पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसलिए फ्लॉप साबित होंगे ज्योतिरादित्य सिंधिया, 8 वजह
नई दिल्ली। कांग्रेस ने बुधवार को उत्तर प्रदेश में दो अपने दो अहम नेताओं को चुनाव का प्रभार सौपा हैं। पूर्व में प्रियंका गांधी और पश्चिम यूपी में ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव प्रभारी बनाया गया है। ज्योतिरादित्य मध्य प्रदेश में कांग्रेस का एक बड़ा चेहरा हैं। हाल में मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत में उनकी अहम भूमिका रही। मुख्यमंत्री के लिए भी वो दौड़ में थे लेकिन यूपी में हालात अलहदा हैं। खासतौर से पश्चिम यूपी में कांग्रेस को जीत दिलाना या फिर मुख्य लड़ाई में लाना भी सिंधिया के लिए कतई आसान नहीं होने जा रहा है। ऐसा हम क्यों कह रहे है इसके पीछे कुछ माकूल वजह हैं।
सिंधिया और प्रियंका में बड़ा फर्क
पूर्वी यूपी का प्रभारी प्रियंका गांधी को बनाया गया है। प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश के लिए नयी नहीं हैं। अमेठी, रायबरेली में वो लगातार चुनाव प्रचार के लिए जाती ही हैं। आसपास के इलाकों में भी उनका असर रहा है। वो यहां संगठन के पदाधिकारियों से भी मिलती रही हैं तो कई बार 'प्रियंका लाओ, यूपी बचाओ' जैसे नारे लिखे पोस्टर भी यूपी में दिखे हैं। ऐसे में चुनाव में उनकी सक्रियता का फायदा कांग्रेस को मिलेगा। ऐसा कोई असर सिंधिया का पश्चिमी यूपी में नहीं है। ना तो उनकी कोई जान-पहचान यहां पार्टी के नेताओं से है और ना ही उन्हें इससे पहले इस इलाके में काम करने का कोई अनुभव। वहीं पश्चिम उत्तर प्रदेश में उनके चेहरे से कांग्रेस को कोई फायदा मिलेगा, ऐसा भी नहीं है। इसलिए सिंधिया कैसे पार्टी के चुनाव की कमान संभालेगे ये देखने वाली बात होगी।
ना कोई बड़ा चेहरा, ना संगठन मजबूत
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की जमीन पर सच्चाई ये है कि ना उसके पास कोई बड़ा चेहरा है, जिस पर वोट मिल सके और ना ही संगठन के तौर पर पार्टी मजबूत है। राजबब्बर जरूर मशहूर हैं लेकिन उनकी पहचान भी आगरा का होने की वजह से कम और फिल्म स्टार की ही ज्यादा है। 2014 के चुनाव में सहारनपुर लोकसभा सीट को छोड़ दिया जाए तो कहीं भी कांग्रेस मुख्य लड़ाई तक में नहीं दिखी, उसे पूरे उत्तर प्रदेश में उसे साढ़े सात फीसदी वोट ही मिले। सपा-बसपा गठबंधन के बाद सहारनपुर सीट से मायावती के चुनाव लड़ने की चर्चा है। ऐसा हुआ तो इस सीट पर भी कांग्रेस के लिए कोई गुंजाइश नहीं रहेगी। ऐसे में पूरे पश्चिम यूपी में उसके लिए चुनाव और मुश्किल हो जाएगा और सिंधिया की चुनौती बढ़ेगी।
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चुनाव में वक्त कम, काम ज्यादा
लोकसभा चुनाव में महज दो से तीन महीने का वक्त है। ऐसे में दूसरे प्रदेश से जाकर सिंधिया के लिए कांग्रेस में जान फूंकना आसान नहीं होगा। सहारनपुर से इमरान मसूद को छोड़ दिया जाए तो मुजफ्फरनगर, मेरठ, कैराना, बिजनौर, रामपुर, संभल, अमरोहा, गौतमबुद्धनगर, मुरादाबाद, अलीगढ़, आगरा और दूसरी ज्यादातर सीटों पर कांग्रेस के पास कोई जिताऊ कैंडिडेट तक कांग्रेस के पास नजर नहीं आ रहा है। ज्यादातर सीटों पर पुराने चेहरे हैं, जिनके नाम के साथ पूर्व सांसद और पूर्व मंत्री तो लगा है लेकिन आज के वक्त में वो अपना कोई खास प्रभाव नहीं रखते। हकीकत ये है कि नए लीडर कांग्रेस से हाल के दिनों में जुड़ते नहीं दिखे हैं।
2009 में कांग्रेस का माहौल होते हुए भी पश्चिम में कामयाब नहीं हुई थी पार्टी
