झारखंड: आदिवासियों में चर्च के ख़िलाफ़ उबाल क्यों है ?
आदिवासी विषयों के जानकार तथा सरना समाज के प्रतिनिधि लक्ष्मी नारायण मुंडा का कहना है कि पहनई ज़मीन पर चर्च का निर्माण बेशक ग़लत है.
उन्होंने कहा, "अगर गढ़खटंगा के आदिवासी स्वाभाविक तौर पर इसका विरोध कर रहे हैं, तो जायज कहा जा सकता है, लेकिन जो संगठन चर्च पर निशाने साध रहे हैं उन्हें भी परखने की ज़रूरत है कि आखिर वे किनके इशारे पर चलते हैं."
झारखंड की राजधानी रांची से करीब 25 किलोमीटर दूर आदिवासी बहुल गढ़खटंगा गांव सुर्खियों में है. इस गांव के लोगों ने आदिवासियों की ज़मीन पर बने चर्च को सरना भवन बना दिया है. साथ ही चर्च के ऊपर लगे क्रॉस को तोड़कर सरना झंडा लगा दिया है.
चर्च के ख़िलाफ़ आदिवासियों की इस कार्रवाई ने एक नई बहस छेड़ दी है. कई मौकों पर सरना आदिवासी (प्रकृति पूजक आदिवासी) और इनके संगठन झारखंड में ईसाइयों के धर्म प्रचारकों तथा चर्च की गतिविधियों को लेकर सवाल खड़े करते रहे हैं.
इनके ख़िलाफ़ जगह-जगह बैठक और धरनों का सिलसिला भी तेज़ हुआ है. सड़कों पर जुलूस भी निकाले जाते रहे हैं.
ये संगठन इन दिनों झारखंड में धर्म परिवर्तन कर ईसाई बने लोगों को अनूसचित जनजाति के आरक्षण का लाभ नहीं दिए जाने की मांग भी मजबूती से उठाने में जुटे हैं. बीजेपी के नेता भी इस मांग को हवा देने की कोशिश कर रहे हैं.
क़रीब 185 घरों वाले गढ़खटंगा आप जाएं, तो दूसरे गांवों की तरह यहां के लोग भी रोजमर्रा की ज़िंदगी जीते नज़र आएंगे.
कुछ साल पहले गांव के सामने से चौड़ा रिंग रोड गुजरा है. इसलिए यहां शहरीकरण का असर भी दिखने लगा है.चर्च को सरना भवन बनाए जाने के मामले में हालात-हकीकत टटोलना चाहें तो मर्दों से ज़्यादा महिलाएं मुखर होकर सामने आएंगी.
'भोले आदिवासियों को बरगलाते ईसाई धर्मगुरु'
महिलाओं की अगुवाई करती रहीं सुशांति देवी कहती हैं कि यह कदम उठाना निहायत ज़रूरी था. उन्होंने कहा, "गढ़खटंगा के रास्ते उन्होंने पूरे राज्य के सरना आदिवासियों के बीच एक संदेश देने का काम किया है."
सुशांति देवी चर्च की गतिविधियों और स्थानीय पास्टर (प्रचारक) की भूमिका पर भी सवाल खड़े करती हैं. इसी गांव की सरिता उरांव, सुमन लकड़ा, पार्वती खोया, सोमानी पहनाइन भी सुशांति देवी की बातों पर हामी भरती हैं.
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उनका दावा है कि ग़लत तरीके से इकरार-नामा कराकर पहनई ज़मीन पर विश्ववाणी नाम से चर्च बनवा दिया गया.
इन महिलाओं का कहना था कि ईसाई धर्म या किसी शख़्स से कोई गिला-शिकवा नहीं है, लेकिन भोले आदिवासियों को बरगलाने का काम ईसाइयों के धर्म गुरु और प्रचारक कई तरीकों से करते रहे हैं.
अब आदिवासियों को यह अहसास होने लगा है कि उनकी ज़मीन भी जा रही है और सरना धर्म भी ख़तरे में है.
शुरुआत कैसे हुई?
आंचू मुंडा गढ़खटंगा के पाहन (आदिवासी पुजारी) रहे हैं. वो बताते हैं कि चार साल पहले चर्च का निर्माण कराए जाने के बाद से ही ग्रामीण इसके विरोध में गोलबंद होने लगे थे.
दरअसल पहनई ज़मीन का हस्तांतरण नहीं किया जा सकता. गांव के लोग बताने लगे कि इस मामले को लेकर सदर अनुमंडलाधिकारी की कोर्ट में दायर वाद पर सुनवाई हुई थी.
