कैफ़ी आज़मी ने जब एक हसीना के लिए तोड़ी सगाई
मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की आज 101वीं जयंती है. इस मौक़े पर गूगल भी कैफ़ी आज़मी की जयंती मना रहा है. पेश है हमारी ख़ास पेशकश. साल था 1947. भारत की आज़ादी का साल. हैदराबाद के एक मुशायरे में जब कैफ़ी आज़मी अपनी एक नज़्म सुना रहे थे तो उसे सुनाने के उनके अंदाज़ ने एक हसीना को किसी और के साथ अपनी मंगनी तोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था.
मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की आज 101वीं जयंती है. इस मौक़े पर गूगल भी कैफ़ी आज़मी की जयंती मना रहा है. पेश है हमारी ख़ास पेशकश.
साल था 1947. भारत की आज़ादी का साल.
हैदराबाद के एक मुशायरे में जब कैफ़ी आज़मी अपनी एक नज़्म सुना रहे थे तो उसे सुनाने के उनके अंदाज़ ने एक हसीना को किसी और के साथ अपनी मंगनी तोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था.
उस हसीना ने उस रोज़ सफ़ेद हैंडलूम का कुर्ता, सफ़ेद सलवार और इंद्रधनुषी रंग का दुपट्टा पहन रखा था. लंबे क़द के दुबले पतले, पुरकशिश नौजवान अतहर अली रिज़वी उर्फ़ कैफ़ी आज़मी ने उस दिन अपनी घनगरज आवाज़ में जो नज़्म सुनवाई थी, उसका शीर्षक था 'ताज'.
बाद में वो हसीना शौकत उनकी पत्नी बनी. शौकत आज़मी ने उस मुशायरे को याद करते हुए बीबीसी को बताया, "मुशायरा ख़त्म हुआ तो लोगों की भीड़ कैफ़ी, अली सरदार जाफ़री और मजरूह सुल्तानपुरी की तरफ़ ऑटोग्राफ़ बुक ले कर लपकी."
उन्होंने कहा, 'कैफ़ी पर कॉलेज की लड़कियाँ मधुमक्खियों की तरह झुकी जा रही थीं. मैंने कैफ़ी पर उड़ती हुई नज़र डाली और सरदार जाफ़री की तरफ़ मुड़ गई. जब भीड़भाड़ कम हो गई तो मैंने बहुत अदा से अपनी ऑटोग्राफ़ बुक कैफ़ी की तरफ़ बढ़ा दी. उन्होंने उस पर बहुत ही मामूली सा शेर लिख दिया. बाद में जब मुझे मौक़ा मिला तो मैंने उनसे पूछा कि आपने इतना ख़राब शेर मेरी किताब पर क्यों लिखा?"
वो बताती हैं, "कैफ़ी मुस्कुरा कर बोले, आपने पहले जाफ़री साहब से ऑटोग्राफ़ क्यों लिया? मैं खिलखिला कर हंस दी और यहीं से हमारे इश्क की शुरुआत हुई."
उठ मिरी जान
उसी दौरान कैफ़ी ने एक और महफ़िल में कांपते हाथों से अपनी सिगरेट जलाई, बाल पीछे किए और अपनी मशहूर नज़्म 'औरत' शुरू की-
क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझमें शोले भी हैं बस अश्कफ़िसानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तिरी हस्ती भी है एक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीक़ का उन्वान बदलना है तुझे
उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है मुझे
इस नज़्म को सुनने के बाद ही शौकत ने अपने वालिद से कहा कि वो अगर शादी करेंगी तो सिर्फ़ कैफ़ी से ही. तब तक उनकी मंगनी उनके मामूज़ाद भाई उस्मान से हो चुकी थी. जब उस लड़के को ये पता चला तो उसने उनके अब्बू के रिवॉल्वर से ख़ुदकुशी करने की कोशिश की.
शौक़त कैफ़ी बताती हैं कि "मेरे पिता बहुत समझदार और तरक़्क़ी पसंद आदमी थे. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तुम्हे बंबई ले कर जाउंगा. वहाँ तुम देखना कि कैफ़ी किस तरह की ज़िंदगी जी रहे हैं. तब तुम आख़िरी फ़ैसला करना. वहाँ कैफ़ी से मिलने के बाद अब्बाजान मुझे चौपाटी पर घुमाने के लिए ले गये. वहाँ पर उन्होंने मेरी राय पूछी. मैंने उनकी आँखों में देख कर कहा कि अगर कैफ़ी मिट्टी भी उठाएंगे और मज़दूरी भी कर रहे होंगे, तो भी मैं उनके साथ मज़दूरी करूंगी और शादी उन्हीं से करूंगी."
