खुशवंत सिंह, जिन्हें लोगों को झटका देने में मज़ा आता था
खुशवंत सिंह ने अपने करियर की शुरुआत में ही धर्म से दूरी बना ली थी. लेकिन उन्हें सिख धार्मिक संगीत, सबद और कीर्तन सुनने का बहुत शौक था. एक बार उन्होंने कहा था कि वो सिख धर्म के बाहरी प्रतीकों को इसलिए धारण करते हैं क्योंकि इससे उनमें उससे जुड़ा होने का भाव आता है. सिख कट्टरता के सबसे ख़राब दौर में भी उन्होंने भिंडरावाले के ख़िलाफ़ खुल कर लिखा
आखिर ख़ुशवंत सिंह के लेखन में ऐसा क्या था कि लोग उनको इतना पढ़ते थे? शायद इसकी वजह थी अंग्रेज़ी भाषा के साथ उनका खिलवाड़ और उनका विषय चयन. वो ऐसी भाषा लिखते थे जो आम बोलचाल के बहुत नज़दीक थी.
हालांकि ख़ुशवंत सिंह खुद मानते थे कि वो कोई महान लेखक नहीं हैं और वो शायद थे भी नहीं. लेकिन उनकी कामयाबी की सबसे बड़ी वजह थी कि वो अपने पाठकों के लिए लिखते थे, न कि अपने लिए. मशहूर पत्रकार जग सुरैया बताते हैं, ख़ुशवंत छपने वाले पेज के दायरे में बंध कर नहीं रहते और ऐसा लगता था, जैसे वो आपके कंधों पर हाथ रख कर आपसे बातें कर रहे हों, इतनी नज़दीकी से कि आप उनकी स्कॉच की गंध तक महसूस करने लगते हैं.
वैसे तो वो अपने उपन्यास 'ट्रेन टू पाकिस्तान' और मशहूर किताब 'अ हिस्ट्री ऑफ़ सिख' से ही लोकप्रिय हो गए थे. लेकिन उन्हें असली प्रसिद्धि 'इलेस्ट्रेटेड वीकली' के संपादक के रूप में मिली.
ख़ुशवंत सिंह की देखरेख में अपना पत्रकारिता जीवन शुरू करने वाले एम.जे. अकबर बताते हैं, "हर रोज़ दफ़्तर में उनसे मिलने वालों की लंबी तादाद को देखना बड़ा दिलचस्प अनुभव होता था. उनके मातहत काम करते हुए हम जैसे बेढ़ंगे नौजवानों के लिए टीशर्ट और ढ़ीली ढाली कॉर्डरॉय की पतलून जैसे एक विशिष्ट वर्ग और आत्मविश्वास के मेल का पहनावा बन गई थी."
स्टाफ़ के साथ ठहाके लगाने वाले खुशवंत
इलस्ट्रेटेड वीकली में ख़ुशवंत सिंह के साथ काम करने वाले कई पत्रकारों ने अपने संस्मरण लिखे हैं. उनमें से एक थे मशहूर पत्रकार जिग्स कालरा.
उस ज़माने में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के गर्ममिजाज़ संपादक शाम लाल के आतंक की कहानियाँ काफ़ी मशहूर हो चुकी थीं. वो अपने ट्रेनी पत्रकारों की लिखी चीज़ों को बिना देखे ही कूड़ेदान के हवाले करने के लिए मशहूर थे.
जिग्स कालरा लिखते हैं, "कोई ताज्जुब नहीं कि अपनी बौद्धिकता का हौवा न खड़ा करने वाले और हमेशा हँसी ख़ुशी का माहौल बनाए रखने वाले ख़ुशवंत सिंह को मैं और मेरे साथी हीरो की तरह पूजते थे. उनसे मिलना कभी मुश्किल नहीं हुआ करता था. उनका दरवाज़ा खोलिए, कोई चुटकुला सुनाइए और उनके साथ पूरा स्टाफ़ ठहाके लगाने लगता था."
