Delhi Violence: जानिए, राजधानी दिल्ली की सुरक्षा के लिए क्या पूर्ण राज्य ही है एकमात्र विकल्प?
बेंगलुरू। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में पिछले 2 महीने से जारी हिंसायुक्त माहौल देश की छवि बाहरी दुनिया में खराब कर रही है। दिल्ली के मुस्लिम बहुल इलाके शाहीन बाग के बाद दिल्ली के दूसरे मुस्लिम बहुल इलाके जाफराबाद में जिस तरह की आगजनी और हिंसा का माहौल देखने को मिला है, उसने दिल्ली की लॉ एंड ऑर्डर की समस्या की पोल खोलकर रख दी है।
जाफराबाद में सरेआम एक उपद्रवी दिल्ली पुलिस के एक हेड पुलिस कांस्टेबल रतन लाल की गोली मारकर हत्या कर देता है और केंद्र सरकार, दिल्ली उप राज्यपाल और दिल्ली सरकार में बंटी दिल्ली एकदूसरे पर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप लगाकर आगे बढ़ गई। दिल्ली आज भी शाहीन बाग और अब जाफ़राबाद से उठी चिंगारी में धूं-धूं जल रही है, लेकिन दायित्वों और निर्वहन की जिम्मेदारी की लड़ाई में जनता लगातार पिस रही है।
राजधानी में सोमवार को जाफराबाद में जमा हुए उपद्रवी अभी भी बेखौफ होकर हिंसा को अंजाम दे रहे हैं और ड्युटी पर तैनात पुलिस के जवान आत्म रक्षार्थ खड़े हैं। शहीद हुए हेड कांस्टेबल रतन लाल पर गोली चलाकर मौके से फरार हुए उपद्रवी को मौका ए वारदात से रिकॉर्डे किए गए एक वीडियो क्लिप में हेड कांस्टेबल रतन लाल पर बंदूक लहराते हुए देखा गया, जिसकी पहचान मोहम्मद शाहरूख के रूप में हुई है।
आरोपी फिलहाल दिल्ली पुलिस की हिरासत में हैं, लेकिन सवाल उठता है कि देश के सबसे सुरक्षित माने जाने वाले राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली ऐसी नौबत क्यों आई, क्या दिल्ली में लॉ एंड आर्डर की स्थिति इतनी खराब है कि लोग सरेआम न केवल बंदूकें लहरा रहे हैं बल्कि हेड कांस्टेबल पर गोली चलाने से भी नहीं कतराते हैं।
जवाब छिपा है दिल्ली की मौजूदा व्यवस्था में, जहां दिल्ली की चुनी हुई सरकार का लॉ एंड आर्डर के मामले में शक्तिहीन होना है। एक पूर्ण राज्य की अनुपस्थिति में दिल्ली का सर्वेसर्वा वहां के जनता द्वारा चुनी हुई सरकार नहीं, बल्कि केंद्र द्वारा नियुक्त प्रशासक यानी उप राज्यपाल के अधीन है, जिसके ईर्द-गिर्द दिल्ली का लॉ एंड आर्डर घूमता है।
गौरतलब है दिल्ली की चुनी हुई सरकार से बड़ी सरकार दिल्ली का उपराज्यपाल है। दिल्ली प्रदेश में राष्ट्रपति के नुमाइंदे के रूप में काम करने वाला उपराज्यपाल केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त एक अधिकारी होता है। दिल्ली में मुख्य प्रशासक के रूप में कार्यरत उप राज्यपाल ही दिल्ली के सारे फैसले मसलन, लॉ एंड आर्डर, अधिकारियों के तबादले और उनके खिलाफ कार्रवाई का अधिकार उन्हीं के पास सुरक्षित हैं। यही नहीं, दिल्ली नगर निगम भी दिल्ली की चुनी हुई सरकार के सीधे अधीन नहीं है और दिल्ली सरकार के आदेशों को मानने के लिए बाध्य तक नहीं होती।