आंचू मुंडा समेत तीन लोग पहले पक्षमें थे जबकि चर्च के अमरदीप बोदरा समेत तीन लोग दूसरा पक्ष में शामिल थे. आंचू मुंडा का पक्ष था कि ग़लत तरीके से इकरार-नामा कराकर पहनई ज़मीन पर चर्च बनवाया गया है.
क़ानून का उल्लंघन
तब सदर अनुमंडलाधिकारी ने भी अपने फ़ैसले में ज़मीन के हस्तांतरण को छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियिम के प्रावधान का उल्लंघन बताया था.
हालांकि चर्च को सरना भवन बना लिए जाने के बाद अमरदीप बोदरा ने मीडिया से कहा था कि पहले भी लोगों ने चर्च में प्रार्थना से रोक दिया था. उन्होंने कहा था,"अब वो बातचीत कर इस मामले को सुलझाना चाहते हैं, ताकि ईसाई शांतिपूर्ण तरीके से प्रार्थना कर सकें."
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वहीं गांव के सुखदेव पाहन, अमरजीत बोदरा की इन बातों से इत्तेफाक नहीं रखते.
सुखदेव पाहन पूछते हैं कि गांव के अखाड़ा में बैठकर चर्च को सरना भवन बनाने पर ग्रामीण जब आम सहमति बना रहे थे, तो चर्च के लोग क्यों नहीं आए? वो कहते हैं,"चर्च वाले पहले भी आमने-सामने की बात करने से कतराते रहे हैं और आदिवासियों को नियोजित तरीके से प्रलोभन देकर भरमाते रहे हैं."
आदिवासियों की ज़मीन पर ईसाइयों के घर?
गांव की कई महिलाओं और पुरुषों की शिकायत है कि इस इलाके में ज़मीन के कई एजेंट सक्रिय हैं. वो आदिवासियों की ज़मीन ख़रीदने में सफल होते रहे हैं.
कोई अपनी ज़मीन बेचे, तो इसमें आपकी आपत्ति क्या हो सकती है?
इस सवाल पर सुशांति देवी और सरिता उरांव एक साथ कहती हैं कि इसके दो जबाव हो सकते हैं.
-पहला, पहनई ज़मीन पर चर्च का निर्माण कराया गया, जिसे ख़रीदी-बेची नहीं जा सकती.
-दूसरा, आदिवासियों की ज़मीन पर बाहर से आकर ईसाई घर बनाते जाएं और भोले आदिवासियों के बीच कई तरीके से भ्रम फैलाने लगें, तो खतरे का अंदाजा लगाया जा सकता है.
चर्च का पक्ष: ध्रुवीकरण की कोशिश
कैथोलिक बिशप कॉन्फ़्रेंस ऑफ़ इंडिया के महासचिव थियोडोर मास्करेन्हास ने रोम से बीबीसी से फ़ोन पर बातचीत की और कहा कि इस घटना से ऐसा लगता है कि सरना समुदाय के लोगों ने इस तरह का निर्णय नहीं लिया होगा.
उन्होंने कहा, "इस हमले में कुछ संगठन के लोग हैं जो धुव्रीकरण की कोशिशों में जुटे हैं. और दूसरे समुदायों पर हमले के लिए सरकार इन संगठनों का इस्तेमाल कर रही है. अगर चर्च की ज़मीन को लेकर कोई विवाद है, तो उसके लिए क़ानून और प्रावधान हैं. फिर जिस तरह से भीड़ ने चर्च पर हमला किया है वह लॉ एंड आर्डर का मामला है."
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थियोडोर मास्करेन्हास का कहना था कि ईसाई तथा चर्च, शांति और न्याय प्रिय हैं. मिशनरी संस्थाओं ने हमेशा राष्ट्र निर्माण में योगदान दिया है.
उन्होंने कहा, "सरना समुदाय के लोग भी बहुत प्यारे हैं. सामाजिक तानेबाने के लिहाज से मिशनरियों के साथ उनके रिश्ते भी अच्छे हैं. लेकिन मिशनरियों के ख़िलाफ़ जो कुछ चल रहा है और जिन तरीके से चर्च को निशाने पर लिया जा रहा है, उसे शॉर्ट टर्म के चुनावी फंडे के तौर पर देखा जा सकता है."
मास्करेन्हास कहते हैं कि लंबे समय के लिए यह समाज और देश के लिए हितकारी नहीं होगा. चर्च ने तो आदिवासियों के लिए सरना कोड देने की मांग भी की है. अगर सरकार को आदिवासियों से प्यार है, तो सरना कोड लागू करना चाहिए.
रवैये पर सवाल
ईसाई महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रभाकर तिर्की का कहना है कि गढ़खटंगा में जो कुछ हुआ है उसे चर्च देखे. यह उनका मामला है. ज़मीन किस तरीके से ली गई इसका जवाब चर्च वाले देंगे.
