बड़ा सवालः केजरीवाल Vs कौन?, ऐसा हुआ तो दिल्ली में तीसरी बार बनेगी AAP की सरकार!
बेंगलुरू। दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 के लिए मतदान में अब 15 दिन शेष रह गए हैं, लेकिन अभी तक कांग्रेस और बीजेपी दोनों विपक्षी दलों ने निवर्तमान मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के खिलाफ कोई टक्कर का नेता को सामने नहीं किया है। बीजेपी ने नई दिल्ली सीट से सुनील यादव नामक एक उम्मीदवार को केजरीवाल के खिलाफ उतारा, लेकिन बीजेपी का यह उम्मीदवार नई दिल्ली सीट से पर्चा भरने वाले 85 से अधिक उम्मीदवारों में खोकर रह गया है।
वहीं, कांग्रेस दिल्ली विधानसभा चुनाव 2013 में केजरीवाल के हाथों बुरी तरह हारी दिवंगत शीला दीक्षित के नेतृत्व में लड़ रही है। इसलिए यह सवाल मौजू हो चला है कि दिल्ली में केजरीवाल बनाम कौन है, जो केजरीवाल को चुनाव में बढ़त दे रहा है।
केजरीवाल बनाम कौन? के सवाल पर बीजेपी की ओर कोई जवाब नहीं मिल पा रहा है। दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी को मुख्यमंत्री कैंडीडेट बनाए जाने को लेकर कोई सुगबुगाहट न पहले थी और न अब सुनाई पड़ रही है। यह अलग बात है कि आम आदमी पार्टी का आईटी सेल जबरन मनोज तिवारी बनाम केजरीवाल का शिगूफा छोड़ने पर अमादा है।
मनोज तिवारी को दिल्ली में बीजेपी का सीएम कैंडीडेट बताकर आप का आईटी सेल फूहड़ मीम्स के जरिए मनोज तिवारी को केजरीवाल के आगे कमजोर दिखाने कोशिश में लगा हुआ है जबकि बीजेपी की ओर से चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल बताई जा रही है।
बीजेपी और कांग्रेस की ओर से केजरीवाल के विरूद्ध सीएम कैंडीडेट नहीं घोषित किए जाने से मुख्यमंत्री केजरीवाल को मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल है, लेकिन खुद केजरीवाल और आम आम पार्टी नहीं चाहती है कि मुकाबला मोदी बनाम केजरीवाल हो, इसलिए आईटी सेल से लेकर पूरी आप पार्टी केजरीवाल के खिलाफ विपक्ष का सीएम कैंडीडेट ढूंढने के लिए अपना सिर खपा रही है।
आपको याद हो तो, अरविंद केजरीवाल के मुकाबले पिछली बार बीजेपी ने मौजूदा पुडुचेरी उप राज्यपाल किरण बेदी को खड़ा किया था, लेकिन किरण बेदी खुद अपना चुनाव हार गईं और बीजेपी को वर्ष 2013 विधानसभा चुनाव के मुकाबले 29 सीटों का नुकसान हुआ और बीजेपी महज 3 सीटों पर सिमट गई थी। हांलाकि दो चुनावों में बीजेपी के वोट फीसदी में महज 1 फीसदी का अंतर आया था।
गौरतलब है वर्ष 2013 विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 32 फीसदी वोट के साथ 31 सीटों पर जीत दर्ज की थी। तब बीजेपी के सीएम कैंडीडेट मौजूदा केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्ष वर्धन थे और केजरीवाल एंड पार्टी को 28 सीटें हासिल हुईं थी। यह सत्ता लोलुप केजरीवाल की मजबूरी ही कहेंगे कि उन्होंने उस पार्टी के साथ गठबंधन करके दिल्ली में सरकार बना ली, जिसकी मुख्यमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के 370 पन्नों का सबूत होने का दावा किया था।