दिसंबर, 2012 में अन्ना आंदोलन से दिल्ली की राजनीति में कूदे आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने कई अन्य नारों के साथ दिल्ली को एक पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के मुद्दे को प्रमखुता से उठाया और दिल्ली की जनता की आवाज बन गए। दिल्ली की जनता ने पहली बार में केजरीवाल एंड पार्टी को 70 में से 28 सीटों पर जीत दिलाकर अपनी पीड़ा का प्रस्फुटन कर दिया था।
केजरीवाल 28 सीटों के साथ सरकार में काबिज नहीं हो सकते थे इसलिए कांग्रेस के बिना शर्त समर्थन लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने में सफल हुए, लेकिन 49 दिनों में ही केजरीवाल इस्तीफा देकर सरकार से बाहर हो गए और यह आरोप लगाया कि उन्हें काम नहीं करने दिया जा रहा है।
अगल दो वर्ष तक दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा रहा और वर्ष 2015 विधानसभा चुनाव में केजरीवाल एंड पार्टी ने दिल्ली विधानसभी की 70 में से 67 सीटों पर ऐतिहासिक जीत दर्ज कर सत्ता में वापसी की, लेकिन 5 वर्ष के कार्यकाल के बाद भी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने वाले मुद्दे को केजरीवाल एंड पार्टी अमलीजामा नहीं पहना सकी।
2003 में संसद में पेश हुआ दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का मसौदा
2013 में दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने को अपने घोषणापत्र में प्रमुखता से रखा था। मई 2014 में लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद भी डॉ. हर्षवर्धन ने बयान दिया था कि वह प्रधानमंत्री के पास जाकर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग करेंगे। दिल्ली में पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रहे विजय गोयल ने भी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग कई बार दोहराई। केंद्र में एनडीए की सरकार थी तब दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने संसद की ओर मार्च करते हुए दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग की थी। तब तत्कालीन गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने को लेकर एक मसौदा संसद में पेश किया जिसे प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाली समिति के पास विचार करने के लिए भेजा गया था
अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की जनता की दुखती रग पर हाथ रखा
कहते हैं राजनीति प्रयोगों का खेल है। एक ऐसा प्रयोग केजरीवाल सरकार ने किया। दिल्ली की जनता की दुखती रग पर केजरीवाल ने हाथ रखा और दिल्ली की जनता ने अपने वोटों से आम आदमी पार्टी की झोली भर दी। पांच वर्ष बाद एक बार हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 में दिल्ली की जनता ने भरोसा जताया और केजरीवाल की पार्टी एक बार फिर रिकॉर्ड मतों से विजयी होकर सरकार में पहुंची। आप के मुखिया केजरीवाल जानते थे कि जनता उनसे दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने का हिसाब मांगेगी, इसलिए उन्होंने 2020 विधानसभा चुनाव के मेनिफेस्टों में पूर्ण राज्य दर्जे के मुद्दे के साथ टर्म एंड कंडीशन जोड़ दिए। मसलन, ऐसा हुआ तो ठीक वरना भूल जाओ?
