क्या नीतीश के सबसे भरोसेमंद सांसद और उनकी पत्नी को बना लिया गया है बंधक ?
नई
दिल्ली।
बिहार
के
जदयू
सांसद
महेन्द्र
प्रसाद
(किंग
महेन्द्र)
की
पत्नी
को
उनके
ही
कर्मचारी
ने
बंधक
बना
लिया
है।
79
साल
के
महेन्द्र
प्रसाद
भारत
के
सबसे
अमीर
सांसद
हैं।
चार
हजार
अठत्तर
करोड़
रुपये
की
कुल
सम्पत्ति
के
मालिक
हैं।
दवा
बनाने
वाली
मशहूर
कंपनी
एरिस्टो
और
मैप्रा
उन्ही
की
है।
महेन्द्र
प्रसाद
की
पत्नी
को
उनकी
ही
सचिव
उमा
देवी
ने
एक
फार्म
हाउस
में
कैद
कर
ऱखा
है।
पुत्र
को
सांसद
से
मिलने
नहीं
दिया
जा
रहा
है।
उनके
दिल्ली
स्थित
सरकार
आवास
पर
जब
पुत्र
ने
मिलने
की
कोशिश
की
तो
अंदर
नहीं
जाने
दिया
गया।
ऐसा
लगता
है
कि
सांसद
से
मिलने
पर
भी
पहरा
है।
इतना
ही
नहीं
सांसद
की
सचिव
उमा
देवी,
महेन्द्र
प्रसाद
के
नाम
पर
कपंनी
के
लिए
खुद
ही
फैसला
ले
रही
हैं।
ये
सभी
आरोप
सांसद
के
पुत्र
रंजीत
शर्मा
ने
लगाये
हैं।
तो
क्या
सांसद
की
अकूत
दौलत
के
लिए
कंपनी
और
परिवार
में
विवाद
शुरू
हो
गया
है
?
एक
सांसद
की
पत्नी
को
कोई
दिल्ली
में
ही
बंधक
बना
ले,
तो
यह
बहुत
ही
हैरान
करने
वाली
बात
है।
नीतीश के सबसे भरोसेमंद हैं किंग महेन्द्र
महेन्द्र प्रसाद उर्फ किंग महेन्द्र बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सबसे भरोसेमंद नेताओं में एक हैं। वे नीतीश की राजनीति का साइलेंट पावर हैं। कभी लाइम लाइट में नहीं रहते। दिल्ली में जदयू की राजनीति की असली ताकत वहीं हैं। महेन्द्र प्रसाद जदयू के ऐसे नेता हैं जो सीधे नीतीश कुमार से बात करते हैं। नीतीश ने ऐसी हैसियत पार्टी में बहुत कम नेताओं को बख्श रखी है। महेन्द्र प्रसाद भी नीतीश और ललन सिंह के अलावा जदयू में किसी दूसरे नेता से बात नहीं करते। महेन्द्र प्रसाद तक अगर कोई संदेश पहुंचाना है तो जहानाबाद के पूर्व विधायक अभिराम शर्मा इसका जरिया होते हैं। नीतीश के लिए महेन्द्र प्रसाद इस लिए खास हैं क्यों कि उन्होंने बहुत मुश्किल वक्त में उनकी मदद की है।
1980 में कांग्रेस के सांसद
1980 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी अपनी खोयी जमीन को वापस पाना चाहती थीं। 1977 में सत्ता से बाहर होने के बाद उनकी कांग्रेस पार्टी कमजोर हो चुकी थी। उनको जीतने वाले उम्मीदवार और पार्टी फंड जुटाने वाले लोगों की जरूरत थी। दवा व्यवसाय में नाम कमा चुके महेन्द्र प्रसाद ये दोनों योग्ताएं पूरी करते थे। उन्हें 1980 के लोकसभा चुनाव में जहानाबाद से कांग्रेस का टिकट मिल गया। वे जीत भी गये। इस चुनाव में महेन्द्र प्रसाद ने जिस तरह से सैकड़ों आलीशान कारों का काफिला जहानाबाद में घुमाया था उसके बाद उन्हें किंग महेन्द्र कहा जाने लगा। चुनाव में दिल खोल कर पैसा भी खर्च किया था। वे कारोबारी से राजनीतिज्ञ बन गये। पहली बार राजनीति में आये तो बहुत सक्रिय रहे। वे इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र माखन लाल फोतेदार के करीबी हो गये। इस बीच अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी। इसके बाद जब लोकसभा का चुनाव हुआ तो महेन्द्र प्रसाद इंदिरा गांधी की सहानुभूति लहर में भी जहानाबाद से हार गये। तभी से उन्होंने लोकसभा चुनाव से खुद को अलग कर लिया। उन्होंने सोचा जब पैसा ही खर्च करना है तो सुनिश्चित परिणाम वाला रास्ता क्यों न अपनाया जाए। वे राज्यसभा में जाने के लिए कोशिश करने लगे। तब तक केन्द्र में राजीव गांधी की सरकार बन चुकी थी। वे माखन लाल फोतेदार से मिले। 1985 में राजीव गांधी ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य बना दिया। यह निर्वाचन अल्पकालिक अवधि का था। 1986 में वे कांग्रेस की तरफ से फिर राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए।
