जोश मलीहाबादी, जिन्होंने ग़लत उर्दू के लिए बड़े-बड़ों को नहीं बख्शा
जोश मलीहाबादी को क्रांति का शायर कहा जाता था.
जहाँ एक ओर वो रिवाज़ तोड़ने वाले बाग़ी थे तो दूसरी ओर सामाजिक न्याय के पक्ष में आवाज़ उठाने वाले शायर भी.
उन्होंने हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई अपनी क़लम से लड़ी.
लेकिन कुछ चीजों को लेकर वो बड़े पाबंद थे, ख़ासकर उर्दू लिखने और बोलने के तरीके को लेकर. उर्दू शब्दों का ग़लत उच्चारण करने पर उन्होंने बड़े-बड़ों को नहीं बख़्शा.
जोश मलीहाबादी को क्रांति का शायर कहा जाता था.
जहाँ एक ओर वो रिवाज़ तोड़ने वाले बाग़ी थे तो दूसरी ओर सामाजिक न्याय के पक्ष में आवाज़ उठाने वाले शायर भी.
उन्होंने हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई अपनी क़लम से लड़ी.
लेकिन कुछ चीजों को लेकर वो बड़े पाबंद थे, ख़ासकर उर्दू लिखने और बोलने के तरीके को लेकर. उर्दू शब्दों का ग़लत उच्चारण करने पर उन्होंने बड़े-बड़ों को नहीं बख़्शा.
भारत से पाकिस्तान जा बसने के बाद जोश मलीहाबादी तीन बार भारत आए थे.
एक बार मौलाना आज़ाद की मौत पर, दूसरी बार जवाहरलाल नेहरू के मरने पर और तीसरी बार 1967 में. तीसरी बार वो पुरानी दिल्ली के आज़ाद हिंद होटल में ठहरे थे.
उन्होंने दो कमरे लिए थे. एक कमरे में वो और उनके भाई रह रहे थे और दूसरा कमरा उनकी पत्नी के हवाले था.
उसी होटल में उनके बग़ल के कमरे में उन दिनों स्टेट्समैन के रिपोर्टर और बाद में उसके समाचार संपादक बने आरवी स्मिथ भी रह रहे थे.
जोश की ज़िंदगी
स्मिथ याद करते हैं, "सूरज ढलते ही जोश स्कॉच पीना शुरू करते थे. उनके लिए दरियागंज के मोतीमहल रेस्तराँ के मालिक खाना भिजवाते थे- मुर्ग़, नान, बिरयानी और कबाब. वो जल्दी सोने जाते थे, लेकिन सुबह चार बजे उठ कर लिखना शुरू कर देते थे और साढ़े छह बजे तक लिखते रहते थे."
स्मिथ कहते हैं, "फिर वो करीम से नहारी मंगवा कर खाते थे. इसके बाद वो नहा धो कर अपने दोस्त अहबाबों से मिलने जाते थे. दो या तीन बार वो इंदिरा गांधी से मिलने गए और हर बार उन्होंने वापस आ कर उनकी तारीफ़ की."
स्मिथ ने बताया, "एक शाम वो अकेले बैठे लोगों को पतंग उड़ाते देख रहे थे. उन्होंने मुझे बुलाया और पूछा, मेरे दोस्त तुम क्या करते हो? मैंने कहा मैं एक पत्रकार हूँ. उन्होंने पूछा किस रिसाले के लिए लिखते हो? मैंने कहा स्टेट्समैन."
स्मिथ बताते हैं, "यह सुनते ही वो दहाड़े, ये तो अंग्रेज़ी का अख़बार है. एक ज़माने में यहाँ सिर्फ़ अंग्रेज़ काम किया करते थे. ये बताओ तुम पढ़ते क्या हो और लिखते क्या हो? क्योंकि आजकल तो नौजवानों का अच्छे पढ़ने लिखने से कोई वास्ता ही नहीं है."
उनत्तीस और उनतीस का फ़र्क
स्मिथ याद करते हैं कि जब मैंने देखा कि जोश बात करने के मूड में हैं तो मैंने उनका इंटरव्यू लेना शुरू कर दिया. मैंने उनसे पूछा कि आजकल की उर्दू शायरी के बारे में आपकी क्या राय है. जोश बोले, "पाकिस्तान में तो वो मर रही है, लेकिन कम से कम भारत में उससे दिखावटी इश्क किया जा रहा है."
