Exculisve क्या ‘केशव’ क्या ‘कृष्ण’ : पिटते चले गए लकीर पीटने वाले!
4 अक्टूबर, 2001.... यह वो तारीख है, जिसे खुद नहीं पता था कि उसकी तवारीख में गांधीनगर से खींची जा रही लकीर 12 साल बाद 920 किलोमीटर दूर दिल्ली तक खिंचने वाली है। उस वक्त इस लकीर को पीटा था ‘केशव' ने और आज ठीक 12 साल बाद गांधीनगर से दिल्ली तक पहुँच चुकी लकीर को पीट रहे हैं ‘कृष्ण'। यह बताने की जरूरत नहीं है कि उस लकीर का नाम नरेन्द्र मोदी है और उस लकीर को पीटने वालों के नामों की फेहरिस्त तो बहुत लम्बी है, लेकिन शुरुआत केशव ने की थी और कृष्ण आखिरी कोशिश कर रहे हैं।
खैर, अब ज्यादा रहस्य न बनाए रखते हुए आपको बता ही देते हैं कि 4 अक्टूबर-2001, केशव और कृष्ण से तात्पर्य क्या है? 4 अक्टूबर, 2001 वह तारीख है, जिस दिन गुजरात की राजधानी गांधीनगर में भारतीय जनता पार्टी विधायक दल की बैठक हुई थी। यह बैठक अत्यंत राजनीतिक उथल-पुथल के माहौल में हुई थी। इस बैठक में गुजरात के ‘केशव' यानी तत्कालीन निवर्तमान मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल और तत्कालीन भावी मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी मौजूद थे। इस बैठक में केशुभाई पटेल ने नरेन्द्र मोदी को भाजपा विधायक दल का नेता चुने जाने का प्रस्ताव किया था। सभी जानते हैं कि केशुभाई पटेल भाजपा हाईकमान के गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन के फैसले से नाराज थे। इसीलिए 4 अक्टूबर, 2001 का वह दिन एक ऐतिहासिक दिन बन गया। यह वह तारीख है, जिसे खुद नहीं पता था कि उसकी तवारीख में कितनी बड़ी घटना दर्ज हो चुकी थी।
7 अक्टूबर, 2001 को नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में मुख्यमंत्री का पदभार संभाल लिया और इसी के साथ शुरू हुआ मोदी का मिशन। जब मोदी मुख्यमंत्री बने, तब शायद कोई नहीं भाँप पाया था कि वे एक दिन देश के सर्वोच्च पद के लिए पार्टी में सबसे पहली पसंद बन जाएँगे। हालाँकि मोदी के इस सफर को सबसे पहले ब्रेक लगाने की कोशिश की केशुभाई पटेल ने। पार्टी हाईकमान का फैसला शिरोधार्य करते हुए केशुभाई पटेल ने मुख्यमंत्री का पद तो छोड़ दिया, परंतु उसके प्रति मोहभंग नहीं हुआ उनका और इसी मोह के वश वे पार्टी के भीतर रह कर लगातार मोदी के खिलाफ हुंकार भरते रहे। एक बार नहीं, कई बार उन्होंने मोदी को चुनौती दी।
आइए तसवीरों के साथ जानते हैं नरेन्द्र मोदी का संघर्ष :
केशुभाई का आशीर्वाद और दंगे
4 अक्टूबर, 2001 का वह दिन आज भी केशुभाई और मोदी को याद होगा। इस बैठक में मोदी ने कहा कि वे टेस्ट नहीं, बल्कि वन-डे खेलने आए हैं। मोदी ने केशूभाई पटेल के आशीर्वाद के साथ गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। संघ के स्वयंसेवक रहे मोदी ने पहली बार चुनाव लड़ा राजकोट-2 विधानसभा क्षेत्र से। इस उप चुनाव में मोदी को जीत मिली। चुनावी जीत की खुशी के बीच 27 फरवरी, 2002 को गोधरा कांड हुआ और गुजरात भयंकर दंगों की आग में झुलस गया। बस ये दंगे ही मोदी के लिए गले का ‘हार' बन गए। मोदी ने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का फायदा उठाने के लिए विधानसभा भंग की और दिसम्बर-2002 में विधानसभा चुनाव हुए। मोदी के बूते भाजपा को दो तिहाई बहुमत हासिल हुआ और दंगों को लेकर मोदी को लताडऩे वालों के मुंह कुछ समय के लिए बंद हो गए।
