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खुदीराम बोस जिन्हें 18 साल की उम्र में चढ़ा दिया गया था फांसी पर- विवेचना

खुदीराम बोस ने बहुत कम उम्र में देश के लिए अपनी जान न्योछावर कर दी. खुदीराम के 133वें जन्मदिन पर उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं पर नज़र डाल रहे हैं रेहान फ़ज़ल विवेचना में.

By BBC News हिन्दी
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19 जुलाई, 1905 को जैसे ही लॉर्ड कर्ज़न ने बंगाल विभाजन का फ़ैसला किया, बंगाल ही नहीं पूरे भारत के लोगों के मन में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आक्रोश भड़क उठा. हर जगह विरोध मार्च, विदेशी सामान के बहिष्कार और अख़बारों में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लेखों की एक तरह से बाढ़ आ गई.

उसी ज़माने में स्वामी विवेकानंद के भाई भूपेंद्रनाथ दत्त ने 'जुगाँतर' अख़बार में एक लेख लिखा जिसे सरकार ने राजद्रोह माना.

कलकत्ता प्रेसिडेंसी के मजिस्ट्रेट डगलस किंग्सफ़ोर्ड ने न सिर्फ़ प्रेस को ज़ब्त करने का आदेश दिया, बल्कि भूपेंद्रनाथ दत्त को ये लेख लिखने के आरोप में एक साल की कैद की सज़ा सुनाई. इस फ़ैसले ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह में आग में घी का काम किया.

यही नहीं किंग्सफ़ोर्ड ने वन्दे मातरम का नारा बुलंद करने वाले एक 15 वर्षीय छात्र को 15 बेंत लगाने की कठोर सज़ा सुना दी.

इसके बाद 6 दिसंबर, 1907 की रात को मिदनापुर ज़िले में नारायणगढ़ के पास बंगाल के लेफ़्टिनेंट गवर्नर एंड्र्यू फ़्रेज़र की ट्रेन को बम से उड़ाने की कोशिश हुई. कुछ दिनों बाद चंद्रनागौर में लेफ़्टिनेंट गवर्नर की ट्रेन को उड़ाने का एक और प्रयास किया गया जिसमें बरींद्र घोष, उलासकर दत्त और प्रफुल्ल चाकी शामिल थे.

बचपन से ही अंग्रेज़ो का विरोध


1906 में मिदनापुर में एक मेले का आयोजन किया गया. सत्येंद्रनाथ बोस ने वन्दे मातरम शीर्षक से अंग्रेज़ी शासन का विरोध करते हुए एक पर्चा छपवाया था. खुदीराम बोस को मेले में इस पर्चे के वितरण की ज़िम्मेदारी सौंपी गई.

वहां अंग्रेज़ों के एक पिट्ठू रामचरण सेन ने उनको शासन विरोधी पर्चा बांटते देख लिया. उन्होंने इसकी सूचना वहां तैनात एक सिपाही को दे दी. पुलिस के एक सिपाही ने खुदीराम को पकड़ने का प्रयास किया. खुदीराम ने उस सिपाही के मुंह पर एक घूंसा जड़ दिया. तभी वहां दूसरे पुलिस वाले पहुंच गए. उन सबने मिलकर खुदीराम बोस को पकड़ लिया.

लक्ष्मेंद्र चोपड़ा खुदीराम बोस की जीवनी में लिखते हैं, "सत्येंद्रनाथ भी उसी मेले में घूम रहे थे. उन्होंने सिपाहियों को झिड़कते हुए कहा, आपने डिप्टी मजिस्ट्रेट के लड़के को क्यों पकड़ा है. ये सुनते ही सिपाहियों के होश उड़ गए. जैसे ही सिपाहियों की पकड़ छोड़ी ढ़ीली हुई खुदीराम बोस वहां से ग़ायब हो गए."

"बाद में डी वेस्टन की अदालत में सत्येंद्रनाथ पर पुलिस को भ्रमित करने के आरोप में मुकदमा चला. लेकिन उन पर ये आरोप सिद्ध नहीं हो पाए. वेस्टन ने अपना फ़ैसला इस तरह लिखा कि अप्रैल, 1906 में सत्येंद्रनाथ को अध्यापक पद से निलंबित कर दिया गया."

