क्या झारखंड के नतीजे बिहार चुनाव की झलक हैं?
सोमवार को जिस दिन झारखंड के चुनाव परिणाम आ रहे थे उस दिन सोशल मीडिया पर जहां कहीं भी झारखंड के चुनाव परिणामों की समीक्षा हुई है, उसमें बिहार में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का भी ज़िक्र मिलता है. बिहार की प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी झारखंड के विधानसभा चुनाव परिणामों को बिहार से जोड़ कर देख रही है.
सोमवार को जिस दिन झारखंड के चुनाव परिणाम आ रहे थे उस दिन सोशल मीडिया पर जहां कहीं भी झारखंड के चुनाव परिणामों की समीक्षा हुई है, उसमें बिहार में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का भी ज़िक्र मिलता है.
बिहार की प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी झारखंड के विधानसभा चुनाव परिणामों को बिहार से जोड़ कर देख रही है.
अख़बारों के संपादकीय और न्यूज़ चैनलों के डिबेट की मानें, तो झारखंड के चुनाव परिणाम का आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में गहरा असर पड़ेगा?
कितना अलग होगा बिहार का चुनाव
हालांकि, डेमोग्राफी और स्थानीय मुद्दों के लिहाज से देखें तो झारखंड और बिहार में काफ़ी अंतर दिखता है.
वहां आदिवासी समुदाय और उनके मसले ज़्यादा हावी हैं. जबकि यहां जातीय समीकरणों की भूमिका हर बार प्रभावी रही है.
बावजूद इसके ऐसा क्यों कहा जा रहा है झारखंड के विधानसभा चुनाव परिणाम बिहार के विधानसभा चुनाव की बानगी हैं?
बिहार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा कहते हैं, "ऐसा इसलिए क्योंकि जिस तरह से झारखंड में विपक्ष एकजुट होकर लड़ा उसी तरह बिहार का विपक्ष भी एकजुट है. झारखंड के चुनाव परिणाम ने हमें और हमारी एकता को और ताक़त दी है. हालांकि इसकी झलक पहले ही मिल चुकी है. एक महीने पहले पांच सीटों पर हुए विधानसभा उपचुनाव में भी हमारे महागठबंधन ने बढ़त हासिल की थी."
लेकिन बिहार में बीजेपी अकेली नहीं है. जदयू और लोजपा साथ में हैं. उनके शीर्ष नेतृत्व ने भी पहले ही यह साफ कर दिया है कि बिहार का विधानसभा चुनाव वे एनडीए गठबंधन के अंदर ही लड़ेंगे.
जबकि दूसरी तरफ जिस तरह का विपक्षी गठबंधन झारखंड में इस बार दिखा, बिहार में फ़िलहाल वैसा नहीं दिखता.
महागठबंधन के बीच खींचतान
लोकसभा चुनाव के समय ही टिकट के बंटवारे लेकर महागठंबधन के सहयोगी दलों के बीच खींचतान चली थी.
उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा, मुकेश सहनी की वीआईपी और जीतनराम मांझी की हम पार्टी अपने लिए अधिक से अधिक सीटों की मांग के साथ अड़ गए थे.
विधानसभा उपचुनाव में भी राजद और कांग्रेस को छोड़ दें तो बाकियों ने अपने-अपने अलग कैंडिडेट उतार दिए थे.
क्या अगले विधानसभा चुनाव में राजद और कांग्रेस बाकी सहयोगियों को साथ मिलाकर रखने में कामयाब रहेंगे?
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा बीबीसी से कहते हैं, "ये ज़रूर है कि पिछले दिनों थोड़ी संवादहीनता के कारण कुछ सहयोगियों में अंसतोष उभर आया था. लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा. विधानसभा चुनाव में अभी 11 महीने शेष हैं. हम लोग समय रहते आपस में मिलकर बात करेंगे. इस बार संवादहीनता मसला नहीं बनेगा."
कांग्रेस के लिए एक अच्छी बात ये भी है कि झारखंड के चुनाव परिणाम में पार्टी को ऐतिहासिक बढ़त हासिल हुई है. पहली बार कांग्रेस ने 16 सीटें जीती हैं. इसके पहले उनके पास पांच सीटें थीं.
बिहार की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी क्या करेगी?
जहां तक बात बिहार के विपक्षी महागठबंधन की है तो उसमें 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल है. हालांकि राजद झारखंड में गठबंधन की तीसरे नंबर की पार्टी चुनी गई है. सात लड़ी गई सीटों में से केवल एक पर ही उसे जीत हासिल हुई.
लेकिन फिर भी राजद के नेता और लालू प्रसाद के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव ने झारखंड चुनाव के फैसलों के बाद ट्वीट किया कि, "लिखकर रख लीजिए. जो हाल झारखंड में रघुबर दास का हुआ वही हाल 2020 में बिहार में नीतीश कुमार का होगा."
हमनें तेज प्रताप के छोटे भाई और बिहार विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव से सवाल किया कि वे नीतीश कुमार का हाल रघुबर दास जैसा कैसे बनाएंगे?
