जानिए, यूपी में वोटों के थोड़े उतार-चढ़ाव से भी कैसे बदल जाएगी केंद्र में अगली सरकार की तस्वीर?
नई दिल्ली- केंद्र में सरकार कोई भी रहे उस पर यूपी की छाप जरूर पड़ती है। राज्य में लोकसभा की 80 सीटें हैं, जिसके कारण केंद्र की हर सरकार में उत्तर प्रदेश के सांसदों की मौजूदगी होना लाजिमी है। 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर अब तक जो आसार दिख रहे हैं, उससे भी यही लग रहा है कि चाहे महागठबंधन जीते या एनडीए, अगली सरकार में भी उत्तर प्रदेश का दबदबा निश्चित तौर पर रहने वाला है। ऐसे में राज्य के मतदाताओं के पिछले वोटिंग पैटर्न का विश्लेषण करें, तो यह बात भी सामने आती है कि उनका किसी के पक्ष में थोड़ा सा भी झुकाव अगली सरकार की तस्वीर बदल सकती है।
5% वोट के बदलाव से पलट सकती है बाजी
एनडीटीवी के प्रणय रॉय ने 2014 लोकसभा चुनाव के परिणाम को आधार मानकर उत्तर प्रदेश के लिए जो विश्लेषण किया है, वह बहुत ही चौंकाने वाला है। इसमें समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के वोट शेयर को बीजेपी के मुकाबले एक साथ लिया गया है। क्योंकि, इसबार दोनों पार्टियां साथ मिलकर चुनाव लड़ रही हैं। मसलन, अगर दोनों पार्टियां पिछले लोकसभा चुनाव में साथ होतीं, तो यूपी में उन्हें 41 सीटें मिलतीं, जबकि एनडीए को सिर्फ 37 से ही संतोष करना पड़ता। इस आधार पर महागठबंधन बीजेपी के खिलाफ अगर 5% मतदाताओं को भी अपनी ओर मोड़ने में कामयाब होता है, तो उसे 54 सीटें तक मिल सकती हैं और बीजेपी को सिर्फ 23 सीटें ही मिलेंगी। आज की तारीख में कोई ये नहीं कह सकता कि इन 54 सांसदों के बगैर केंद्र में कोई सरकार बना सकता है। इस स्थिति के ठीक उलट अगर बीजेपी को पिछली बार से 5% ज्यादा वोट मिलता है, तो महागठबंधन के बावजूद उसे 60 सीट तक मिल सकती है और बुआ एवं बबुआ को महज 18 सीटों से ही संतोष करना पड़ सकता है। यानि उत्तर प्रदेश में 60 सीटें जीतने के बाद बीजेपी का दोबारा केंद्र की सत्ता में आना निश्चित हो सकता है।
विपक्ष के लिए ये है आदर्श स्थिति
इसबार यूपी में एसपी-बीएसपी और कांग्रेस में सीटों पर तालमेल नहीं हुआ है। लेकिन, ये बात भी तय है कि उन सभी को बीजेपी-विरोधी मतों का ही आसरा है। लिहाजा ये पार्टियां भले ही चुनाव मैदान में अलग-अलग लड़ रही हों, बीजेपी और मोदी को हराने के लिए उनके वोटर हाथ जरूर मिला सकते हैं। वैसे भी माया और अखिलेश ने कांग्रेस की फर्स्ट फैमिली के लिए सीटें छोड़कर और कांग्रेस ने उनके लिए भी बदले में सीटें छोड़कर एक सियासी संकेत दे रखा है। अगर ऐसी स्थिति 2014 में भी बनी होती, तो उस समय भी बीजेपी को राज्य में महज 23 सीटें ही मिलतीं, जबकि ये तीनों दल मिलाकर 57 सीट तक जीत जाते। अगर उस आधार पर इसबार बीजेपी-विरोधी मतों का 5% झुकाव भी इन दलों के पक्ष में हुआ तो ये 72 के आंकड़े तक पहुंच सकते हैं, जो कि पिछलीबार बीजेपी की जीती हुई संख्या से भी ज्यादा है। लेकिन, इतनी बड़ी चुनौती के बावजूद भी नरेंद्र मोदी और बीजेपी ने पिछलीबार से अगर 5% अधिक मतदाताओं को अपने पक्ष में किया, तो वह राज्य में 46 सीटें जीत जाएगी और कांग्रेस,एसपी और बीएसपी के खाते में सिर्फ 34 सीटें ही आएंगी।
बीजेपी के लिए आखिरी उम्मीद
दरअसल, 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने विजय का जो परचम लहराया था, पिछले साल उपचुनाव आते-आते उसकी हवा निकल गई। इसका सबसे बड़ा कारण गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में बीजेपी के खिलाफ हुआ पूरे विपक्ष गठबंधन था। बीएसपी और एसपी की लगभग ढाई दशक पुरानी दुश्मनी यहीं से दोस्ती में बदलनी शुरू हुई। इसी का परिणाम रहा कि तीनों सीटों पर भाजपा की करारी हार हुई। अगर 2014 से तुलना करें तो उपचुनाव में फूलपुर और गोरखपुर में एसपी-बीएसपी गठबंधन के पक्ष में 10-10 फीसदी और कैराना में 4 फीसदी वोटों का इजाफा दर्ज किया गया। लेकिन, बीजेपी के लिए राहत की बात फिलहाल ये है कि कांग्रेस के साथ इन दलों का अभी तक किसी तरह का तालमेल नहीं हुआ है और उपचुनाव वाली भाजपा-विरोधी राजनीतिक स्थिति नहीं बन पाई है।
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