खुदीराम बोस
BHARTIYA GYANPEETH
खुदीराम बोस

खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी पिस्तौल लेकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुंचे


8 अप्रैल, 1908 को 17 वर्षीय खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को डगलस किंग्सफ़ोर्ड की हत्या का दायित्व सौंपा गया. इससे पहले क्रांतिकारियों ने किंग्सफ़ोर्ड को एक पार्सल बम भेजकर मारने की कोशिश की थी. लेकिन वो पार्सल उन्होंने नहीं खोला, पार्सल खोलते हुए एक अन्य कर्मचारी घायल हो गया.

इस बीच क्रांतिकारियों की गतिविधियों से डरकर किंग्सफ़ोर्ड ने अपना तबादला बंगाल से दूर बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में करवा लिया. युगांतकारी संगठन की ओर से खुदीराम को दो पिस्तौल और प्रफुल्ल चाकी को एक पिस्तौल और कारतूस देकर मुज़फ़्फ़रपुर भेजा गया. हेमचंद कानूनगो ने उन्हें कुछ हैंडग्रेनेड भी दिए.

लक्ष्मेंद्र चोपड़ा खुदीराम बोस की जीवनी में लिखते हैं, "18 अप्रैल, 1908 को खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी अपने मिशन पर मुज़फ़्फ़रपुर पहुंच गए. वहां दोनों वीर मोती झील क्षेत्र में एक धर्मशाला में ठहरे. दोनों युवाओं ने बारीक़ी से किंग्सफ़ोर्ड के आवास और उसकी दिनचर्या का अध्ययन करना शुरू कर दिया. तब तक पुलिस के गुप्तचरों को इस योजना की कुछ भनक लग गई थी. उन्होंने किंग्सफ़ोर्ड को सचेत करते हुए उसकी सुरक्षा बढ़ा दी."

खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी को इस बात का अंदाज़ा हो गया कि किंग्सफ़ोर्ड हर रात विक्टोरिया बग्घी में अपनी पत्नी के साथ स्टेशन क्लब आते हैं. दोनों ने योजना बनाई कि क्लब से वापसी के समय किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम फेंककर उनकी हत्या कर दी जाए.

रात साढ़े आठ बजे बग्घी में बम फेंका


उस ज़माने में मुज़फ़्फ़रपुर के स्टेशन क्लब में शाम को बहुत रौनक हुआ करती थी. वहां हर शाम ब्रिटिश अधिकारी और ऊंचे पदों पर काम करने वाले भारतीय जमा हो कर पार्टी करते थे और इनडोर गेम्स खेला करते थे. लेकिन कलकत्ता की तुलना में मुज़फ़्फ़रपुर की शामें जल्दी ख़त्म हो जाया करती थी.

उस दिन किंग्सफ़ोर्ड अंग्रेज़ बैरिस्टर प्रिंगल कैनेडी की पत्नी और बेटी के साथ ब्रिज खेल रहे थं. 30 अप्रैल, 1908 की शाम साढ़े आठ बजे जब खेल ख़त्म हुआ तो दो अंग्रेज़ महिलाएं श्रीमती कैनेडी और ग्रेस कैनेडी घोड़े की एक बग्घी पर सवार हुईं. ये बग्घी किंग्सफ़ोर्ड की बग्घी से बहुत कुछ मिलती जुलती थी. दूसरी बग्घी में किंग्सफ़ोर्ड और उनकी पत्नी सवार हुए. उन महिलाओं ने वही सड़क ली जो किंग्सफ़ोर्ड के घर के सामने से होकर जाती थी.

नूरुल होदा अपनी किताब 'द अलीपुर बॉम्ब केस' में लिखते हैं, "वो अंधेरी रात थी. जब बग्घी किंग्सफ़ोर्ड के घर के अहाते के पूर्वी गेट पर पहुंची तो सड़क के दक्षिणी छोर पर छिपे हुए दो लोग उसकी तरफ़ दौड़े. उन्होंने बग्घी के अंदर बम फेंक दिया."