स्मिथ साहब को याद है कि उस होटल के मालिक को भी शायरी का छोटामोटा शौक़ था. जोश ने उनसे सवाल किया कि आप कब से शायरी कर रहे हैं. उनका जवाब था उनत्तीस सालों से. जोश ने फ़ौरन उन्हें सही करते हुए कहा था, "सही लफ़्ज़ है उनतीस यानी एक कम तीस."
जोश के पोते फ़र्रुख़ जमाल लिखते हैं कि एक बार पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खाँ ने उन्हें ख़ुश करने के लिए कहा कि आप बहुत बड़े आलम हैं. जोश ने फ़ौरन जवाब दिया सही लफ़्ज़ आलिम है न कि आलम. इस पर अयूब नाराज़ हो गए और उन्होंने आदेश दिया कि जोश को दी गई सीमेंट एजेंसी उनसे वापस ले ली जाए और ऐसा ही हुआ.
जोश का इंटरव्यू
भाषा को लेकर उनकी सनक इस हद तक थी कि एक बार उन्होंने सरेआम साहिर लुधियानवी को उनकी मशहूर नज़्म 'ताजमहल' में एक शब्द ग़लत उच्चारित करने के लिए टोका था. जवाहरलाल नेहरू को जब उन्होंने अपनी एक किताब दी तो उन्होंने कहा,"मैं आपका मशकूर हूँ." जोश ने उन्हें फ़ौरन टोका, "आपको कहना चाहिए था शाकिर हूँ."
जोश अपनी आत्मकथा 'यादों की बारात' में लिखते हैं कि 1948 में उन्होंने सब्ज़ियाँ बेचने का ख़्याल छोड़ कर दिल्ली आने का फ़ैसला किया. वो सीधे जवाहरलाल नेहरू से मिलने गए. नेहरू ने उनसे कहा कि वो सूचना मंत्रालय में सचिव अज़ीम हुसैन से मिल लें. अजीम हुसैन ने 'आजकल' पत्रिका के संपादक की नौकरी के लिए मुझे एक इंटरव्यू में बुलाया. जब मैं वहाँ पहुंचा तो देखा कि वहाँ बहुत सारे लोग इंटरव्यू देने आए हैं.
जोश लिखते हैं, "जब मैं कमरे में घुसा तो देखा कि वहाँ अज़ीम हुसैन और अजमल खाँ के अलावा पाँच और लोग मेरा इंटरव्यू लेने बैठे हैं. मैंने अपने आप को सहज करने के लिए अपना पानदान निकाला. तभी वहाँ एक मदरासी से दिखने वाले शख़्स ने अंग्रेज़ी में कहा कि आप यहाँ पान नहीं खा सकते."
मैंने जवाब दिया, "हम एक आज़ाद मुल्क में रह रहे हैं और आपके लिए अब भी अंग्रेज़ों के बनाए तौर तरीक़े मायने रखते हैं. पान खाना मेरे लिए साँस लेने जैसा है. अगर आप को ये मंज़ूर नहीं है तो मैं चला जाता हूँ."
मैं ऐसा करने ही वाला था कि अज़ीम हुसैन और अजमल खाँ ने हस्तक्षेप किया और कहा कि आप पान खा सकते हैं. फिर अजमल खाँ बोले जोश मलीहाबादी का क्या इंटरव्यू लिया जाए! चलिए आप निज़ाम के ख़िलाफ़ लिखी गई अपनी नज़्म ही सुना दीजिए.
मैंने जवाब दिया, "इससे फ़ायदा क्या. मेरी नज़्म का उन लोगों के लिए कोई मतलब नहीं जो अब भी अंग्रेज़ों के बनाए तौर तरीक़ों से चलते हैं." इस पर वो सब एक स्वर में बोले, "आप अपनी नज़्म कहिए. हम सब आप के प्रशंसक हैं."
"मैंने नज़्म पढ़ी और उसके बाद इंटरव्यू आगे बढ़ने का कोई सवाल ही नहीं था."