हार का ठीकरा
सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, लेकिन सोलह महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव-2004 ने सब कुछ उलट दिया। केन्द्र में सत्तारूढ़ अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की इस चुनाव में लुटिया डूब गई। चौतरफा फीलगुड और इंडिया शाइनिंग अभियान की चमक के बावजूद वाजपेयी सरकार दोबारा सत्ता में न लौटी। यहां तक कि गुजरात में मोदी 26 में से सिर्फ 14 सीटें ही दिला सके। चुनावों में मिली इस हार का ठीकरा सीधे तौर पर मोदी पर फोड़ा गया। भाजपा के सहयोगी दलों ने साफ तौर पर कहा कि गुजरात दंगों में मोदी की तथाकथित भूमिका ही भाजपा और एनडीए की हार का कारण बने। इसके साथ ही मोदी के विरोधी लामबंद होना शुरू हो गए।
अटल ने मुँह मोड़ा
नरेन्द्र मोदी के खिलाफ पार्टी में रह कर बागी तेवर अपनाने वाले केशुभाई पटेल ने सबसे बड़ा संकट 2004 में खड़ा किया। लोकसभा चुनाव में गुजरात में भाजपा के कमजोर प्रदर्शन से केशुभाई और मोदी विरोधियों के हौसले बुलंद थे। केशुभाई के नेतृत्व में ए. के. पटेल, सुरेश मेहता, गोरधन झडफिया, पुरुषोत्तम सोलंकी सहित तमाम मोदी विरोधी एकजुट हो गए। इतना ही नहीं ए. के. पटेल के जन्म दिन पर भारी राजनीतिक उथल-पुथल हुई और उस वक्त लगने लगा था कि केशव की हुंकार के आगे मोदी शायद टिक नहीं पाएँगे, परंतु हुआ वही, जो मोदी चाहते थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तक यह कह गए कि लोकसभा चुनाव में गुजरात सहित देश भर में पार्टी के कमजोर प्रदर्शन और सत्ता से बेदखली के लिए गुजरात दंगे जिम्मेदार हैं। उस समय लालकृष्ण आडवाणी मोदी के संकट मोचक बन कर उभरे और उन्होंने मोदी की सत्ता बचा ली।
आडवाणी संकट मोचक
लोकसभा चुनाव-2004 में हार के बाद मोदी का सिंहासन डोलने लगा। दो साल पहले ही दो तिहाई बहुमत हासिल करने वाले मोदी को लेकर आम जनता में तो कोई विरोध नहीं दिख रहा था, लेकिन लोकसभा चुनाव में हार और हाईकमान के कई नेताओं व सहयोगी दलों की ओर से मोदी को घेरे जाने के साथ ही स्थानीय स्तर पर मोदी विरोधियों के पंख लगने लगे। सत्ता से हटाए जाने से दु:खी केशूभाई पटेल के अप्रत्यक्ष नेतृत्व में गोरधन झडफिया, ए. के. पटेल, सुरेश मेहता जैसे नेताओं ने बगावत के स्वर तेज कर दिए। मामला ए. के. पटेल के जन्म दिन की पार्टी से लेकर दिल्ली तक पहुंचा। लम्बा घमासान चला। एक बार तो पूरी भाजपा मानो मोदी पर सिमटी लगी, लेकिन आडवाणी के अभयदान ने मोदी के सिंहासन को हमेशा बचाया।
स्थिर व मजबूत नेतृत्व के परिचायक
सबसे लम्बे शासन का रिकॉर्ड बनाया मोदी ने जून-2006 में गुजरात में सबसे लम्बे शासन का पूर्व मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी का रिकॉर्ड तोड़ कर एक नया रिकॉर्ड बनाया। यह उनके कार्यकाल का एक और बेहतर पड़ाव था। गुजरात में जीवराज मेहता से लेकर केशूभाई पटेल तक तेरह मुख्यमंत्री रहे। इनमें एकमात्र माधवसिंह सोलंकी ऐसे मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने चुनाव से चुनाव तक का कार्यकाल पूरा किया था। वो भी पांच साल का नहीं था, लेकिन मोदी ने आगे चल कर न केवल सबसे लम्बे शासन का रिकॉर्ड बल्कि, चुनाव से चुनाव तक शासन का रिकॉर्ड बनाया और अब तो वे शासन के 11 साल पूरे कर कर चुके हैं।