"बग्घी के परखच्चे उड़ गए और उसमें सवार दो महिलाओं को गंभीर चोट लगी. बग्घी का सईस संगत दोसाध जो कि बग्घी के पीछे फुटबोर्ड पर खड़ा हुआ था घायल होकर नीचे गिरा और बेहोश हो गया. घायल लोगों को किंग्सफ़ोर्ड के घर लाया गया. ग्रेस कैनेडी की एक घंटे के अंदर मौत हो गई जबकि श्रीमती कैनेडी अगले 24 घंटों तक ज़िदगी और मौत के बीच झूलती रहीं. 2 मई को उनकी भी मौत हो गई."

बोस और चाकी पर 5000 रुपए का ईनाम घोषित किया गया


घटना के रिकॉर्ड में कहा गया, "बम का धमाका इतना तेज़ नहीं था. लेकिन उसको इतने अचूक निशाने के साथ फेंका गया था कि अगर हत्यारों से निशाना लेने में एक फीट की भी ग़लती हुई होती तो दो महिलाओं में कम से कम एक की जान बच जाती."

जब कलकत्ता पुलिस ने किंग्सफ़ोर्ड की संभावित हत्या के बारे में आगाह किया था तो उनकी सुरक्षा के लिए दो पुलिसकर्मियों तहसीलदार ख़ाँ और फ़ैयाज़ुद्दीन को तैनात किया गया था.

30 अप्रैल की शाम इन दोनों पुलिसकर्मियों को स्टेशन क्लब और किंग्सफ़ोर्ड के घर के बीच गश्त लगाने की ज़िम्मेदारी दी गई थी. साढ़े आठ बजे उन्हीं पुलिसकर्मियों ने किंग्सफ़ोर्ड के घर के बाहर धमाका सुना था और वहां से दो लोगों को दक्षिण की तरफ़ भागते हुए देखा था लेकिन फिर वो लोग अंधेरे में खो गए थे.

खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी वहां से भाग तो निकले लेकिन जल्दबाज़ी में खुदीराम के जूते वहीं रह गए. घटना के बाद ज़िला के पुलिस अधीक्षक ने मुज़फ़्फ़रपुर से मोकामा और बांकीपुर की दिशा में इन लोगों को पकड़ने के लिए कई पुलिसकर्मियों को रवाना किया था. ज़िला प्रशासन ने ये भी घोषणा की थी कि जो शख़्स इन लोगों के बारे में सूचना देगा उसे 5000 रुपए का ईनाम दिया जाएगा.

खुदीराम बोस
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खुदीराम बोस

खुदीराम बोस की गिरफ़्तारी


पूरे मुज़फ़्फ़रपुर शहर में सनसनी फैल गई. खुदीराम और चाकी रेल पटरियों के किनारे भागते हुए समस्तीपुर के पास वैनी रेलवे स्टेशन पहुंच गए. उन्होंने रात के अंधेरे में लगभग 24 मील की दूरी पैदल ही भागते हुए तय कर ली थी. वैनी स्टेशन के बाहर दोनों क्रांतिकारी एकदूसरे से गले मिलकर इस संकल्प के साथ अलग-अलग दिशाओं में चल पड़े कि अगर जीवन रहा तो कलकत्ता में फिर मिलेंगे.

लक्ष्मेंद्र चोपड़ा लिखते हैं, "1 मई, 1908 की सुबह वैनी रेलवे स्टेशन के पास किशोर खुदीराम पानी पीकर विश्राम के लिए बैठे ही थे कि उन्होंने सुना कि लोग आपस में रात की घटना की चर्चा कर रहे हैं. उसमें से किसी ने कहा, 'वो किंग्सफ़ोर्ड तो नहीं मरा इस बम से, लेकिन अंग्रेज़ मां-बेटी मारी गई'."