1998 में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग सबसे पहले उठी
हालांकि ऐसा नहीं है कि केजरीवाल ने ही दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की पहल की है। वर्ष 1998 में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग सबसे पहले उठी थी और वर्ष 2003 में दिल्ली को पूरे अधिकार दिए जाने को लेकर एक मसौदा संसद में भी पेश किया गया था। अप्रैल 2006 में बीजेपी के पूर्व मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर बिल लाने की मांग की थी। वर्ष 2003 में केंद्र में बैठी BJP सरकार में उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने संसद में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने का कानून पेश किया था, लेकिन बिल के प्रावधानों को लेकर तत्कालीन दिल्ली के मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने एतराज जताया और केंद्र सरकार के इस कदम को राजनीतिक करार दिया था और मामला फिर वहीं अटक कर रह गया था।
2006 में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा के लिए बीजेपी ने बुलंद की आवाज
वर्ष 2006 में बीजेपी के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष विजय गोयल ने दिल्ली प्रदेश और केंद्र में कांग्रेस सरकार का हवाला देते हुए कहा था कि जब दिल्ली और केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार है तो दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने में क्या अड़चन है? यह अलग बात है कि 2014 से केंद्र में मोदी सरकार के काबिज होने के बाद भी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने में खुद बीजेपी भी फिसड्डी साबित हुई है। हालांकि वर्ष 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान नवंबर में तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने दिल्ली के लिए कांग्रेस का घोषणापत्र में दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा को मुद्दा बनाया था।
10 वर्षों के कार्यकाल में शीला दीक्षित ने नहीं उठा पूर्ण राज्य मुद्दा
मैनिफेस्टो लॉन्च के दौरान शीला दीक्षित ने कहा था कि दिल्ली में सरकार की व्यवस्था और कई विभागों के चलते दिल्ली का विकास कार्य प्रभावित होता है। यह अलग बात है कि पिछले 10 वर्षों के कार्यकाल में खुद शीला दीक्षित ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए कोई माकूल कदम नहीं उठाया जबकि दिल्ली और केंद्र में कांग्रेस की ही सरकारें थीं। खैर, वर्ष 2013 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हालत किसी से छिपी नहीं है, क्योकि दिल्ली में कांग्रेस की ऐसी दुर्गति हुई कि कांग्रेस महज 8 सीटों पर सिमट गई और उसके बाद हुई दोनों विधानसभा चुनावों में कांग्रेस शून्य तक सिमट कर रह गई है।
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने को लेकर संजीदा नहीं है AAP
पिछले दो विधानसभा चुनाव में दिल्ली में जैसी हालत कांग्रेस की हुई, कमोबेश यही हालत बीजेपी की भी हुई, क्योंकि दिल्ली की जनता समझ गई थी कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने को लेकर कोई भी पार्टी ईमानदार नहीं है। यही कारण था कि दिल्ली की जनता ने ईमानदार राजनीति का नारा लेकर आई आम आदमी पार्टी पर भरोसा जताया और पिछले तीन विधानसभा चुनावों में केजरीवाल एंड पार्टी को अपना वोट देकर विधानसभा में पहुंचाया। हालांकि अभी केजरीवाल सरकार भी लगातार दूसरे टर्म में पहुंचे के बाद भी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने को लेकर संजीदा नहीं दिख रही है। केजरीवाल का यह रवैया पिछली सरकार के पांच वर्ष के कार्यकाल में भी दिखा जब केजरीवाल दिल्ली छोड़कर पार्टी का विस्तार करने पूरे देश में चुनाव जीतने पहुंच गए थे।
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने में प्रमुख अड़चन क्या है?
