साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के बहाने बची हुई "जंग" जीतेगी बीजेपी?
नई दिल्ली- 2019 के चुनावों के ऐलान से पहले ही भारतीय जनता पार्टी ने जो चुनावी ताना-बाना बुनना शुरू किया था, उससे जाहिर था कि पार्टी राष्ट्रवाद का जोश भरकर चुनाव जीतना चाहती है। विपक्ष जिस तरह से एकमात्र नरेंद्र मोदी को हटाने के मकसद से रणनीतिक तौर पर एकजुट हो रहा था, उसने बीजेपी को अपनी लाइन और मजबूत करने का मौका दिया। जब कांग्रेस ने भोपाल से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) और बीजेपी के विचारधारा के सख्त विरोधी दिग्विजय सिंह को भोपाल से उतारने का फैसला किया, तो बीजेपी को अपनी सियासी विचारधारा को और उग्र तरीके से पेश करने का बहाना मिल गया। अब सवाल उठता है कि बाकी के 5 दौर के चुनाव में भाजपा को साध्वी के बहाने सेट हो रही चुनावी नरेटिव से कितना फायदा मिलने वाला है। क्या पार्टी अब पाकिस्तान, बालाकोट के साथ-साथ साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की कहानी के दम पर ही बाकी की बची हुई जंग जीतना चाहती है?
साध्वी की एंट्री से बदला चुनावी मूड
पहले दो दौर की वोटिंग तक मुख्य तौर पर पाकिस्तान और बालाकोट के इर्द-गिर्द घूमने वाले बीजेपी के प्रचार अभियान को बाकी 5 दौर में साध्वी के जरिए राष्ट्रवाद को हिंदुत्व की चासनी में लपेटने का भी मौका मिल गया है। साध्वी की एंट्री के साथ 2008 के मालेगांव धमाकों से शुरू हुई चुनावी सियासत, उसी साल हुए दिल्ली के बाटला हाउस एनकाउंटर तक पहुंच चुकी है। विपक्ष जैसे-जैसे मालेगांव धमाके की मुख्य आरोपी साध्वी प्रज्ञा को लेकर बीजेपी को घेरने की कोशिश करता है, बीजेपी उसी में से अपने हिसाब से चुनावी नरेटिव सेट करने की जुगत लगा रही है। साध्वी ने एटीएस (ATS) के रिमांड में अपनी प्रताड़ना का आरोप लगाते हुए, जब तत्कालीन एटीएस (ATS) चीफ शहीद हेमंत करकरे को लेकर पॉलिटिकली इनकरेक्ट बयान दिया, तो चौतरफा आलोचनाओं के चलते एकबार उन्हें बैकफुट पर आने को मजबूर होना पड़ा। लेकिन, बीजेपी के धुरंधरों ने 2008 के मालेगांव धमाकों के दौरान के ही बाटला हाउस एनकाउंटर का जिन्न निकालकर फौरन विपक्ष, खासकर कांग्रेस और उसके समर्थकों को अपना अटैक हल्का करने के लिए लाचार कर दिया। बाटला हाउस के माध्यम से खुद मोदी और अमित शाह ने कांग्रेस और सोनिया गांधी को राजनीतिक कठघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया है। बयानों के इस दौर में साध्वी और आगे निकल गईं और उन्होंने विवादित ढांचा गिराने से लेकर राम मंदिर निर्माण का दावा ठोंककर घोर हिंदुत्व का कार्ड भी चलना शुरू कर दिया।
ऐसे मिला विचारधारा को आगे बढ़ाने का मौका