"यह सुनकर खुदीराम को धक्का लगा. उनके मुंह से अनायास निकला, 'तो क्या किंग्सफ़ोर्ड नहीं मरा?' वहां पर अंग्रेज़ पुलिस के कुछ सिपाही और जासूस भी घूम रहे थे. खुदीराम की थकावट, उत्तेजना, उम्र के साथ-साथ उसका बांग्ला बोलने का लहज़ा और नंगे पांव होने के कारण संदेह में खुदीराम फ़ौरन पकड़ लिया गया. जब उन्हें पकड़ा जा रहा था उस वक्त उनके कपड़ों से एक रिव़ॉल्वर नीचे गिर गया. उन्होंने फ़ायर करने की मंशा से तुरंत एक छोटा लोडेड रिवॉल्वर निकाल लिया. उनकी जेब से 37 कारतूस और 30 रुपए भी मिले."

जूतों को पैर में पहना कर देखा गया


लक्ष्मेंद्र चोपड़ा लिखते हैं, "खुदीराम की कमर से एक धारीदार कोट बंधा हुआ था. बाद में तहसीलदार ख़ाँ ने पहचाना कि क्लब के अहाते के बाहर खुदीराम बोस यही कोट पहने हुए थे. बोस की गिरफ़्तारी की ख़बर सुनकर उन्हें लाने के लिए ज़िला मजिस्ट्रेट वैनी पहुंच गए. बाद में तहसीलदार और फ़ैयाज़ुद्दीन ने खुदीराम बोस की शिनाख़्त की और कहा कि ये उन दो लोगों में से एक थे जो 30 अप्रैल, 1908 के क्लब के सामने दिखे थे."

घटनास्थल पर पाए गए जूतों को खुदीराम बोस को पहना कर देखा गया. जूते उनको बिल्कुल सही आए. खुदीराम ने खुद स्वीकार किया कि ये उनके ही जूते हैं.

पुलिस की पूछताछ में बोस ने अपने साथी का असली नाम न बताकर उसका नाम दिनेश चंद्र रॉय बताया. खुदीराम ने माना कि उनसे किंग्सफ़ोर्ड की बग्घी को पहचानने में ग़लती हुई थी. खुदीराम बोस जब पुलिस बंदी के रूप में मुज़फ़्फ़रपुर स्टेशन पहुंचे तो वहां बड़ी संख्या में लोग उनकी एक झलक देखने के लिए खड़े थे.

प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मारी


1 मई की शाम 6 बजे सब-इंस्पेक्टर नंदलाल बनर्जी ने सिंहभूम जाने के लिए ट्रेन पकड़ी. समस्तीपुर स्टेशन पर नंदलाल ने प्लेटफ़ॉर्म पर एक बंगाली युवक को नए कपड़े और जूते पहने हुए देखा. उनकी वेशभूषा से उन्हें कुछ शक़ हुआ.

वो उस डिब्बे में घुस गए जहां वो युवक बैठा था. उन्होंने उस युवक से बातचीत करने की कोशिश की जिससे वो युवक नाराज़ हो गया. वो युवक डिब्बा छोड़कर दूसरे डिब्बे में चला गया. मोकामा घाट स्टेशन पर नंदलाल फिर उस डिब्बे में आ गया जिसमें वो युवक बैठा हुआ था.

इस बीच सब-इंस्पेक्टर ने अपने शक़ के बारे में मुज़फ़्फ़रपुर पुलिस को तार दे दिया. मोकामा स्टेशन पर उसे जवाबी तार मिला कि वो उस युवक को शक़ के आधार पर तुरंत गिऱफ़्तार कर ले. जैसे ही युवक को पता चला कि उसे पकड़ा जा रहा है वो प्लेटफ़ॉर्म पर कूद गया.

नूरुल होदा लिखते हैं, "युवक लेडीज़ वेटिंग रूम की तरफ़ भागा जहां जीआरपी के एक जवान ने उसे पकड़ने की कोशिश की. तभी उस युवक ने पिस्टल निकाल कर उस जवान की तरफ़ फ़ायर किया लेकिन उसका निशाना चूक गया. घेर लिए जाने के बाद उसने अपनेआप को दो गोलियां मारीं, एक कॉलर बोन के पास और दूसरी गले में. वो व्यक्ति वहीं गिर गया और उसी स्थान पर उसकी मृत्यु हो गई."