अगले ही दिन उन दोनों का निकाह हो गया. उस निकाह में जोश मलीहाबादी, मजाज़, साहिर, सिकंदर अली वज्द से ले कर बंबई रेडियो स्टेशन के स्टेशन डायरेक्टर ज़ुल्फ़िकार बुख़ारी और कृश्न चंदर भी शामिल हुए.
देर रात तालियों की आवाज़
कैफ़ी और शौक़त की बेटी शबाना आज़मी अभी भी वो दिन भूली नहीं हैं जब वो अपने वालिद के साथ मुशाएरों में जाया करती थीं.
शबाना बताती हैं, "दरअसल मेरी माँ थियेटर में काम करती थीं और उन्हें अक्सर दूसरे शहरों में जाना पड़ता था. तब अब्बा ही हमारी देखभाल करते थे. घर में पैसे तो बिल्कुल नहीं थे, इसलिए हम लोग मेड रखना अफ़ोर्ड नहीं कर सकते थे. अब्बा हम दोनों को अपने साथ मुशायरों में ले कर जाते थे. मुझे अच्छी तरह याद हैं कि हमें स्टेज पर ही गाव तकियों (मसनद) के पीछे सुला दिया जाता था."
वो कहती हैं, "जब देर रात ज़ोर से तालियों की आवाज़ गूंजती थी, तो हमें पता चल जाता था कि अब्बा का नाम अनाउंस किया जा रहा है. हम जाग कर उनका कलाम सुना करते थे. वो हमेशा मुशायरे के आख़िर में ही पढ़ते थे."
ग़ज़ब की आवाज़
शायरी किताबों में पढ़ी तो जाती ही है, लेकिन सुनी भी जाती है. लिखने की तरह इसकी अदायगी भी एक कला है और कहना न होगा कि कैफ़ी इस कला के माहिर थे.
मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली ने एक बार बीबीसी को बताया था, "उस ज़माने में हिंदी में सबसे प्रभावशाली कविता-पाठ शिवमंगल सिंह सुमन का हुआ करता था. उनमें श्रोताओं को बांध लेने की गज़ब की क्षमता थी. लेकिन उर्दू में उनकी टक्कर का सिर्फ़ एक ही शायर था और उसका नाम था कैफ़ी आज़मी."
उन्होंने कहा, "कैफ़ी जब स्टेज पर आते थे तो उनकी आवाज़, उनके हावभाव और उनकी प्रस्तुति अच्छी होती थी कि उनके सामने ऊँची से ऊँची आवाज़ में शेर सुनाने वाले पानी मांगते थे."
कैफ़ी आज़मी से सुनिए उनकी नज़्में
सरोजिनी नायडू की सीख
शुरू में कैफ़ी अपने शेर तरन्नुम में पढ़ा करते थे. लेकिन एक बार सरोजिनी नायडू से मुलाक़ात के बाद उन्होंने गा कर शेर कहना बंद कर दिया.
निदा फ़ाज़ली कहते हैं, "एक बार जब कैफ़ी आज़मी और अली सरदार जाफ़री सरोजिनी नायडू मे मिलने गए, तो उन्होंने उनसे कुछ सुनाने के लिए कहा. जब इन्होंने अपनी ग़ज़ल गा कर सुनाई तो सरोजिनी नायडू बोलीं, ख़ुदा के लिए आइंदा से मुझे ही नहीं किसी को भी गा कर अपने शेर मत सुनाना."
वो कहते हैं, "वो दिन था, उसके बाद से कैफ़ी और अली सरदार जाफ़री ने हमेशा अपने शेरों को पढ़ा है, गाया नहीं और उसी के बल पर अपने चाहने वालों के दिल में जगह बनाई है."
गाँव में न बिजली और न पानी
शादी होने के बाद कैफ़ी अपनी पत्नी शौक़त को पहली बार अपने गाँव मिजवाँ ले कर गए, जहाँ उनके घर में न तो बिजली थी और न ही पानी.
शौक़त याद करती हैं, "वहाँ बहुत गर्मी होती थी. छत पर हाथ से खींचने वाला एक पंखा लगा रहता था. एक पलंग पर मैं और मेरा बच्चा दोपहर में सो जाते थे. कैफ़ी मेज़ पर झुके हुए नज़्में लिखने मे मसरूफ़ रहते. नज़्में 'टेलीफ़ोन' और 'तेलंगाना' वहीं लिखीं. उस दौरान वो पैर में डोरी बाँध कर उसे खींचते रहते और हमें हवा मिलती रहती. घर के लड़के कैफ़ी का बहुत मज़ाक उड़ाते और डोरी खींचने की नकल कर उन्हें सताते रहते."
