जब नीतीश की तंगहाली देख कर्पूरी ठाकुर ने दिया था नौकरी का ऑफर
नई दिल्ली। राजनीति सेवा के लिए है, मेवा के लिए नहीं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2019 के लोकसभा चुनाव में इस सूत्र वाक्य को सबसे बड़ा मुद्दा बनाया। उन्होंने 172 चुनावी सभाएं की और इस मुद्दे के आधार पर लालू परिवार पर हमला बोला। नीतीश कुमार लालू यादव पर कटाक्ष करते रहे कि कुछ लोग राजनीति में माल बनाने के लिए आये। अभी भी इसी कोशिश में हैं। जब कि उनके लिए राजनीति का मतलब जनता जनार्दन की सेवा है। नीतीश कुमार के पु्त्र नीशांत इंजीनियर हैं लेकिन वे राजनीति से दूर हैं। नीतीश का कोई निकट संबंधी भी राजनीति में नहीं है। नीतीश का दावा है कि जनता ही उनका परिवार है, जब कि लालू यादव के लिए परिवार ही सबकुछ है। तो क्या नीतीश कुमार सचमुच सेवा के लिए राजनीति में आये ?
इंजीनियर बनने के बाद भी नीतीश का संघर्ष
नीतीश कुमार ने बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियंरिग (अब एनआइटी, पटना) से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल की। उनके साथी सरकारी सेवा में चले गये लेकिन वे 1974 के छात्र आंदोलन में सक्रिय रहे। कांग्रेस की तानाशाही के खिलाफ लड़ाई में शामिल हो गये। चमकते करियर को तिलांजलि दे दी। वे चाहते तो गजटेड ऑफिसर के रूप में नौकरी शुरू कर सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं किया। 1977 में राजनीति बदलाव के लिए बहुचर्चित चुनाव हुआ। नीतीश कुमार को बिहार विधानसभा चुनाव में अपने गृहक्षेत्र हरनौत से जनता पार्टी का टिकट मिला। लेकिन वे हार गये। 1978 में नीतीश के पिता रामलखन प्रसाद सिंह का निधन हो गया। वे बख्तियारपुर के मशहूर वैद्य थे। उनका आयुर्वेदिक दवाखाना बहुत अच्छा चलता था। घर में रुपय-पैसों की कमी नहीं थी। लेकिन पिता के निधन से नीतीश कुमार की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गयी। नीतीश उस समय युवा लोकदल के अहम सदस्य थे।
पिता की मौत से नीतीश को झटका
जब नीतीश को पिता के निधन की सूचना मिली उस समय वे युवा लोकदल के एक कार्यक्रम के लिए वैशाली में थे। वे बखित्यारपुर लौटे। अब बख्तियारपुर का पैतृक घर ही उनका ठिकान बन गया। पटना में रहने के लिए अपनी कोई जगह नहीं थी। वे सुबह घर से खाना खा कर ट्रेन से पटना जाते। विधायक क्लब में लोकदल के नेताओं से मिलते। फिर देर शाम पटना से घर लौट आते। तब उनकी जेब में इतने पैसे नहीं होते थे कि वे दोपहर में कुछ खा-पी सकें। सुबह में खाते तो फिर रात में घर पर ही खाना मिलता। विधायक क्लब के कैंपस में छोटी सी एक चाय दुकान थी। रोज उठने बैठने से दुकानदार से जान पहचान हो गयी। वह कभी-कभार नीतीश को उधार चाय -बिस्कुट दे देता था। उनकी अमदनी का एक मात्र जरिया कुछ खेती-बाड़ी थी। घर में बड़े भाई सतीश कुमार के परिवार और मां की देखभाल की जिम्मेवारी थी। खेती से अनाज और कुछ पैसा मिलता तो उससे जरूरतें पूरी नहीं होतीं। नीतीश कुमार गरीबी से जूझते रहे लेकिन किसी से मदद नहीं मांगी।
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कर्पूरी ठाकुर ने दिया नीतीश को नौकरी का प्रस्ताव
कर्पूरी ठाकुर बिहार के तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके थे। ईमानदारी और सादगी में उनको कोई जवाब नहीं था। सभी दलों के नेता उनकी इज्जत करते थे। कर्पूरी ठाकुर का नीतीश पर विशेष स्नेह था। वे नीतीश की प्रतिभा और उनकी खुद्दारी से बहुत प्रभावित थे। नीतीश पटना जाते तो कर्पूरी ठाकुर से भी मिलते। उस समय कर्पूरी ठाकुर लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। नीतीश की तंगहाली देख कर एक दिन कर्पूरी ठाकुर ने उनसे कहा कि अगर वे कहें तो उनको बिहार बिजली बोर्ड में इंजीनियर की नौकरी दिला सकते हैं। नीतीश ने इस प्रस्ताव को विनम्रता से ठुकरा दिया। उन्होंने कहा, मैं राजनीति में कुछ करने के लिए आया हूं। नौकरी करनी होती को कब का कर लिया होता। आप ने इतना स्नेह दिखाया, इसके लिए धन्यवाद।
बहनोई, पत्नी और दोस्त ने दिया सहारा
नीतीश ने नौकरी तो नहीं की लेकिन उनको इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ा। वे बहुत दिनों तक तंगी में रहे। उनके बहनोई देवेन्द्र सिंह रेलव में मुलाजिम थे। नीतीश के एक इंजीनियर दोस्त नरेन्द्र सिंह ठेकेदार बन गये थे। बहुत जरूरी होने पर नीतीश इन्हीं दो लोगों से मदद लिया करते थे। 1980 का चुनाव हार जाने के बाद उनकी आर्थिक परेशानी और बढ़ गयी। नीतीश हिम्मत हारने लगे। लेकिन राजनीति में कुछ करने के जज्बे ने उनको फिर चुनाव लड़ने के लिए उकसाया। 1985 के विधानसभा चुनाव में लोकदल ने उन्हें फिर हरनौत से टिकट दिया। नीतीश के पास चुनाव लड़ने के लिए पैसा नहीं था। तब पार्टी की तरफ से उन्हें एक लाख रुपये और एक पुरानी जीप मिली। इस मुश्किल वक्त में पत्नी मंजू सिन्हा ने भी मदद की। वे सरकारी स्कूल में शिक्षक थीं। उन्होंने भी 20 हजार रुपये दिये। इन सीमित संसाधनों के साथ नीतीश चुनाव मैदान में उतरे। आखिरकार तीसरी बार किस्मत मेहरबान हुई। नीतीश 50 हजार से अधिक वोटों से चुनाव जीत गये। बहुत संघर्ष के बाद नीतीश को राजनीति में कामयाबी मिली।
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