बड़ा सवाल यह है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने में प्रमुख अड़चन क्या है और उसके विकल्प क्या हैं। वर्ष 2003 में प्रस्तावित मसौदे में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने के लिए लंबी चर्चा और प्रक्रिया से गुजरने के बाद तीन अलग तरीके के प्रावधान सामने आए थे। प्रावधान यह भी था कि दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश होने के नाते पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने के बावजूद भी दिल्ली पुलिस और एनडीएमसी जो कि वीवीआईपी इलाका है उसे केंद्र सरकार के अधीन रखा जाए जबकि जमीन यानी डीडीए, नगर निगम और रेवेन्यू विभाग को दिल्ली की चुनी हुई सरकार के सुपुर्द कर दिया जाए।
जब पूर्ण राज्य का दर्जे के मसौदे पर एक साथ खड़े थे बीजेपी और कांग्रेस
दूसरे प्रावधान के तहत दिल्ली पुलिस के उच्च अधिकारियों को उपराज्यपाल के जरिए केंद्र के अधीन रखने का प्रस्ताव किया गया था। उस दौरान तत्कालीन केंद्रीय श्रम मंत्री साहिब सिंह वर्मा और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने के मसौदे पर एक साथ खड़े थे। एक प्रावधान में लाइसेंसी विभाग और दिल्ली का ट्रैफिक पुलिस विभाग भी चुनी हुई दिल्ली की सरकार को देने का प्रस्ताव किया गया था। 2003 के उस कानून में आर्टिकल 371 J क्लॉज 3 के तहत राष्ट्रपति को यह अधिकार दे दिया गया था कि वह दिल्ली की चुनी हुई सरकार के एग्जीक्यूटिव शक्तियों को न सिर्फ पलट सकते हैं बल्कि चुनी हुई दिल्ली सरकार को राष्ट्रपति के आदेशों को मानना होगा।
जब पूर्ण राज्य कानून के मसौदे के खिलाफ खड़ी हो गईं शीला दीक्षित
तीसरा प्रावधान के तहत दिल्ली सरकार में काम कर रहे नौकरशाहों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट भी दिल्ली सरकार में मुख्यमंत्री लिखेंगे। ऐसे में नौकरशाहों को डर सता रहा था कि अगर उनकी गोपनीय रिपोर्ट मुख्यमंत्री के अधीन होगी तो जाहिर है नौकरशाही भी मुख्यमंत्री के आदेशों की गुलाम हो जाएगी। इतना ही नहीं इस कानून में आईएएस अधिकारियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग की शक्तियां भी दिल्ली की सरकार को नहीं दी गई थीं। इस कानून के मसौदे पर तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को उतनी ही आपत्ति थी जितनी दिल्ली के मौजूदा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अधिकारियों के ट्रांसफर पोस्टिंग की शक्तियां उपराज्यपाल को ट्रांसफर कर दिए जाने को लेकर है।
पूर्ण राज्य के मुद्दे से वोटों की लहलहाती फसल का काटती आ रही है AAP
वर्ष 2003 में जब तत्कालीन गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा संसद में कानून का मसौदा रखा था उस समय यह कानून राजनीतिक विवाद का केंद्र बन गया था और तब से लेकर आज तक दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग बीजेपी और कांग्रेस के घोषणा पत्रों में ही सीमित होकर रह गई, जिसे वर्ष 2013 में चुनावी वैतरणी पार करने के लिए आम आम आदमी पार्टी ने चुनावी मुद्दा बना लिया और पिछले तीन विधानसभा चुनावों में केजरीवाल एंड कंपनी इस मुद्दे के बीजारोपण से लहलहाती फसल का काटती आ रही है।
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिए जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण?
माना जा रहा है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिए जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण है। पहला दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी होना। दूसरा कारण है राष्ट्रीय राजधानी में प्रधानमंत्री रहते हैं, राष्ट्रपति रहते हैं, देश की संसद है और साथ ही दुनियाभर के डिप्लोमैट और उनके दूतावास दिल्ली में मौजूद हैं। दिल्ली के पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने के बाद एक डर का हवाला देते हुए कहा जाता है कि ऐसी स्थिति में अगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया तो लॉ एंड ऑर्डर समेत पुलिस का नियंत्रण भी राज्य की सरकार के अधीन होगा और दिल्ली की जमीन राज्य सरकार के अधीन होने की स्थिति में केंद्र सरकार जमीन से जुड़े नीतिगत फैसले नहीं ले पाएगी और उसे राज्य सरकार के रहमों करम पर जीना होगा।