लोकसभा चुनाव में फिर भद पिटी
फिर एक बार सोलह महीने बाद लोकसभा चुनाव-2009 हुए और 2004 का पुनरावर्तन हुआ। मोदी लोकसभा सीटों में सिर्फ एक सीट का इजाफा करवा पाए और कांग्रेस की बाछें फिर खिलीं, लेकिन हर बार की तरह कांग्रेस लगातार उन्हें बुनियादी मुद्दों पर घेरने की बजाए विवादास्पद मुद्दों पर घेरती रही और उसे मुंह की खानी पड़ी। ऐसा ही हुआ। लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार के सौ दिन बाद ही हुए राज्य में सात सीटों के उप चुनाव में पांच सीटें जीत कर मोदी ने फिर एक बार गुजरात पर अपनी पकड़ को साबित किया।
सद्भावना उपवास
केन्द्रीय राजनीति, हाईकमान की राजनीति, अण्णा हजारे के उपवास आंदोलन जैसे ज्वलंत मुद्दों के बीच भी मोदी और विवाद चलते ही रहे। कांग्रेस ने गुजरात में मोदी को घेरने के लिए राजभवन का इस्तेमाल कर लोकायुक्त की नियुक्ति करवा दी। मोदी दंगे, संजीव भट्ट, हरेन पंड्या, जागृति पंड्या, फर्जी मुठभेड़ सहित कई अनसुलझे मुद्दों पर जब खुद को घिरा महसूस करने लगे। मोदी ने इस बीच सद्भावना उपवास किया और मोदी के इस अनशन को राष्ट्रीय स्तर पर उभरने की सीढ़ी के रूप में देखा गया। इस अनशन में कई अल्पसंख्यकों को भी लाकर मोदी ने सबका साथ-सबका विकास का नारा दिया। विवादों के बीच मोदी ने गत 7 अक्टूबर, 2012 को सत्ता के 11 साल पूरे किए।
कमजोर पड़े केशव, तो कृष्ण बने चुनौती
विकास की राजनीति करने वाले नरेन्द्र मोदी हालाँकि चुनावी राजनीति के भी खिलाड़ी हैं और यह बात उन्होंने गुजरात विधानसभा चुनाव 2012 में लगातार तीसरी बार जीत हासिल करके साबित भी कर दी। इस एक दशक के दौर में जहाँ गुजरात भाजपा रूपी घर में उनके कट्टर विरोधी केशुभाई पटेल कमजोर पड़ गए। 2007 के विधानसभा चुनाव में पार्टी में रह कर मोदी का समर्थन नहीं करने वाले केशुभाई ने 2012 के चुनाव में पार्टी से बाहर निकल कर मोदी को खुली चुनौती दी, लेकिन ये मोदी ही थे, जो इतने थपेड़ों के बावजूद सफलता हासिल कर गए। बस केशव कमजोर पड़े और मोदी ने लगातार तीसरी जीत हासिल कर खुद को सीधे दिल्ली की रेस में लगा लिया और यहीं से शुरू हुई कृष्ण की ललकार। अब तक संकट मोचक रहे लालकृष्ण आडवाणी की राह में मोदी सबसे बड़ा काँटा बन कर उभरे और आज कृष्ण की ललकार पूरी दिल्ली में गूंज रही है।
लकीर पीटने वाले पिटे
मोदी की लकीर को पीटने वाले अक्सर उनके हाथों पिटते चले गए। गुजरात में केशुभाई से लेकर ए के पटेल, गोरधन झडफिया, सुरेश मेहता, शंकरसिंह वाघेला और स्वर्गीय हरेन पंड्या जैसे कई नाम हैं, जो मोदी की लकीर को पीटते-पीटते खुद पिट गए। अब मोदी की लकीर को पीटने वालों की इस सूची में आखिरी नाम है लालकृष्ण आडवाणी। जहाँ तक भाजपा के संकल्प और संघ के समर्थन का माहौल है, तो स्पष्ट है कि आडवाणी की एक नहीं चलने वाली। वे मानें या न मानें, लेकिन 4 अक्टूबर, 2001 को खिंची यह लकीर आज 13 सितम्बर, 2013 को प्रधानमंत्री पद से एक कदम दूर रह कर ही दम लेगी।