इन सबके बीच एक तस्वीर झारखंड में ज़रूर उभरी है कि सरकार और उसके इशारे पर कुछ संगठन आदिवासियों के बीच धर्म के नाम पर बंटवारे की राजनीति कर रहे हैं. रही बात आरक्षण खत्म करने की, तो वह संवैधानिक अधिकार से जुड़ा मामला है.
बीजेपी के आदिवासी विधायक और पार्टी की अनुसूचित जनजाति मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष रामकुमार पाहन का कहना है कि सरकार न किसी समुदाय के साथ भेदभाव और ना ही बंटवारे की राजनीति करती है.
उन्होंने कहा, "चर्च और मिशनरी संस्थाओं की घबराहट इसे लेकर है कि क़ानून सख्ती से काम कर रहा है और आदिवासी हितों को लेकर सरना समुदाय एकजुट होने लगे हैं. साथ ही कई मामलों में मिशनरी संस्थाओं और चर्च की भूमिका को लेकर संदेह तो है ही, अब इन सबकी पोल भी खुलने लगी है."
गढ़खटंगा चर्च का रंग-रोगनकर और झंडा लगाकर सरना भवन बनाया जा रहा था, तब वहां झारखंड आदिवासी सरना विकास समिति के अध्यक्ष मेघा उरांव समेत कई संगठनों के प्रतिनिधि भी मौजूद थे.
मेघा पूछते हैं कि सरना समुदाय के लोगों ने संगठन बनाया है, तो चर्च और मिशनरी संस्थाओं की बेचैनी क्यों बढ़ी है.
उन्होंने कहा, "क्या इस मसले को उठाया जाना ग़लत है कि सेवा की आड़ में और प्रलोभन देकर आदिवासियों का धर्मातंरण कराया जा रहा है? आदिवासी अब इन बातों को समझने लगे हैं. तभी तो पिछले दिनों दुमका के सुदूर गांव में आदिवासियों ने ईसाई धर्म के कथित प्रचारकों को घेर लिया था, जिन्हें बाद पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेजा. 29 अक्तूबर को चईबासा के एक सुदूर गांव में आदिवासियों की घर वापसी (जो ईसाई बन गए थे उन्हें फिर से आदिवासी समाज में लाया गया) कराई गई है"
केंद्रीय सरना समिति से जुड़े लोग अक्सर ये बात उठाते रहे हैं कि मिशनरियां सरना समुदाय को तोड़ने के लिए हर हथकंडे अपना रही हैं, जबकि मिशनरियों ने पूरे राज्य में क़ानूनों का उल्लंघन कर चर्च, स्कूल, शेल्टर होम समेत अन्य संस्थानों का निर्माण कराया है.
आरक्षण और क़ानून
हाल ही में केंद्रीय सरना समिति के प्रतिनिधियों ने मुख्यमंत्री रघुवर दास और प्रधान सचिव सुनील वर्णवाल से मुलाकात की थी.
इन लोगों ने धर्म परिवर्तन कर ईसाई बने लोगों को अनूसूचित जनजाति का आरक्षण खत्म करने, आदिवासियों के लिए सरना धर्म कोड लागू करने को लेकर अपनी मांगें रखी हैं.
इसी मुद्दे पर नौ अगस्त को राजधानी रांची में राज्य भर के आदिवासी प्रतिनिधियों ने धरना दिया था.
मुख्यमंत्री रघुवर दास भी केंद्रीय सरना समिति को और मजबूती बनाने में जोर देते रहे हैं. पिछले साल बीजेपी सरकार ने झारखंड में धर्म स्वातंत्र्य क़ानून लागू किया है.
इस क़ानून के लागू किए जाने के बाद सरना समुदाय से जुड़े संगठनों ने जुलूस निकालकर ख़ुशी जाहिर की थी जबकि ईसाई संगठन जगह- जगह इसके विरोध में सड़कों पर उतर गए थे.
आदिवासी विषयों के जानकार तथा सरना समाज के प्रतिनिधि लक्ष्मी नारायण मुंडा का कहना है कि पहनई ज़मीन पर चर्च का निर्माण बेशक ग़लत है.
उन्होंने कहा, "अगर गढ़खटंगा के आदिवासी स्वाभाविक तौर पर इसका विरोध कर रहे हैं, तो जायज कहा जा सकता है, लेकिन जो संगठन चर्च पर निशाने साध रहे हैं उन्हें भी परखने की ज़रूरत है कि आखिर वे किनके इशारे पर चलते हैं."
मुंडा पूछते हैं कि आदिवासियों के दमन और संकट के और भी सवाल हैं. इसे वे लोग क्यों नहीं उठाते?
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