कांग्रेस ने 2009 के इलेक्शन में यूपी में सबको चौंका दिया था। तब पार्टी ने उत्तर प्रदेश की 80 में से 21 सीटें जीती थीं। यहां ये भी ध्यान देने वाली बात है कि 2009 में कांग्रेस के पक्ष में माहौल था। 1984 के बाद 2009 का चुनाव कांग्रेस के लिए सबसे बेहतर रहा है। इस चुनाव में उसने 206 सीटें जीतीं। इतना होते हुए भी पश्चिमी यूपी में पार्टी कोई खास कमाल नहीं कर सकी थी। मुरादाबाद से अजहरुद्दीन की जीत को छोड़ दें (जिन्हें मशहूर क्रिकेटर होने का फायदा मिला) तो वेस्ट में तब सपा और बसपा ही मजबूत रहीं। ऐसे में अब जबकि सपा और बसपा गठबंधन कर लड़ रहे हैं और भाजपा ने 2014 में पश्चिम उत्तर प्रदेश की सभी सीटों पर क्लीन स्वीप किया है तो जाहिर है सिंधिया के लिए लड़ाई आसान नहीं है।
स्थानीय नेतृत्व की कमी
जैसा कि हमने पहले भी जिक्र किया कि नेतृत्व की कमी कांग्रेस की बड़ी परेशानी है। ज्यादातर सीटों पर वही सालों पुराने चेहरे हैं तो अब वोटों को आकर्षित नहीं कर पा रहे। जैसे- मुजफ्फरनगर सीट की बात की जाए तो पीर्व मंत्री सइदुज्जमा, सोमांश प्रकाश और हरेंद्र मलिक जैसे चेहरों पर घूम-फिरकर पार्टी आ जाती है। सहारनपुर में इमरान मसूद केअलावा कोई चेहरा कांग्रेस में नहीं दिखता। मेरठ में लंबे समय से पार्टी को एक भरोसेमंद चेहरा ही नहीं मिल पा रहा। रामपुर में अभी भी पार्टी वापस मुड़कर बेगम नूरबानो की तरफ देखती है। कैराना, बागपत, अलीगढ़,आगरा समेत ये किस्सा ज्यादातर सीटों का है।
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लगातार कमजोर हो रही है कांग्रेस
2009 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को उम्मीद से ज्यादा वोट मिले लेकिन इसके बाद पार्टी लगातार कमजोर ही हो रही है। 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी केंद्र में सरकार होते हुए भी महज 28 सीटें जीत पाई और उसे 11 फीसदी से कुछ ज्यादा वोट मिले। पश्चिम की बात की जाए तो सहारनपुर की विधानसभा सीटों को छोड़कर वेस्ट में कहीं कांग्रेस कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ पाई। 2014 में लोकसभा में उसे पश्चिम में कोई सीट नहीं मिली। उसे उत्तर प्रदेश में महज साढ़े सात फीसीदी वोट मिले। 2017 के विधानसभा चुनाव में सहारनपुर की एक विधानसभा सीट पर कांग्रेस की जीत छोड़ दें तो वो पूरे पश्चिम में मुश्किल से ही किसी सीट पर पार्टी लड़ती दिखी। उसका मत प्रतिशत भी घटकर छह तक आ गया है।
कांग्रेस के पास सहयोगी भी नहीं
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने बीता लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन कर लड़ा था। चौधरी चरण सिंह के बेटे अजित के नेतृत्व वाली रालोद का पश्चिमी यूपी की एक दर्जन सीटों पर असर माना जाता है। खासतौर से खेती से जुड़े लोग, जाट और मुसलमानों को रालोद का वोटबैंक माना जाता है। रालोद के साथ होते हुए कांग्रेस पश्चिमी यूपी में कोई सीट नहीं जीत सकी थी, इस बार रालोद ने सपा और बसपा के साथ जाने का फैसला किया है। ऐसे में कांग्रेस के लिए अकेले चलना और मुश्किल हो सकता है।
इलेक्शन भाजपा बनाम गठबंधन हुआ तो होगा नुकसान
हाल के कुछ चुनावों से विधानसभा चुनाव हों या लोकसभा का चुनाव हो अमूमन दो पार्टियों के बीच होता दिखा है। देखने को मिल रहा है कि तीन या चार कैंडिडेट में मुकाबला नहीं होता बल्कि दो लोगों को बीच चुनाव रहता है। मतदाता जिन दो के बीच टक्कर हो, उसी में से एक को चुन रहा है। भाजपा लगातार मोदी के सामने कौन की बात कर रही है। उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने बड़ी चुनौती सपा-बसपा गठबंधन ही हैं। ऐसे में अगर प्रदेश में चुनाव का माहौल भाजपा बनाम गठबंधन का बना तो हो सकता है कि कांग्रेस के कई बेहतर कैंडिडेट इसलिए पिछड़ जाएं क्योंकि मतदाता ये माने कि वो मुकाबले में नहीं है तो वोट क्यों दी जाए।
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