी किया लाइसेंस या सर्टिफिकेट में से कोई एक होना चाहिए। चूंकि सरकार पूरे देश में जो एनआरसी लाने की बात कर रही है, लेकिन उसके प्रावधान अभी तय नहीं हुए हैं। यह एनआरसी लाने में अभी सरकार को लंबी दूरी तय करनी पडे़गी। उसे एनआरसी का मसौदा तैयार कर संसद के दोनों सदनों से पारित करवाना होगा। फिर राष्ट्रपति के दस्तखत के बाद एनआरसी ऐक्ट अस्तित्व में आएगा। हालांकि, असम की एनआरसी लिस्ट में उन्हें ही जगह दी गई जिन्होंने साबित कर दिया कि वो या उनके पूर्वज 24 मार्च 1971 से पहले भारत आकर बस गए थे।
NRC में शामिल न होने वाले लोगों का क्या होगा?
अगर कोई व्यक्ति एनआरसी में शामिल नहीं होता है तो उसे डिटेंशन सेंटर में ले जाया जाएगा जैसा कि असम में किया गया है। इसके बाद सरकार उन देशों से संपर्क करेगी जहां के वो नागरिक हैं। अगर सरकार द्वारा उपलब्ध कराए साक्ष्यों को दूसरे देशों की सरकार मान लेती है तो ऐसे अवैध प्रवासियों को वापस उनके देश भेज दिया जाएगा।
एक बड़ी आबादी को CAA और NRC में अंतर नहीं पता
CAA या नागिरकता संशोधन कानून पर देशभर में बवाल मचा है। इसका विरोध करने वाले इसे गैर-संवैधानिक बता रहे हैं जबकि सरकार का कहना है कि इसका एक भी प्रावधान संविधान के किसी भी हिस्से की किसी भी तरह से अवहेलना नहीं करता है। वहीं, इस कानून के जरिए धर्म के आधार पर भेदभाव के आरोपों पर सरकार का कहना है कि इसका किसी भी धर्म के भारतीय नागरिक से कोई लेना-देना नहीं है। हालांकि, इन उलझनों के बीच देशभर में प्रदर्शन होने लगे और कई जगहों पर इसने हिंसक रूप भी अख्तियार कर लिया था। दरअसल, कई प्रदर्शनकारियों को लगता है कि इस कानून से उनकी भारतीय नागरिकता छिन जाएगी जबकि सरकार ने कई बार साफ किया है कि यह कानून नागरिकता देने के लिए है, न कि नागरिकता छीनने के लिए। एक बड़ी आबादी को CAA और NRC में अंतर ठीक से नहीं पता है।
जानिए, क्या है CAA और इसको लेकर क्यों रहे हैं देशभर में प्रदर्शन?
इस नागरिकता संशोधन कानून के तहत पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश से प्रताड़ित होकर आए हिंदू, सिख, ईसाई, पारसी, जैन और बुद्ध धर्मावलंबियों को भारत की नागरिकता दी जाएगी। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर दो तरह के प्रदर्शन हो रहे हैं। पहला प्रदर्शन नॉर्थ ईस्ट में हो रहा है जो इस बात को लेकर है कि इस ऐक्ट को लागू करने से असम में बाहर के लोग आकर बसेंगे जिससे उनकी संस्कृति को खतरा है। वहीं नॉर्थ ईस्ट को छोड़ भारत के शेष हिस्से में इस बात को लेकर प्रदर्शन हो रहा है कि यह गैर-संवैधानिक है। प्रदर्शनकारियों के बीच अफवाह फैली है कि इस कानून से उनकी भारतीय नागरिकता छिन सकती है।