Jaswant Singh:भाजपा से निष्कासित नेता की वो बात जो दिल में ही रह गई
नई दिल्ली- पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह भाजपा के शुरुआती दिनों से ही अटल-आडवाणी जैसे पार्टी के दिग्गज नेताओं के करीबी रहे थे। करीब 6 साल के वाजपेयी के कार्यकाल में वह प्रधानमंत्री के बहुत ही भरोसेमंद सहयोगी रहे। अटली जी ने उन्हें सिर्फ गृहमंत्रालय छोड़कर रक्षा, वित्त और विदेश मंत्रालय जैसे सारे मंत्रालयों की बारी-बारी से जिम्मेदारियां सौंपी। लेकिन, उन्होंने मोहम्मद जिन्ना पर एक किताब लिखकर पार्टी की नई पीढ़ी के नेताओं से बहुत बड़ा पंगा मोल ले लिया। आखिरकार स्थिति ऐसी आई कि 2009 के लोकसभा में भाजपा की हार के बाद उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। हालात ऐसे में बने कि वह तत्कालीन पार्टी नेतृत्व के सामने औपचारिक तौर पर अपनी सफाई भी नहीं रख पाए।
जिन्ना पर किताब लिखने पर पार्टी नाराज
सारी उम्मीदों के बावजूद 2009 का लोकसभा चुनाव बीजेपी बुरी तरह से हार गई। हार की समीक्षा के लिए पार्टी के सारे वरिष्ठ नेता शिमला पहुंचे थे। इन नेताओं में अटल-आडवाणी के नजदीकी जसवंत सिंह भी शामिल थे। तब पार्टी की कमान राजनाथ सिंह के हाथों में थी। जसवंत सिंह बैठक में शामिल होने पहुंचते उससे पहले ही उन्हें संदेश मिला कि वह अभी अपने होटल सेसिल के कमरे में ही आराम फरमाएं। कई घंटों बाद उनके होटल के कमरे में फोन की घंटी बजी और दूसरी तरफ से किसी भाजपा नेता ने कहा कि अब उन्हें बैठक में आने की आवश्यकता नहीं है, पार्टी ने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना पर लिखी उनकी किताब के लिए उन्हें निष्कासित कर दिया है।
दार्जिलिंग से चुनाव जीता था
लोकसभा चुनावों में करारी हार के बाद जिन्ना पर लिखी उनकी किताब भाजपा के एक वर्ग के जख्मों पर नमक की तरह असर कर रहा था। उनके निष्कासन पर कोई विरोध नहीं हुआ। दशकों से उनके साथ-साथ काम करने वाले उनके करीबी मित्र और उस चुनाव में एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने भी कुछ नहीं कहा। कुछ लोगों ने महसूस किया कि जसवंत के निष्कासन का असल कारण पार्टी की उस समय की राजनीतिक मजबूरियां थीं। क्योंकि, कुछ नेता चुनाव में मिली करारी शिकस्त को लेकर आई फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट को दबाना चाहते थे, इसलिए जसवंत को आसानी से बलि का बकरा बना दिया गया। जबकि, वह उत्तरी पश्चिम बंगाल की दार्जिलिंग लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर आए थे।
निष्कासन से पहले सफाई का मौका नहीं मिला
जिस पार्टी के वो संस्थापकों में से रहे उससे इस तरह से निष्कासन के बाद वो भारी मन से शिमला से दिल्ली की ओर रवाना हो गए। लेकिन, उनके दिल में एक बात कचोटती रह गई कि उनकी पार्टी ने उन्हें निष्कासन से पहले सफाई देने का एक मौका भी नहीं दिया। दरअसल, उस चुनाव से ही भाजपा में अटल-आडवाणी युग का खात्मा शुरू हो गया था और अगली पीढ़ी के नेताओं का दबदबा बढ़ने लगा। अटल जी तो पहले से ही अस्वस्थ होने के कारण सक्रिय राजनीति से दूर हो गए थे। आडवाणी अपने कद के मुताबिक चुनाव में परिणामों कोई असर नहीं दिखा पाए थे।
बाड़मेर में निर्दलीय लड़े और बीजेपी प्रत्याशी से हार गए
ऐसा नहीं था कि जसवंत सिंह पहली बार भाजपा और संघ से जुड़े हार्डलाइनर नेताओं के निशाने पर आए थे। जब अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें देश की अर्थव्यवस्था की जरूरतों के मुताबिक वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी थी तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े नेता मदन दास देवी ने उनकी जगह किसी ऐसे नेता को वित्त मंत्री बनाने की वकालत की थी, जो उसके 'स्वदेशी' विचारों को आगे बढ़ाए। वाजपेयी सरकार में जसवंत सिंह ने पोखरण परीक्षणों के बाद अमेरिकी आर्थिक पाबंदियों से भारत को उबारने में बड़ी भूमिका निभाई थी। तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री से उनके आपसी ताल्लुकातों ने दोनों देशों के संबंधों को मजबूत करने भी अहम रोल निभाया था। लेकिन, उनके खिलाफ पार्टी की नाराजगी 2014 के लोकसभा चुनावों में भी जारी रही। वह राजस्थान के बाड़मेर से टिकट चाहते थे, लेकिन पार्टी के इनकार पर वह निर्दलीय ही मैदान में उतरे बीजेपी प्रत्याशी से ही चुनाव हार गए।
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