कैसे हुआ शबाना का स्कूल में दाख़िला?
कैफ़ी हमेशा कुर्ता पायजामा पहनते थे. जब एक कॉन्वेंट स्कूल में उनकी बेटी शबाना के दाख़िले की बात आई तो वो उस स्कूल में नहीं जा पाए, क्योंकि उन्हें अंग्रेज़ी बोलनी नहीं आती थी.
शबाना आज़मी याद करती हैं, "बंबई के क्वीन मैरी स्कूल में अगर माँ बाप को अंग्रेज़ी नहीं आती थी, तो वो बच्चे को दाख़िला नहीं देते थे. उन दिनों सुल्ताना जाफ़री इंस्पेक्ट्रेस ऑफ़ स्कूल थीं. वो उस स्कूल में मेरी माँ यानी शौक़त कैफ़ी बन कर गईं और मुनीश नारायण सक्सेना जो कैफ़ी साहब के बहुत अच्छे दोस्त थे, मेरे वालिद बन कर गए. चूँकि ये दोनों अंग्रेज़ी बोल सकते थे, इसलिए वहाँ मेरा दाख़िला हो गया."
शबाना ने कहा, "उसके कई साल बाद मेरी हिंदी की टीचर ने मुझसे कहा कि जो 'पेरेंट्स डे' पर यहाँ आते हैं, उनकी शक्ल तो उनसे नहीं मिलती, जिनको मैंने कल मुशाएरे में अपना कलाम पढ़ते हुए देखा था. मैं ये सुन कर डर के मारे नीली पड़ गई और मैंने एक कहानी गढ़ दी कि मेरे वालिद को टायफ़ाइड हो गया था, जिसकी वजह से वो कमज़ोर हो गए हैं, इसलिए आप उनको पहचान नहीं सकीं."
दो पैसे गिलास पानी
अक्सर कैफ़ी और शौक़त पैदल ही चलते हुए भुट्टे खाते हुए चौपाटी की तरफ़ निकल जाते थे. एक रविवार को कैफ़ी का जी चाहा कि पिक्चर देखी जाए. उन्होंने शौकत से अपनी ख़्वाहिश ज़ाहिर की और वो पिक्चर जाने के लिए तैयार हो गए.
शौक़त कैफ़ी याद करती हैं, "उस वक्त कैफ़ी की जेब में सिर्फ़ ढाई रुपये थे. रॉक्सी सिनेमा हॉल में चेतन आनंद की फ़िल्म सफ़र चल रही थी. हम लोगों ने सवा-सवा रुपये में दो टिकट ले कर पिक्चर देखी. इंटरवेल में मुझे प्यास लगने लगी. मैंने कैफ़ी से पानी के लिए कहा. उस ज़माने में तमाम नल दोपहर में बंद रहा करते थे."
वो बताती हैं, "रॉक्सी के नुक्कड़ पर एक बुढ़िया मटके में पानी ले कर दो पैसे गिलास बेचती थी. हमारे पास और पैसे तो थे नहीं. कैफ़ी ने कहा जाओ उस बुढ़िया से पानी ले कर पी लो. जब पैसे मांगे तो कह देना कि मेरे पति वहाँ हैं. मैं अभी उनसे पैसे ले कर आती हूँ और भाग आना."
उन्होंने कहा, "मैंने वैसा ही किया और भाग आई. बाद में जब कभी वहाँ से हमारा गुज़रना होता तो कैफ़ी मुझे चिढ़ाते कि वो देखो, वो बुढ़िया अपने दो पैसों की ख़ातिर तुम्हारा इंतज़ार कर रही है."
मॉन्ट-ब्ला पेन के शौकीन
कैफ़ी को कीमती चीज़ों से कोई लगाव नहीं था, लेकिन वो हमेशा अपना लेखन मंहगे मॉन्ट- ब्लाँ पेन से किया करते थे.