- जवाहरलाल नेहरू का एडविना माउंटबेटन से कैसा रिश्ता था?
- 'वो गोरों के साथ घूमतीं, पर शादी हम जैसों से ही करतीं'
टीम के सदस्यों के लिए प्रशासन से लड़ाई
एक बार ख़ुशवंत सिंह ने कालरा को नासिक पुलिस अकादमी पर रिपोर्ट करने के लिए नासिक भेजा.
कालरा लिखते हैं, "मैं ट्रेन के टिकट का किराया और यात्री भत्ता लेने एकाउंट्स के बाबू के पास गया. वो मुझे थर्ड क्लास के टिकट का किराया और 15 रुपए रोज़ाना के हिसाब से भत्ता देने लगा. मैं उसे इसके मुँह पर मार कर चला आया. मैंने खुशवंत सिंह से जा कर कहा, मैं नासिक नहीं जा पाउंगा. उन्होंने पूछा, क्यों ? मेरा जवाब था ज़रा सोचिए, वीकली के प्रतिनिधि को तीसरे दर्जे के डिब्बे से उतरता देख कर मेज़बान क्या सोचेंगे ? तब तक खुशवंत सिंह को टाइम्स ऑफ़ इंडिया की कंजूसी का पता नहीं था. उन्होंने फ़ौरन एक नोट भेजा कि मेरी टीम का कोई सदस्य ऐसी तंगहाली में यात्रा नहीं करेगा. घंटे भर में , मुझे मनचाहा टिकट और बेहतर जेब ख़र्च मिल गया."
नरगिस के साथ हाज़िरजवाबी
खुशवंत सिंह की हाज़िर जवाबी और शरारती, मज़ाकिया लहजे से उन्हें अक्सर ऐसा आदमी समझ लिया जाता था जो शराब, शबाब और इससे जुड़ी दूसरी चीज़ों के अलावा कुछ बात नहीं करते.
दिलचस्प बात ये ही कि ख़ुशवंत ने कभी अपनी इस छवि को बदलने की अपनी तरफ़ से कोई कोशिश नहीं की. उन्हें अपने ऊपर बनाई गई कहानियों को फैलाने में बहुत मज़ा आता था और वो अपनी इस छवि को बड़े करीने से सहेज कर रखते थे.
एक बार मशहूर अभिनेत्री नरगिस दत्त कसौली के पास लॉरेंस स्कूल में पढ़ रहे अपने बेटे संजय दत्त से मिलने जाना चाहती थीं. उन्हें पता था कि कसौली में ख़ुशवंत सिंह का एक घर है. उन्होंने खुशवंत से पूछा कि क्या वो एक दिन के लिए उनके घर में रह सकती हैं.
हाज़िरजवाब खुशवंत सिंह ने जवाब दिया, "सिर्फ़ एक शर्त पर कि आप मुझे सबसे ये कहने का अधिकार देंगी कि आप मेरे बिस्तर पर सोई हैं."
नरगिस ने ज़ोर का ठहाका लगाया और खुशवंत सिंह की इस पेशकश को स्वीकार करते हुए अपना हाथ उनकी तरफ़ बढ़ा दिया.
निजी ज़िंदगी में पुराने ख़यालों के थे खुशवंत
खुशवंत सिंह के बेटे राहुल सिंह मानते हैं कि ऊपर से वो ज़रूर आधुनिक लगते थे, लेकिन दिल से वो बहुत रूढ़िवादी शख़्स थे.
वो एक किस्सा सुनाते हैं, "एक समय हमारे घर की ऊपर की मंज़िल पर एक बहुत ही ख़ूबसूरत लड़की रहती थी. वो एक अफ़गानी राजनयिक की लड़की थी. हम दोनों एक दूसरे की तरफ़ आकर्षित थे."