हालांकि करीब 49 दिनों बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर पूर्व मुख्यमंत्री का तमगा लिए अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री बनने वाराणसी भागे निकले और जब वाराणसी से खाली हाथ लौटे तो दिल्ली उनसे दूर हो चुकी थी। दिल्ली में करीब दो वर्ष तक राष्ट्रपति शासन लगा रहा। दिल्ली की जनता ने केजरीवाल को 28 सीट देकर सत्ता तक पहुंचाया, लेकिन केजरीवाल को लगा कि तात्कालिक लोकप्रियता से वो प्रधानमंत्री भी बन सकते थे।
करीब 2 वर्ष बाद जब दिल्ली में फिर विधानसभा चुनाव की घोषणा हुई तो केजरीवाल के आंदोलनकारी तरीके से दिल्ली में प्रचार-अभियान शुरू किया और दिल्ली की जनता को 70 वादों के मुफ्त के सब्जबाग दिखाए। दिल्ली की जनता के पास कोई च्वाइस नहीं था, क्योंकि वो मोदी को मुख्यमंत्री पद के लिए चुन नहीं सकते थे।
वर्ष 2015 केजरीवाल उस समय सहानुभूति वोट पाने में सफल हुए, जिसमे बीजेपी की निगेटिव प्रचार-प्रसार का फायदा केजरीवाल को अधिक मिला। चुनाव नतीजे आए तो खुद केजरीवाल भी सन्न रह गए थे, क्योकि आम आदमी पार्टी रिकॉर्ड सीटों पर जीत दर्ज की थी। दिल्ली के 70 विधानसभा सीटों में से 67 सीटों पर आम आदमी पार्टी जीत कर आई थी।
कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो चुका था, जो वर्ष 2013 विधानसभा चुनाव में महज 8 सीटो पर जीत दर्ज कर पाई थी और अनैतिक तरीके से आम आदमी पार्टी को समर्थन देकर सरकार में शामिल हुई थी। दिल्ली की जनता ने कांग्रेस को एक बार फिर सबक सिखाया और कांग्रेस जीरो पर सिमट गई थी।
कमोबेश यही हालत बीजेपी की थी और वह 31 से 3 सीटों पर सिमट गई थी। हालांकि बीजेपी के वोट फीसदी में ज्यादा अंतर नहीं आया था। बीजपी को वर्ष 2013 विधानसभा चुनाव में 32 फीसदी वोट मिला था जब उसकी 31 सीटें आईं थीं और 2015 विधानसभा चुनाव में उसे 1 फीसदी कम यानी 31 फीसदी वोट मिला, लेकिन उसकी सीटें घटकर 3 पर सिमट गईं। कारण बीजेपी और आप कैंडीडेट में जीत का अंतर बेहद कम था।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के सीएम कैंडीडेट की गैर मौजूदगी में केजरीवाल का पलड़ा भारी है, लेकिन केजरीवाल की चुनौती कम नहीं हुई है। यही कारण है कि केजरीवाल एंड पार्टी लगातार ध्रुवीकरण की राजनीति का शिकार हो रही है।आम आदमी पार्टी पर आरोप लग रहे हैं कि दिल्ली के शाहीन बाग में सीएए के खिलाफ आयोजित धरना प्रायोजित है, जिसकी फंडिंग केजरीवाल कर रहे हैं।
यह आरोप इसलिए भी लग रहे हैं, क्योंकि सीएए के विरोध में जामिया कैंपस में हुए हिंसा के दौरान दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया द्वारा दिल्ली पुलिस के जवान पर बस में पेट्रोल डालकर आग लगाने का झूठा आरोप पकड़ा जा चुका है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी पूरी तरह से राजनीतिक पार्टी बन गई है और एक सधे हुए राजनीतिक की तरह एक-एक पाशे फेंक रही है।