यूपीए सरकार के कार्यकाल में मालेगांव धमाकों की जिस प्रकार से जांच हुई थी और बाटला हाउस एनकाउंटर पर कांग्रेस के कुछ दिग्गजों ने (खासकर दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्शीद) अपनी ही सरकार पर जिस तरह के कुछ विवादास्पद सवाल उठाए थे, उसने भाजपा और संघ को उग्र राष्ट्रवाद की विचारधारा को आगे बढ़ाने की जमीन दे दी थी। खासकर, मालेगांव धमाकों की जांच जिस तरह से आगे बढ़ाई गई, उसने बीजेपी को यूपीए और कांग्रेस के खिलाफ एक माहौल तैयार करने का अवसर दिया। अगर 2014 में बीजेपी ने तीन दशक बाद पूर्ण बहुत वाली सरकार बनाई और उस चुनाव की बागडोर लालकृष्ण आडवाणी के रहते हुए भी नरेंद्र मोदी ने संभाली, तो उसके पीछे भी इसी विचारधारा का काफी हद तक प्रभाव माना जा सकता है। इसके कारण आरएसएस को भी आडवाणी पर जिन्ना विवाद का खुन्नस निकालने का बहाना मिल गया। हार्डलाइन हिंदुत्व और उग्र राष्ट्रवाद के चेहर के रूप में उसके पास नरेंद्र मोदी से बढ़िया विकल्प नहीं था। 2014 के बाद भी पार्टी ने उसी दिशा में अपना विस्तार जारी रखा और लगभग दो-तिहाई भारत में उसको सत्ता भी मिल गई। 2019 में भी जैसे-जैसे चुनावी माहौल गर्म हो रहा है, पार्टी और संघ राष्ट्रवाद की अपनी विचारधारा की वार से नेहरूवादी राष्ट्रवाद को पूरी तरह से मात देना चाहते हैं। इसलिए, नेहरूवादी राष्ट्रवाद की जिस विचारधारा ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को आतंकवादी के रूप में पेश करने की कोशिश की थी, उसकी काट के लिए बीजेपी उन्हें सच्ची राष्ट्रवादी और परम देशभक्त के रूप में पेश कर रही है। पार्टी को भरोसा है कि भोपाल में साध्वी की जीत नेहरूवादी मॉडल को पूरी तरह से साइडलाइन कर देगी।
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विचारधारा के साथ बदली जांच की धारा?
दरअसल, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के मामले में जिस तरह के हालात सामने हैं, उसके लिए कहीं न कहीं जांच की निष्पक्षता भी सवालों के घेरे में है। क्योंकि, अगर सही तरीके से परखने की कोशिश करें, तो अपने यहां सत्ता के साथ ही जांच एजेंसियों का नजरिया भी बदलते देखा गया है। इस तथ्य को भ्रष्टाचार से लेकर दूसरे संजीदा मामलों में भी महसूस किया जा सकता है। दुर्भाग्य से मालेगांव धमाके की जांच ऐसा ही मामला है, जिसमें आज भी साजिशकर्ताओं के बारे में कोई यकीन के साथ कुछ नहीं कह सकता। समझौता एक्सप्रेस केस का उदाहरण भी देश के सामने है। मसलन, मालेगांव में दो धमाके हुए-2006 में और 2008 में। पुलिस ने पहले 8 संदिग्धों को पकड़ा, जिनके तार स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंटिया (SIMI) से जुड़े बताए। एक संदिग्ध का लिंक तो लश्कर-ए-तैयबा (LeT)से जुड़ा बताया गया था। लेकिन, कुछ वर्षों बाद वे सारे अनुमान गलत साबित हो गए। आगे चलकर जांच एजेंसी ने सिमी (SIMI) की जगह अभिनव भारत जैसे संगठन पर अपनी जांच की दिशा मोड़ दी। मालेगांव-1 में 8 मुस्लिम संदिग्धों को छोड़ दिया गया और मालेगांव-2 की जांच को 'हिंदू आतंकवाद' पर फोकस कर दिया गया। जिसका पहले दिन से संघ और उससे जुड़े तमाम संगठनों ने जमकर विरोध