"जब भी उसके माता-पिता बाहर जाते, वो मुझे फ़ोन कर देती कि रास्ता साफ़ है. मैं उसके यहाँ चला जाता. मेरा इस तरह उससे चोरी-छिपे मिलना मेरे पिता से छिपा नहीं रहा. एक दिन उन्होंने मुझे डाँट पिलाई, तुम इन पठानों को नहीं जानते. किसी दिन पकड़े गए तो उस लड़की का बाप तुम्हें ज़िंदा नहीं छोड़ेगा."
"एक बार उनसे पूछा भी गया कि एक तरफ़ तो आप शराब के शौकीन हैं और दूसरी तरफ़ एक गंभीर लेखक है. आप इन दोनों के बीच कैसे तालमेल बैठाते हैं ? खुशवंत का जवाब था, इसमें कोई शक नहीं कि मैं शराब का शौकीन हूँ. मैं इसे छिपाता भी नहीं. लेकिन मैं बहुत से ऐसे राजनीतिज्ञों को जानता हूँ जो शराब के शौकीन हैं, लेकिन सबसे छिपाकर पीते हैं. वो स्कॉच को कैंपाकोला में मिला कर पीते हैं और इस तरह दोनों का सत्यानाश करते हैं. मुझे खूबसूरत औरतों का साथ पसंद है. मेरी लंबी उम्र का राज़ भी ये है कि मैं जवान औरतों के साथ रहता हूँ."
लोग जानते हैं कि 30 साल की उम्र से लेखन शुरू करने वाले इस शख़्स ने 80 से ज़्यादा किताबें लिखी हैं, इसलिए मैंने सारा वक़्त मौज और शराब पीने में तो ख़र्च नहीं ही किया होगा.
मृत शख्स की कमज़ोरियों का ज़िक्र
खुशवंत के लेखन की एक और दिलचस्प बात थी कि वो किसी मृत शख़्स के संस्मरण या श्रद्धांजलि लिखते समय वो उसकी कमज़ोरियों या ऐब का ज़िक्र करने में नहीं हिचकते थे. उनका इस धारणा में विश्वास नहीं था कि मरे हुए लोगों की आलोचना नहीं होनी चाहिए.
वो ये मानते थे कि एक सार्वजनिक व्यक्ति, भले ही वो उनका दोस्त ही क्यों न रहा हो, का मूल्याँकन सही सही होना चाहिए.
एक बार उन्होंने अपने एक ज़माने में जिगरी दोस्त रहे रजनी पटेल की छवि को न सिर्फ़ तार-तार किया, बल्कि उनकी विलासिता भरी जीवन शैली और प्रेम प्रसंगों का ब्योरा देते हुए उन्हें एक ढ़ोगी व्यक्ति के रूप में दिखाया. उससे रजनी पटेल की विधवा बकुल पटेल खुशवंत सिंह से इतनी नाराज़ हुईं कि उन्होंने उनसे बात करना बंद कर दिया.
पद्मभूषण लौटाया
खुशवंत सिंह ने अपने करियर की शुरुआत में ही धर्म से दूरी बना ली थी. लेकिन उन्हें सिख धार्मिक संगीत, सबद और कीर्तन सुनने का बहुत शौक था. एक बार उन्होंने कहा था कि वो सिख धर्म के बाहरी प्रतीकों को इसलिए धारण करते हैं क्योंकि इससे उनमें उससे जुड़ा होने का भाव आता है.
सिख कट्टरता के सबसे ख़राब दौर में भी उन्होंने भिंडरावाले के ख़िलाफ़ खुल कर लिखा, लेकिन जब इंदिरा गाँधी ने स्वर्ण मंदिर में भारतीय सेना को भेजा तो उन्होंने विरोध - स्वरूप अपना पद्म -भूषण सरकार को लौटा दिया था.
धर्म में आस्था न होने के बावजूद उन्होंने सिखों का इतना प्रमाणिक इतिहास लिखा जिसकी मिसाल आज तक नहीं मिलती. 'हिस्ट्री ऑफ़ सिख' लिखने के बाद उन्होंने उसका अंत लैटिन के दो शब्दों से किया जिसका मतलब था, "मेरे जीवन का काम पूरा हुआ."