शबाना आज़मी बताती हैं, "उनके पास उनकी कोई निजी चीज़ नहीं थी. लेकिन एक चीज़ जिसका उनको बाक़ायदा लालच था, वो था मॉन्ट- ब्लाँ पेन. जब भी मैं बाहर जाती थी, उनके लिए वो कलम ज़रूर लाती थी. एक बार मेरी एक दोस्त ने जब मुझे एक मॉन्ट- ब्लाँ पेन भेंट किया तो उन्होंने उस एक बहुत अच्छा ख़त लिख कर कहा कि वो पेन मेरी बेटी के बजाए, मेरे पास ज़्यादा महफ़ूज़ रहेगा."
वो कहती हैं, "वो हमेशा ब्लू- ब्लैक इंक से लिखते थे और अपनों कलमों की बहुत देखभाल करते थे. न्यूयॉर्क में एक कलमों का अस्पताल है. वहाँ उनके कलम 'मेनटेनेंस' के लिए भेजे जाते थे."
शबाना केलिए लाए समोसा
कैफ़ी को डॉक्टर हमेशा ठंडी चीज़ें खाने या पीने के लिए मना करते थे, लेकिन वो हमेशा ठंडा पानी ही पीते थे. 14 जनवरी, 2002 को शबाना कैफ़ी की सालगिरह मनाने उनके पुश्तैनी गाँव मिजवाँ गईं.
शौक़त बताती हैं, "उनसे मिलने के लिए पूरे गाँव के लोगों का ताँता लग गया. दोपहर चार बजे कैफ़ी ने किसी तरह खुद को बिस्तर से उठाया और मुझसे कहा, मुझे कुछ पैसे दे दो. मैंने पूछा, किसलिए? बोले, बहस मत करो, दे दो. मैंने सौ रुपये उनके हाथ में रख दिए. वो हमारे ड्राइवर गोपाल के साथ गाड़ी में बैठ कर बाहर निकल गए."
वो कहती हैं, "एक घंटे के बाद वो वापस आए. शबाना को अपने कमरे में बुलाया और बोले, सुबह में मेरे गाँव वाले मेरी चिड़िया का भेजा चाट रहे हैं. देखों मैं तुम्हारी पसंद के समोसे बनवा कर लाया हूँ. गर्म- गर्म हैं, इन्हें खा लो. ख़ुशी- ख़ुशी शबाना समोसे चट कर गईं. शायद एक-आध कैफ़ी के मुंह में भी डाल दिया. यह आख़िरी बार था, कि कैफ़ी अपने बिस्तर से खुद उठ कर कहीं बाहर गए हों."
बीस साल तक फ़ालिज के मरीज़
शौक़त मानती हैं कि उन्होंने कैफ़ी जैसा बुलंद- ख्याल, औरत-मर्द में न फ़र्क करने वाला और अपनी बीबी का सम्मान करने वाला शख़्स अपनी ज़िंदगी में नहीं देखा.
वो कहती हैं, "उन्होंने कभी आप के सिवा मुझे तुम भी नहीं कहा. वो बीस साल फ़ालिज गिरने (लकवा होने) के बाद ज़िंदा रहे. मैं हमेशा उनकी आँखों को पढ़ती थी और हर वो काम करती थी, जिसे कैफ़ी चाहते थे. उनका बांया हाथ बेकार हो चुका था. वो पायजामा भी बाँध नहीं सकते थे और न ही ख़ुद से नहा सकते थे. उनको नहलाना, उनके कपड़े इस्त्री करना, उनके साथ टहलना- ये सब काम मैं करती थी. उनके जैसे चरित्र का आदमी मेरे सामने से आज तक नहीं गुज़रा."
अजीब आदमी था वो
कैफ़ी अपने दुखों की मुंडेरों में घिर कर नहीं रह जाते, बल्कि अपने दुख को दुनिया के तमाम लोगों से जोड़ लेते हैं.
फिर उनकी बात दुनिया के सिर्फ़ एक इंसान के दिल की बात नहीं, बल्कि दुनिया के सारे इंसानों के दिल की बात हो जाती है और आप महसूस करते हैं कि उनकी शायरी में सिर्फ़ उनका नहीं, हमारा, आपका, सब का दिल धड़क रहा है.
उनके दामाद और जाने-माने शायर जावेद अख़्तर ने उनके बारे में सही ही लिखा है-
अजीब आदमी था वो
मोहब्बतों का गीत था बग़ावतों का राग था
कभी वो सिर्फ़ फूल था कभी वो सिर्फ़ आग था
वो मुफ़लिसों से कहता था
कि दिन बदल भी सकते हैं वो जाबिरों से कहता था
तुम्हारे सिर पे सोने के जो ताज हैं
कभी पिघल भी सकते हैं
अजीब आदमी था वो