2000 में लालू ने बनाया सांसद
1989 में कांग्रेस का पतन शुरू हो गया था। 1991 में राजीव गांधी हत्या के बाद कांग्रेस की स्थिति और खराब हो गयी। बिहार में सत्ता समीकरण बदल चुका था। जनता दल के लालू यादव के नेतृत्व में बिहार बदल रहा था। ऐसे में महेन्द्र प्रसाद ने भी कांग्रेस का दामन छोड़कर जनता दल से नाता जोड़ लिया। 1993 में वे जनता दल उम्मीदवार के रूप में राज्यसभा सांसद बने। महेन्द्र प्रसाद की दलीय राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी। राज्यसभा सांसद बनना उनके लिए स्टेटस सिम्बल था। उनके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी। वे सिर्फ प्रतिष्ठा के लिए सांसद कहलाना चाहते थे। इस सोच और व्यवहार के चलते हर दल उनको अपने से जोड़ना चाहता था। वे पार्टी फंड भरने वाले ऐसे नेता थे जिसकी कोई राजनीति महत्वाकांक्षा नहीं थी। इस खूबी के कारण लालू प्रसाद ने 2000 में महेन्द्र प्रसाद को राजद के टिकट पर राज्यसभा में भेज दिया। उस समय की राजनीति में लालू प्रसाद और भूमिहार समुदाय एक दूसरे को फूटी आंख भी नहीं सुहाते थे। इसके बाद भी लालू ने इस समुदाय के एक नेता को राज्यसभा में भेजा था। सब 'माया' का असर है।
कैसे आये नीतीश के करीब
2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में जब लाल कृष्ण आ़डवाणी ने नीतीश कुमार को एनडीए का सीएम कैंडिडेट घोषित किया था तो जनता दल यू में विरोध शुरू हो गया था। जार्ज फर्नांडीस इस बात के लिए खफा हो गये कि आडवाणी ने बिना उनसे पूछे इसकी घोषणा क्यों कर दी। फर्नांडीस ने इस चुनाव में नीतीश कुमार को पार्टी फंड के इस्तेमाल की इजाजत नहीं दी। नीतीश के सीएम बनने की राह में मुश्किलें खड़ी हो गयीं। तब उन्होंने अपने सहयोगी ललन सिंह से वैकल्पिक उपायों पर चर्चा की। कहा जाता है कि नीतीश ने ललन सिंह को महेन्द्र प्रसाद से मिलने की सलाह दी थी। ललन सिंह स्वजातीय होने के कारण महेन्द्र प्रसाद से परिचित थे। ललन सिह ने किंग महेन्द्र को जदयू के चुनाव प्रचार में सहयोग करने के लिए राजी कर लिया। अक्टूबर नवम्बर 2005 में जब विधानसभा के दोबारा चुनाव हुए तो नीतीश और भाजपा गठबंधन को पूर्ण बहुमत से जीत मिल गयी। नीतीश महेन्द्र प्रसाद के इस सहयोग को कभी नहीं भूले। सीएम बनने के एक साल बाद ही नीतीश ने 2006 में महेन्द्र प्रसाद को जदयू के टिकट पर राज्यसभा में भेज दिया। तब से नीतीश उन्हें तीन बार राज्यसभा में भेज चुके हैं।
किस्मत की लकीरों को मेहनत से बदला
महेन्द्र प्रसाद ने अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर किस्मत की लकीरों को बदला है। जहानाबाद के एक साधारण किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले महेन्द्र प्रसाद कुछ करने के इरादे से मुम्बई गये। ग्रेजुएशन के बाद उन्होंने नौकरी करना मुनासिब नहीं समझा। कुछ अलग करने की ठान रखी थी। मुम्बई पहुंचने के बाद वे सम्प्रदा प्रसाद सिंह (हाल ही में निधन) से मिले। वे भी जहानाबाद के रहने वाले थे और मेडिसिन इंडस्ट्री में बड़ा नाम बन चुके थे। शुरू में महेन्द्र प्रसाद ने दवा व्यवसाय को समझने के लिए उनके यहां काम किया। फिर अपनी दवा कंपनी खोलने के लिए संघर्ष करने लगे। 1971 में 31 साल की उम्र में ही उन्होंने अपनी दवा कंपनी, एरिस्टो फर्मास्यूटिकल खड़ी कर ली। मानकों के अनुपालन और विश्वसनीयता के बल पर जल्द ही ये कंपनी पूरे भारत की मशहूर दवा कंपनी बन गयी। फिर तो दौलत की बारिश होने लगी।
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