7 वर्षों में केजरीवाल ने पूर्ण राज्य के मुद्दे पर अधिक जोर नहीं दिया
केंद्र की नौकरशाही मानती है कि अगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल गया तो बड़े नौकरशाहों के तबादले और उनके खिलाफ कार्यवाही का अधिकार भी राज्य सरकार को मिल जाएगा। वहीं, राज्य की पुलिस राज्य सरकार के अधीन होने की स्थिति में केंद्र सरकार के कर्मचारियों पर कार्यवाही करने का अधिकार भी राज्य की सरकार को मिल जाएगा, जो उनके अधिकारों के खिलाफ होगा। यही कारण है कि पिछले 7 वर्षों के अंतराल में भी केजरीवाल एंड पार्टी ने पूर्ण राज्य के मुद्दे पर अधिक जोर नहीं दिया, क्योंकि वह कही न कहीं जानती है कि यह बड़ा ही पेंचीदा विषय है, जिसके निस्तारण के लिए उसके पास संसदीय राजनीति में होना जरूरी है। यही कारण है कि 2020 मेनिफिस्टों में केजरीवाल ने पूर्ण राज्य के दर्जे के मुद्दे के साथ टर्म एंड कंडीशन्स जोड़े है। मेनिफेस्टों में साफ-साफ कहा गया है कि उसे दिल्ली विधानसभा ही नहीं, दिल्ली लोकसभा की 7 सीटों पर भी विजयी बनाना होगा।
अरविंद केजरीवाल ने पूरे देश में पार्टी का विस्तार करना शुरू कर दिया
वर्ष 2015 में दिल्ली में अकेले दम पर पूर्ण बहुमत सरकार बनाने के बाद अरविंद केजरीवाल ने पूरे देश में पार्टी का विस्तार करना शुरू कर दिया। केजरीवाल की महत्वाकांक्षाएं दिल्ली जैसे अधूरे राज्य में पंख नहीं फैला पा रही थी। यही कारण था कि आम आदमी पार्टी ने गोवा, हरियाणा उत्तर प्रदेश और पंजाब राज्यों में चुनाव लड़ने का ऐलान किया ताकि एक पूर्ण राज्य के जरिए वो अपना विकास मॉडल देश भर के सामने रख सकें, लेकिन पंजाब में आंशिक सफलता को छोड़कर केजरीवाल को कहीं सफलता नहीं मिली। केजरीवाल की मानना है कि अगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का मौका मिला तो पुलिस नौकरशाही और व्यवस्था बदलने की शक्तियां उनके अधीन होगी और वो खुद को एक बेहतरीन शासक साबित कर सकेंगे।
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने के प्रस्ताव में क्या कहा गया?
आमतौर पर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने के प्रस्ताव में यह कहा गया है के दिल्ली में संसद, राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री आवास और विदेशी दूतावासों वाले एनडीएमसी इलाकों यानी नई दिल्ली को सीधे केंद्र सरकार के अधीन रखा जाए जबकि दिल्ली के तीनों नगर निगम, दिल्ली विकास प्राधिकरण और दिल्ली पुलिस को दिल्ली की चुनी हुई सरकार के अधीन किया जाए, जिसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी रिजर्व पैरामिलिट्री के सुपुर्द कर दी जाए। अलग पुलिस कमिश्नरेट का गठन किया जाए और पैरामिलिट्री के साथ साथ नई दिल्ली पुलिस का गठन किया जाए।
केंद्र और राज्य के बीच समन्वय के लिए एक काउंसिल गठन का प्रस्ताव
दिल्ली में किसी भी तरह की इमरजेंसी में केंद्र और राज्य सरकार के बीच समन्वय बिठाने के लिए केंद्र और राज्य सरकार के बीच एक काउंसिल का भी गठन किया जाए जो एक दूसरे के अधिकारों पर हमला किए बिना हर स्थिति को चर्चा के जरिए निपटारा कर सके। दिल्ली विकास प्राधिकरण को राज्य सरकार के अधीन किए जाने की स्थिति में केंद्र सरकार को दिल्ली के हर इलाके में जमीन की जरूरत की स्थिति में राज्य सरकार केंद्र को जमीन देने के लिए बाध्य हो।
दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे के लिए संसद में कानून लाना होगा
दिल्ली का मास्टर प्लान बदलने के लिए केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व जरूरी हो। साथ ही दिल्ली विधानसभा को नई दिल्ली इलाके को छोड़कर पूरे राज्य के लिए हर तरह के कानून दूसरे राज्यों की तरह ही बनाने की शक्ति हासिल हो। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए संसद में केंद्र सरकार को कानून लाना होगा और उस कानून को राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद दिल्ली को पूर्ण राज्य बन सकता है।