किसान आंदोलनः कड़ाके की ठंड में खुले आसमान तले फ़रियाद - ग्राउंड रिपोर्ट
राजस्थान-हरियाणा बॉर्डर पर आंदोलन कर रहे किसानों का क्या कहना है, पढ़िए इस ग्राउंड रिपोर्ट में.
"यह ठीक है कि हमने जन प्रतिनिधि चुनकर संसद में भेजे हैं लेकिन हमारे जन प्रतिनिधि किसी लायक़ नहीं हैं. किसान विधेयक पढ़ने की उन्हें कहां फ़ुर्सत. वो तो बस विधेयक पास कराने के लिए हाथ खड़े कर देते हैं. उनमें विधेयक का विरोध करने की हिम्मत कहां थी? उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि इन्हीं किसानों ने यहां भेजा है, आगे क्या हाल करेंगे?"
राजस्थान-हरियाणा सीमा पर किसान आंदोलन में भाग ले रहे नागौर ज़िले के रहने वाले भागीरथ प्रसाद ने हमारे एक सवाल के जवाब में ये बातें कहीं. भागीरथ प्रसाद केंद्र सरकार और अपने जन प्रतिनिधियों को लेकर बेहद ग़ुस्से में थे. कहने लगे, "खेती और किसानी से जुड़े किसी एक भी आदमी से यदि सरकार ने यह क़ानून बनाने में सलाह ली होती तो ऐसे क़ानून की सलाह वह कभी नहीं देता."
कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ हरियाणा-राजस्थान सीमा पर पिछले तीन दिन से बड़ी संख्या में किसान जुट रहे हैं और दिल्ली आने की कोशिश कर रहे हैं. इन दोनों राज्यों के किसानों के अलावा सोमवार को यहां गुजरात के किसान भी पहुंचने लगे जिसकी वजह से इस सीमा पर प्रदर्शनकारी किसानों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. ये सभी किसान जयपुर-दिल्ली राजमार्ग पर अलवर ज़िले के शाहजहांपुर धरने पर बैठे हैं.
सोमवार को गुजरात के किसानों के एक जत्थे के साथ पहुंचे दाया भाई जाधव का कहना था कि वे लोग कई दिन से चले हैं लेकिन जगह-जगह उन्हें आने से रोका गया और किसी तरह वे लोग यहां तक पहुंचे हैं. दाया भाई जाधव गुजरात में अरावाली ज़िले के मोडासा तालुका के रहने वाले हैं. कहते हैं, "गुजरात का किसान तो पूरी तरह से तबाह हो चुका है. यह क़ानून तो हमारे समेत देश के सभी किसानों को भूमिहीन बना देगा. हमारी ज़मीनें उद्योगपतियों को सौंप दी जाएंगी."
निकाय चुनावों का असर
पिछले दो दिन से धरने में शामिल राजस्थान के चुरू ज़िले के रहने वाले युवा किसान सांवरमल ढाका अपने कई साथियों के साथ इसी जगह डटे हैं. बताते हैं, "हरियाणा पुलिस बैरिकेडिंग लगाकर हमें आगे जाने से रोक रही है लेकिन हम लोग दिल्ली जाकर रहेंगे. राजस्थान का किसान देर से भले ही जगता है लेकिन जगने पर वो फ़ैसला करके मानता है. हम सरकार को क़ानून वापस लेने पर विवश कर देंगे."
दिल्ली की सीमा पर यूपी, हरियाणा और पंजाब के किसान पिछले दो हफ़्ते से डटे हुए हैं और दिल्ली जाने पर अड़े हुए हैं. वहीं राजस्थान के किसानों ने यह कोशिश पिछले हफ़्ते ही शुरू की है. नागौर से ही आए एक बुज़ुर्ग किसान राघवमल शर्मा इसकी वजह बताते हैं, "हमारे यहां अभी पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव चल रहे थे. सभी लोग उसमें व्यस्त थे. उसके बाद किसान सड़क पर उतर रहा है. महिलाएं भी साथ हैं. अभी तो आंदोलन की शुरुआत है, क़ानून ख़त्म कराए बिना हम वापस नहीं लौटेंगे."
सोमवार सुबह से ही जयपुर-दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग पर किसानों के छोटे-छोटे समूह गाड़ियों और ट्रैक्टरों से शाहजहांपुर की तरफ़ जाते नज़र आए. दोपहर बारह बजे तक पुलिस और सुरक्षा बल इधर-उधर तैनात थे लेकिन उसके बाद अचानक सुरक्षा बलों की तैनाती काफ़ी बढ़ा दी गई और उन्हें अलर्ट कर दिया गया. पुलिस ड्रोन के ज़रिए भी आंदोलन की गतिविधियों पर नज़र रखने लगी लेकिन कुछ घंटों के बाद ही पुलिस बल की तैनाती कम कर दी गई और पुलिसकर्मी इधर-उधर नज़र आने लगे.
खुले आसमान में रात बिताने को मज़बूर
आंदोलनकारियों के लिए खाने-पीने का इंतज़ाम कर रहे एक समूह में कुछ महिलाएं और लड़कियां सब्ज़ियां काट रही थीं. उन्हीं में से एक दिव्यानी ने बताया, "रात में भीषण ठंड थी. हम लोग तंबुओं में थे. देर रात तक तो अलाव जलाए आग सेंकते रहे. उसके बाद कब नींद आ गई पता ही नहीं चला. कई लोग तो तंबुओं के बाहर भी सो रहे थे और कुछ धरनास्थल पर ही अलाव के आगे बैठे रहे."
राजस्थान के अलवर के रहने वाले कुछ बुज़ुर्ग किसान तेज़ धूप में भी अलाव के आगे बैठे हाथ सेंक रहे थे. बोले, "रात की ठंडक को मार रहे हैं. खुले आसमान में ही रात गुज़ारी तो ठंड भी बहुत लगी. इसीलिए धूप में भी आग सेंकना पड़ रहा है."
तमाम किसान खाने-पीने का सामान अपने घर से ही लाए हैं. ट्रैक्टर ट्रॉलियों पर ही चारपाई, बिस्तर और गैस सिलिंडर में ही खाना भी बन रहा है. यहीं रात में सोने का भी इंतज़ाम हो जाता है. बाक़ी लोग अस्थाई तंबुओं में रात गुज़ार रहे हैं और दिन में लोग भाषण दे रहे हैं, सुन रहे हैं, गीत गा रहे हैं और जितना संभव हो रहा है, सरकार को कोस रहे हैं.
गंगानगर के रहने वाले रूढ़ सिंह माहिला इतिहास से एमए हैं. ट्रैक्टर की ट्रॉली पर अपने एक साथी के साथ गैस चूल्हे पर रोटी सेंक रहे थे. सब्ज़ी पहले ही बना चुके थे. बोले, "बीबीसी का बहुत पुराना श्रोता हूं. मैं ही नहीं, मेरे पिता भी सुनते थे. तय करके आए हैं कि अपनी मांग मँगवा कर ही जाएंगे. यह काला क़ानून किसानों को बर्बाद ही नहीं करेगा, उन्हें किसान भी नहीं बने रहने देगा."