जानिए, गुजरात में कांग्रेस के 'युवा तुर्कों' ने कैसे कर दी है बीजेपी की राह आसान?
नई दिल्ली- गुजरात विधानसभा चुनाव के डेढ़ साल भी पूरे नहीं हुए हैं, लेकिन इतने दिनों में ही कांग्रेस के लिए वहां की राजनीतिक फिजा पूरी तरह से बदल चुकी है। अगर 2017 के राज्य विधानसभा चुनावों पर गौर करें, तो गुजरात के तीन 'युवा तुर्कों' ने ही दशकों बाद प्रदेश में कांग्रेस की हवा तैयार की थी। उन्होंने राज्य में ऐसा माहौल खड़ा कर दिया कि भगवा खेमे को सही मायने में सरकार बचाने के लिए एक-एक सीट के लिए संघर्ष करनी पड़ गई। वे तीनों चेहरे अल्पेश ठाकोर, जिग्नेश मेवाणी और पटेलों के युवा नेता हार्दिक पटेल इस समय चुनावी चुप्पी साधे हुए हैं। मौजूदा लोकसभा चुनाव में वे अलग-अलग वजहों से कांग्रेस के लिए उस हद तक फायदेमंद नहीं रह गए हैं, जितना की विधानसभा चुनावों में उसे कामयाबी दिलाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। एक तो पार्टी छोड़कर खुलेआम बगावत का झंडा बुलंद कर रहे हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या जिन युवा चेहरों के दम पर कांग्रेस ने गुजरात में बीजेपी को चुनौती देने का दम दिखाया था, आज वही चेहरे भगवा खेमे के 'मिशन 26' की राह आसान नहीं कर रहे हैं?
अल्पेश ठाकोर ने पार्टी ही छोड़ दी
पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मदद करने वाले तीनों युवा तुर्कों में सबसे बड़ा झटका पार्टी को ओबीसी (OBC) नेता अल्पेश ठाकोर ने दिया है। वे अपने साथ दो और विधायकों धवलसिंह ठाकोर और भरतजी ठाकोर के साथ 'हाथ' को टाटा कर चुके हैं। गुजरात चुनाव से पहले उन्होंने ठाकोर क्षत्रीय सेना की ओर से ड्राई स्टेट गुजरात में शराब पीने के खिलाफ मुहिम चलाकर खूब लोकप्रियता कमाई थी। बाद में उन्हें कांग्रेस में शामिल किया गया और वे राधनपुर विधानसभा क्षेत्र से 14,000 से ज्यादा वोटों से जीत गए थे। माना जा रहा है कि वे खुद पाटन लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ना चाहते थे और सांबरकाठा लोकसभा सीट से भी अपने संगठन के उम्मीदवार के लिए टिकट मांग रहे थे। लेकिन, बात नहीं बनी और वे अलग हो गए। फिलहाल उन्होंने बीजेपी में न जाकर अलग से अपने संगठन के लिए काम करने की बात कही है। लेकिन, ऐन चुनाव से पहले एक युवा ओबीसी (OBC) नेता का 'हाथ' छुड़ाना निश्चित तौर पर कांग्रेस के लिए नुकसानदेह और भारतीय जनता पार्टी के लिए फायदेमंद साबित होता नजर आ रहा है।
गुजरात नहीं बेगूसराय में चक्कर काट रहे हैं मेवाणी
अल्पेश की तरह जिग्नेश मेवाणी कांग्रेस में शामिल तो नहीं हुए थे, लेकिन गुजरात विधानसभा में उन्होंने राहुल गांधी का हाथ मजबूत करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। मेवाणी तब सुर्खियों में आए, जब उन्होंने जुलाई 2016 में गुजरात के ऊना कांड का झंडा बुलंद किया। दलितों की पिटाई की उस घटना के आक्रमक विरोध ने मेवाणी को रातों-रात पूरे देश में चर्चित कर दिया था। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें वडगाम सीट का ऑफर दिया था, लेकिन वे पार्टी के समर्थन से निर्दलीय हैसियत से चुनाव जीते थे। ऊना कांड के बहाने कांग्रेस और उसकी सहयोगियों ने पूरे भारत में बीजेपी के खिलाफ एक माहौल खड़ा करने में कामयाबी हासिल की थी, जिसके पीछे मेवाणी का योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण था। लेकिन, इस चुनाव में मेवाणी गुजरात की चिंता छोड़कर बिहार के बेगूसराय में पसीना बहा रहे हैं। वहां वे सीपीआई उम्मीदवार और 'टुकड़े-टुकड़े' कांड से चर्चित जेएनयू स्टूडेंट्स यूनियन के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के लिए वोट मांग रहे हैं। अब प्रश्न है कि मेवाणी के बगैर कांग्रेस गुजरात के दलितों में विधानसभा चुनाव की तरह अपनी पैठ कैसे बना पाएगी? उधर, मेवाणी का सियासी गोल अब गुजरात से आगे बढ़ चुका है। वे खुद को नेशनल लेवल के दलित आइकन (Dalit Icon)के रूप में उभारना चाहते हैं। यानी गुजरात में बीजेपी की राह का एक और कांटा इस चुनाव में उससे दो हजार किलोमीटर दूर जा चुका है।
हार्दिक का दांव भी फेल
कांग्रेस ने गुजरात के युवा पटेल नेता हार्दिक पटेल को पार्टी में शामिल कराने के लिए गांधीनगर में बहुत ही भारी-भरकम समारोह का आयोजन किया था। प्रियंका गांधी वाड्रा सामने से राजनीति शुरू करने के बाद वहां पहला डेब्यू भाषण देने वहां पहुंची थीं। माना जाता है कि विधानसभा चुनाव में हार्दिक के चलते ही सौराष्ट्र और उत्तर गुजरात में बीजेपी का खेल बिगड़ गया था। जानकारी के अनुसार मौजूदा लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उनके लिए जामनगर सीट से टिकट पक्की कर चुकी थी। आखिरकार गुजरात में 12% पाटीदार वोट बैंक का अपना ही दबदबा है। लेकिन, पटेल आरक्षण आंदोलन के कारण पूरे देश में चर्चा का विषय बने हार्दिक को अपने ही किए की सजा भुगतनी पड़ गई। विधानसभा चुनाव में उनके आगे उम्र का लोचा था और लोकसभा चुनाव में उनके आड़े मेहसाणा दंगों का मामला आ गया, जिसमें उन्हें सजा मिली हुई है। उन्होंने कांग्रेस के वकीलों की फौज के साथ सुप्रीम कोर्ट तक दौड़ लगाई, लेकिन उन्हें चुनाव लड़ने की इजाजत ही नहीं मिली और उनके साथ ही उनकी पार्टी के मंसूबों पर भी पानी फिर गया। वैसे भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आर्थिक रूप से पिछड़ों को 10% आरक्षण देकर उनके मुद्दे की हवा पहले ही निकाल चुके हैं। तथ्य ये भी है कि आज की तारीख में युवा पाटीदारों का एक वर्ग ही उनके साथ जुड़ा हुआ है और ज्यादातर पटेल कांग्रेस से दूरी ही बनाकर रखते आए हैं।
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