जामिया, शाहीन बाग और दिल्ली के सीलमपुर में हुए हिंसक प्रदर्शन और उसके खिलाफ केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का स्टैंड क्लियर करता है कि केजरीवाल को दिल्ली की नहीं, बल्कि वोट की चिंता है। इसलिए वह बयान देने से पहले नफे-नुकसान को देखती है। सीएए के खिलाफ केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का स्टैंड अभी तक क्लियर नहीं होना इसकी बानगी है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 के लिए मतदान 8 फरवरी को होने हैं और नतीजे 11 फरवरी हो घोषित हो जाएंगे। अभी तक दिल्ली में केजरीवाल के खिलाफ कोई सीएम कैंडीडेट नहीं केजरीवाल के लिए दोबारा चुनाव जीतना आसान बनता जा रहा है, क्योंकि अगर बीजेपी और कांग्रेस चाहती तो बीते 7 वर्षों मे एक बेहतर कैंडीडेट केजरीवाल के खिलाफ तैयार कर सकती थी।
बीजेपी के खाते में दिल्ली के कद्दावर नेता डा. हर्ष वर्धन थे और युवा चेहरों में दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के पुत्र और दो बार के सांसद प्रवेश सिंह वर्मा का तैयार किया जा सकता था, लेकिन बीजेपी ने 7 वर्ष तक दिल्ली पर कोई काम नहीं किया। अगर मोदी ब्रांड नहीं होता, दिल्ली को लोकसभा चुनाव में 7 लोकसभा सीटों पर जीत पाना मुश्किल ही था।
केजरीवाल के खिलाफ बीजेपी की तरह कांग्रेस भी पूरे सात सोती रही जबकि उसके पास दिल्ली में अजय माकन से लेकर अरविंदर सिंह लवली और हारुन युसुफ जैसे नेता मौजूद थे, इनमें से किसी को भी दिल्ली की कमान सौंपी जा सकती थी और केजरीवाल के विरूद्ध उसके 70 वादों के आलोक में चुनाव लड़ा जा सकता था।
आंकड़े कहते हैं कि केजरीवाल ने वर्ष 2015 में किए 70 वादों में से 20 फीसदी वादे भी वास्तविक धरातल पर पूरे नहीं किए हैं। बात चाहे सीसीटीवी की हो, या फ्री वाई फाई की। हर जगह केजरीवाल की ओर से खानापूर्ति की गई है, क्योंकि केजरीवाल दिल्ली छोड़कर पूरे देश में चुनाव लड़ रहे थे और दिल्ली मनीष सिसोदिया के भरोसे छोड़ गए।
केजरीवाल दिल्ली में विराजमान तब हुए जब आम आदमी पार्टी पूरे देश में चुनाव लड़कर और जमानत जब्त करवाकर दिल्ली लौट चुकी थी। इनमे गोवा, हरियाणा और 2019 लोकसभा चुनाव शामिल हैं। केजरीवाल ने लोकसभा चुनाव 2019 में पार्टी की हुई बुरी हार के बाद दिल्ली में आसन ग्रहण किया।
क्योंकि केजरीवाल एंड पार्टी को पता चल चुका था कि अगर अब नहीं चेते तो दिल्ली से भी उन्हें कूच करना पड़ जाएगा। जून 2019 ने दिसंबर 2019 तक के अंतराल में केजरीवाल ने वर्ष 2015 में किए 70 वादों को पूरा करने का दावा किया है। अब दिल्ली की जनता को सोचना है कि वह केजरीवाल क्यों चुने?
क्योंकि बीजेपी और कांग्रेस ने निर्भया के चारो दोषियों की फांसी में हो रही देरी के लिए केजरीवाल सरकार को छकाने में नाकाम कर रही, क्योकि दिल्ली सरकार के अधीन जेल विभाग के जेल मैनुअल में वर्ष 2018 में किए संशोधन की वजह से ही जेल में बंद चारो दोषी फांसी टलवाने में लगातार सफल हो रहे हैं।
अगर बीजेपी निर्भया केस को ही हाईलाइट करके और केजरीवाल की पोल जनता के सामने खोलती तो जिस जनता ने केजरीवाल को कुर्सी पर बिठाया है, वही उसे कुर्सी से उलट कर रख सकती है। केजरीवाल को विरूद्ध निर्भया की मां आशा देवी को खड़ाकर बीजेपी केजरीवाल को बड़ी चुनौती दे सकती थी और फिर बड़ा उलटफेर हो सकता है, क्योंकि माना जा रहा है कि इस बार भी नतीजा चौकाऊं हो सकता है।
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