एक महीने के अंदर ही फांसी की सज़ा सुनाई गई


प्रफुल्ल चाकी के शव को शिनाख़्त के लिए मुज़फ़्फ़रपुर ले जाया गया जहां तहसीलदार ख़ाँ और फ़ैयाज़ुद्दीन ने शिनाख़्त की कि ये वही शक़्स है जो खुदीराम बोस के साथ क्लब के अहाते के पास मंडरा रहा था. बाद में ज़िला मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में प्रफुल्ल चाकी के शव को खुदीराम बोस को दिखाया गया.

खुदीराम बोस ने अपने साथी के शव की पहचान की लेकिन उन्होंने उसका नाम दिनेश चंद्र रॉय बताया. जब उनको चाकी की पिस्टल दिखाई गई तो वो उसको नहीं पहचान पाए लेकिन उन्होंने ये ज़रूर कहा कि दिनेश ने उन्हें बताया था कि उसके पास एक पिस्टल है.

इस घटना के पांच महीने बाद 9 नवंबर, 1908 को प्रफुल्ल चाकी को गिरफ़्तार करने वाले नंदलाल बनर्जी की कलकत्ता में श्रीशचंद्र पाल और गनेंद्रनाथ गांगुली ने गोली मारकर हत्या कर दी.

खुदीराम बोस पर अपर सत्र न्यायाधीश एच डब्सू कॉर्नडफ़ की अदालत में हत्या का मुक़दमा चलाया गया. जब खुदीराम को अदालत में लाया जाता था तो सड़क के दोनों तरफ़ खड़े लोग ज़िन्दाबाद और वन्दे मातरम के नारों के साथ उनका स्वागत करते थे. 13 जून, 1908 को अदालत ने खुदीराम बोस को फांसी की सज़ा सुनाई.

पूरे भारत में शोक


11 अगस्त, 1908 को सुबह 6 बजे भारत की आज़ादी के इतिहास में पहली बार एक किशोर को फांसी दी गई. उस समय उनके हाथ में गीता की एक प्रति थी और उनकी उम्र थी 18 साल, 8 महीने और 8 दिन. जेल के बाहर उन्हें विदाई देने के लिए एक बड़ी भीड़ वन्दे मातरम का नारा लगा रही थी.

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने खुदीराम बोस की शहादत पर कई लेख लिखे.

पुणे से प्रकाशित मराठा के 10 मई, 1908 के अंक में उन्होंने लिखा, "यह चरम प्रतिवाद को साकार रूप में प्रस्तुत करने के लिए चरम विद्रोह का मार्ग है और इसके लिए अंग्रेज़ सरकार ही ज़िम्मेदार है."

खुदीराम बोस
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खुदीराम बोस

पूरे देश में खुदीराम बोस के चित्र बांटे गए. अपने एक व्याख्यान में साहित्यकार बालकृष्ण भट्ट को खुदीराम बोस को श्रद्धांजलि देने के आरोप में अध्यापक की अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी. खुदीराम बोस के एक चित्र को मुंशी प्रेमचंद ने अपने अध्ययन कक्ष की दीवार पर स्थान दिया था.

खुदीराम बोस की शहादत का सबसे बड़ा असर विद्यार्थियों पर पड़ा. उनके बीच वन्दे मातरम और 'आनंदमठ' के पठन-पाठन में रुचि पैदा होती गई.

बंगाल के दस्तकारों ने एक ख़ास धोती बुननी शुरू कर दी जिसके किनारे पर खुदीराम लिखा रहता था. पीताम्बर दास ने उनके सम्मान में एक गीत लिखा था जो आज भी बंगाल के घर-घर में गाया जाता है. ये गीत है 'ऐक बार बिदाए दे मा घूरे आशि' (एक बार विदा तो दे मां, ताकी मैं घूम कर आ जाऊं).

इस गीत की आख़िरी पंक्तियों में लिखा है-

दश माश दश दिन पोरे, जन्मो नेबो माशीर घरे मा गो, तॉखोन जोदी ना चीनते पारिश, देखबी गोला फांशी (ओ मां, आज से 10 महीने 10 दिन के बाद मैं मौसी के घर फिर जन्म लेकर लौटूंगा, अगर मुझे न पहचान पाओ तो मेरे गले में फांसी से फंदे का निशान देखना.)

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English summary
Khudiram Bose who was hanged at the age of 18
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