फ़िराक़ के गुरु
जोश फ़िराक़ गोरखपुरी से एक साल छोटे थे, लेकिन तब भी फ़िराक उन्हें अपना गुरु मानते थे. फ़िराक़ ने एक बार एक टेलिविजन इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि उन्हें अपनी ग़ज़ल पूरी करने के लिए एक शब्द नहीं मिल रहा था. वो बहुत झिझकते हुए जोश के पास गए थे. जोश के मुंह से वो शब्द एक रत्न की तरह बाहर आया था.
एक बार जोश मलीहाबादी पाकिस्तान में मशहूर आर्टिस्ट ज़िया मोहिउद्दीन और कराची के जल विभाग के प्रमुख के साथ एक टीवी शो कर रहे थे. ज़िया ने उनसे सवाल किया, "जोश साहब, आपके इलाक़े में पानी की तो कोई समस्या नहीं है?
जोश बोले, "भाई पानी तो कभी-कभी आता है, लेकिन बिल बाक़ाएदगी से हर माह की पहली को आ जाता है. उस्मान साहब (बिजली विभाग के प्रमुख) का बस चले तो करबला में इमाम हुसैन को भी पानी का बिल दे देते." जमात-ए-इस्लामी के अमीर मौलाना मौदूदी से उनके धार्मिक मतभेद थे, लेकिन इसके बावजूद वो उन्हें अपना दोस्त मानते थे.
एक बार जोश अस्पताल में चेकअप के लिए जा रहे थे तो अस्पताल के गेट पर उन्हें मौदूदी मिल गए. उन्होंने मौलाना से पूछा, "आप यहाँ किसलिए?" मौलाना ने कहा, "गुर्दे में पथरी आ गई है, उसी का इलाज कराने आया हूँ." जोश का जवाब था, "मौलाना मेरे ख़्याल से अल्ला मियाँ तुम्हें अंदर से संगसार कर रहा है."
मोतीमहल रेस्तराँ की न्यू ईयर पार्टी
स्मिथ साहब को याद है कि 1968 के नव वर्ष की पूर्व संध्या पर जोश रिक्शे पर बैठकर मोतीमहल रेस्तराँ गए थे. वहाँ पर दिल्ली और आसपास के नामी शायर मौजूद थे. मैकश अकबराबादी ने अपना कलाम सुनाया था.
मैकश का अर्थ होता है पियक्कड़. मज़े की बात थी कि उन्होंने पूरी ज़िंदगी शराब को हाथ तक नहीं लगाया था. थोड़ी देर बार स्कॉच के तीन पैग और तंदूरी मुर्ग़ के बाद जोश ने अपना गला साफ़ किया था.
'जब चीन ने अंगड़ाई ली' सुनाने के बाद उन्होंने अपनी नज़्म का आख़िरी शेर पढ़ा था-
"तोड़ कर तौबा नदामत तो होती है मुझे ऐ जोश
क्या करूँ नीयत बदल जाती है साग़र देख कर."
पाकिस्तान जाने की कहानी
1956 में जोश बिना किसी को बताए पाकिस्तान चले गए. जाने से पहले वो नेहरू से सलाह मांगने गए. नेहरू ने कहा कि ये आपका निजी मामला है, लेकिन आप फिर भी मौलाना आज़ाद से सलाह ले लीजिए.
मौलाना ने कहा कि यूँ तो देशप्रेम की कोई क़ीमत नहीं होती, लेकिन अगर होती भी है तो भी आपको उसकी क़ीमत से कहीं ज़्यादा मिल चुका है.
बहरहाल जोश माने नहीं और पाकिस्तान चले गए. जोश के नज़दीकी गुलज़ार देहलवी इस समय 91 साल के हैं.
वो कहते हैं, "दरअसल जोश पर उनके बेटों का बहुत दबाव था. नेहरू ने उन्हें सलाह दी थी कि वो अपने बेटों को पाकिस्तान भेज दें और ख़ुद यही रहें, लेकिन उनकी पत्नी ने कहा कि वो अपने बेटों और पोतों के बिना यहाँ नहीं रह पाएंगी."