किया। जब 2014 में केंद्र की सत्ता बदली तो जांच नए तरीके से आगे बढ़ना शुरू हुआ। इसमें यह नतीजा निकाला गया कि पहले की जांच आधारहीन थी, बयानों को तोड़ा-मरोड़ा गया था और 'हिंदू आतंकवाद' को लेकर खास सबूत नहीं जोड़े जा सके। परिणाम यह हुआ कि महाराष्ट्र ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एक्ट (MCOCA) की संगीन धाराएं हटा ली गईं, एनआईए (NIA) ने मुख्य आरोपी साध्वी को अपनी तरफ से क्लीनचिट दे दी और वे जमानत पर बाहर निकल आईं। वैसे अदालत अभी भी उन्हें आरोपी मानकर मुकदमे की सुनवाई कर रही है। इसी आधार पर बीजेपी उन्हें गलत तरीके से फंसाने का आरोप लगाकर उग्र राष्ट्रवाद के नाम पर वोट बटोरना चाहती है। साध्वी जिस तरीके से अपने साथ हुई प्रताड़ना की कहानी बयां करती हैं, उससे उनके पक्ष में सहानुभूति पैदा होने के साथ-साथ बहुसंख्यक वोटों की गोलबंदी की भी उसे उम्मीद है। साध्वी होने के नाते वह हिंदुत्व और राम मंदिर के मुद्दे पर भी खुलकर बोल रही हैं।
'हिंदू आतंकवाद' पर डिफेंसिव हुए दिग्विजय!
मजे की बात ये है कि मालेगांव धमाका हो या बाटला हाउस एनकाउंटर, आतंकवाद से जुड़ी दोनों वारदातों को लेकर होने वाली सियासत की धुरी में दिग्विजय सिंह पिछले 11 वर्षों से सुर्खियां बटोरते रहे हैं। वह मालेगांव पर 'भगवा या हिंदू आतंकवाद' को लेकर भी चर्चित रहे हैं और बाटला हाउस एनकाउंटर पर संदेह जताकर भाजपा और संघ के निशाने पर भी रहे हैं। भोपाल में इसबार उनका इन सारी चुनौतियों के साथ इकट्ठे एनकाउंटर हो रहा है। हालांकि, इस मामले में वो फिलहाल काफी डिफेंसिव नजर आ रहे हैं। भले ही उनकी पार्टी के दूसरे नेताओं ने प्रज्ञा के नाम की घोषणा के साथ ही उनको लेकर हमला करना शुरू किया था, लेकिन दिग्गी राजा ने अपनी आदत के उलट उनका स्वागत करने में देरी नहीं की थी। अब इकोनॉमिक टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने अपने बचाव में कहा है कि 'हिंदू आतंकवाद' जैसे शब्द उन्होंने नहीं गढ़े हैं। यही नहीं वो कह रहे हैं कि हिंदू आतंकवादी हो ही नहीं सकते, यह हिंदू भावना के ही खिलाफ है। दिग्विजय सिंह किन परिस्थितियों में सॉफ्ट हिंदुत्व की बात कह रहे हैं, यह समझना मुश्किल नहीं है, लेकिन हिंदू आतंकवादी हो ही नहीं सकता, यह वही लाइन है, जो बीजेपी 'भगवा आतंकवाद' जैसे शब्दों के आविष्कार वाले जमाने से ही उठा रही है। दिग्विजय सिंह अब यह कह रहे हैं कि उन्होंने 'हिंदू आतंकवाद' नहीं, बल्कि 'संघी आतंकवाद' शब्द का इस्तेमाल किया था।
जो भी हो साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की वजह से भाजपा एकबार फिर से अपने राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के मुद्दे को सेंटर स्टेज पर लाने में कामयाब दिख रही है। लेकिन, इसकी बदौलत वह आगे की बची हुई बाजी जीत लेगी, यह कहना फिलहाल तो बहुत मुश्किल लग रहा है।
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