देहलवी के अनुसार, "फिर पाकिस्तान के लोगों ने भी उन्हें सब्ज़बाग दिखाए कि उनके पाकिस्तान पहुंचते ही उन्हें एक हवेली दे दी जाएगी. मौलाना आज़ाद इससे इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने कहा मेरे ज़िंदा रहते तुम भारत में क़दम नहीं रखना और ऐसा ही हुआ. मौलाना आज़ाद की मौत के बाद ही जोश पहली बार भारत वापस आए."
मौलाना आज़ाद से नाराज़गी
एक बार जोश मौलाना आज़ाद से मिलने उनकी कोठी पर पहुंचे. वहाँ मुलाक़ातियों की भीड़ पहले से ही मौजूद थी. काफ़ी देर इंतज़ार के बाद भी जब मुलाक़ात के लिए जोश साहब की बारी नहीं आई तो उन्होंने उकताकर एक चिट पर ये शेर लिख कर चपरासी के हाथ मौलाना की ख़िदमत में भिजवा दिया-
नामुनासिब है ख़ून खौलाना
फिर किसी और वक्त मौलाना.
मौलाना शेर पढ़ कर मुस्कराए और उन्होंने फ़ौरन जोश को अंदर बुलवा लिया.
जोश मलीहाबादी शराब पीते समय सामने टाइमपीस रखते थे और हर तीस मिनट पर एक नया पैग बनाते थे.
एक बार उन्होंने पहला पैग हलक़ में उड़ेलने के बाद अपनी टाइमपीस की तरफ़ इशारा करते हुए मजाज़ से कहा, "देखो मजाज़ मैं कितनी बाक़ाएदगी से शराब पीता हूँ. अगर तुम भी घड़ी सामने रख कर पिया करो तो बदएतियाती से महफ़ूज़ रहोगे."
मजाज़ चहकते हुए बोले, "घड़ी तो क्या जोश साहब! मेरा बस चले तो घड़ा सामने रख कर पिया करूँ."
जब जोश की शेरवानी उतरवाई गई
दिल्ली के मशहूर यूनाइटेड कॉफ़ी हाउस के मालिक प्रेम मोहन कालरा एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाते हैं.
एक बार उनके दोस्तों ने उन्हें यूनाइटेड कॉफ़ी हाउस कॉफ़ी पीने के लिए बुलाया. कॉफ़ी और सैंडविच खाने के बाद जोश शौचालय चले गए. जब वो वापस आए तो उनके सारे दोस्त नदारत हो चुके थे. बैरे ने बिल जोश के सामने पेश किया.
जोश के पास बिल देने लायक पैसे नहीं थे. मैनेजर ने कहा कि इसके एवज़ में आपको अपनी शेरवानी गिरवी रखनी पड़ेगी. जोश ने बहुत कहा, लेकिन मैनेजर नहीं माना. जोश को अपनी शेरवानी उतारनी पड़ी. इत्तेफ़ाक से उस दिन उन्होंने शेरवानी के नीचे कुछ नहीं पहना था.
वो सिर्फ़ बनियान और पायजामा पहने कॉफ़ी हाउस से बाहर निकल रहे थे कि उसके मालिक किशनलाल कालरा अंदर घुस रहे थे.
उन्होंने जोश को पहचाना और पूछा हुज़ूर आप यहाँ कैसे? उन्होंने किशनलाल को पूरी कहानी सुनाई. उन्होंने उनकी शेरवानी वापस दिलवाई और मैनेजर को बहुत डांटा.
वो उन्हें अपने घर ले गए और उनसे कहा कि वो जब तक चाहें वहाँ रह सकते हैं. हर दिसंबर को किशनलाल एक मुशायरे का आयोजन करते थे. उसमें जोश के अलावा फ़िराक़, साहिर लुधियानवी, महेंदर सिंह बेदी और कैफ़ी आज़मी जैसे शायर आते थे.
पंडित नेहरू उस मुशायरे में ज़रूर आते थे. मुशायरे के बाद चुनिंदा स्कॉच, शामी क़बाब और लज़ीज़ खाना खिलाया जाता था. किशनलाल कालरा का 2009 में निधन हो गया.