तेजस्वी कहते हैं, "जिस तरह झारखंड का चुनाव महागठबंधन ने आसमानी मुद्दों के बजाय ज़मीनी मुद्दों पर लड़ा. उसी तरह बिहार का चुनाव भी यहां के ज़मीनी मुद्दों पर लड़ा जाएगा. झारखंड में जल, जीवन, जंगल की लड़ाई थी. यहां पढ़ाई, लिखाई, कमाई, दवाई, सिंचाई की लड़ाई होगी. नीतीश कुमार और बीजेपी की डबल इंजन की सरकार सभी मोर्चों पर फेल है. सबसे बड़ी बात है कि लगातार 15 सालों तक एक आदमी पर भरोसा कर जनता ने देख लिया. नीतीश कुमार ने वो भरोसा तोड़ दिया है."
झारखंड में जिस तरह का गठबंधन हुआ क्या वैसा ही गठबंधन बिहार में बन पाएगा? क्योंकि यहां का गठबंधन कागज पर ज्यादा मजबूत दिखता है, धरातल पर कम. सीट बंटवारे के समय हर बार तू-तू, मैं-मैं वाले हालत बन जाते हैं.
तेजस्वी कहते हैं, "पिछले लोकसभा चुनाव के समय जो ग़लतियां हुई थीं, उन्हें हम नहीं दोहराएंगे. उपचुनाव के समय हमलोगों ने आपस में तय कर लिया था कि इस बार फ्रेंडली ही लड़कर देखते हैं. उसमें भी पांच में से चार सीटें विपक्ष के खाते में ही गई. हमारे पास अभी गठबंधन बनाने के लिए काफ़ी वक्त है. अभी तो हम इतना ही कह सकते हैं कि गठबंधन का जैसा स्वरूप लोकसभा चुनाव में देखने को मिला था, वैसा ही विधानसभा चुनाव में देखने को मिलेगा."
झारखंड में पिछड़कर भी बिहार में आगे हो गई जदयू!
झारखंड के चुनाव परिणाम को बिहार के नजरिए से देखें तो सबसे अधिक फायदे में कौन सी पार्टी होगी?
प्रभात खबर अखबार के स्थानीय संपादक अजय कुमार सिंह कहते हैं, "झारखंड में बीजेपी की हार का यदि कोई सबसे अधिक फायदा उठाएगा तो वह जदयू है. हालांकि जदयू ने झारखंड में अलग चुनाव लड़ा था और उसे केवल 0.73 फीसदी वोट ही मिल पाए हैं. लेकिन बिहार में देखें तो वह अब बीजेपी पर प्रेशर बनाएगा. क्योंकि इसके पहले तक बीजेपी के नेता प्रेशर बनाने का काम करते थे. अंदरखाने से ये भी चर्चा होने लगी थी कि बिहार में बीजेपी अकेले लड़ने की भी सोच सकती है. मगर अब झारखंड के परिणाम ने बीजेपी के अंदर डर पैदा कर दिया होगा. झारखंड की तरह वह बिहार में अकेले चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकती."
हमनें बात की जदयू प्रवक्ता और बिहार सरकार में सूचना तथा जनसंपर्क मंत्री नीरज कुमार से.
झारखंड के विधानसभा चुनाव को उनकी पार्टी किस तरह देखती है?
नीरज कहते हैं, "झारखंड के चुनाव से बिहार के चुनाव का कोई लेना-देना नहीं है. वहां के मुद्दे अलग थे, यहां के अलग हैं. लेकिन मुझे ये नहीं समझ आ रहा है कि झारखंड के चुनाव परिणाम से बिहार के विपक्षी क्यों इतना खुश हो रहे हैं! जो सबसे अधिक खुश हो रहे हैं (राजद) उन्होंने तो बस एक सीट ही जीती है. "
वे कहते हैं, "बिहार में तो विपक्षियों का ये हाल है कि उनके पास कोई नेतृत्व ही नहीं है. तेजस्वी यादव अपनी पार्टी के घोषित नेता हो सकते हैं, मगर सभी विपक्षियों के नहीं है. झारखंड के चुनाव में विपक्षी गठबंधन के पास चेहरा था. यहां के चेहरे पर गठबंधन में ही आम राय नहीं है. कभी हो भी नहीं सकती, कोई कैसे भरोसा कर सकता है ऐसे आदमी का जिसका पूरा परिवार ही भ्रष्टाचार में लिप्त है. पिता जेल काट रहे हैं."
क्या झारखंड में भाजपा की हार से एनडीए गठबंधन में जदयू की भूमिका बढ़ जाएगी? क्या जदयू को अब लगने लगा है कि भाजपा उसको छोड़कर नहीं जा सकती?
नीरज कुमार इन सवालों के जवाब में कहते हैं, "हम हर हाल में गठबंधन धर्म का पालन करेंगे. इसके लिए प्रतिबद्ध हैं. वैसे छोड़कर जाने का कोई प्रश्न ही नहीं है. हमारे शीर्ष नेताओं ने पहले ही बता दिया है कि हमलोग अगला विधानसभा चुनाव एनडीए गठबंधन के तहत लड़ेंगे और एनडीए का चेहरा नीतीश कुमार ही होंगे."
वैसे जदयू अभी खुद सीएए और एनआरसी के मुद्दे पर दो फाड़ में बंटी दिख रही है. एक ओर संसद में जदयू ने नागरिकता संशोधन अधिनियम के समर्थन में वोट किया वहीं दूसरी ओर पार्टी के कुछ बड़े नेताओं उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर, पवन वर्मा, ग़ुलाम रसूल बलियावी ने इसके ख़िलाफ़ बयान दिए हैं. लगातार बयान दे भी रहे हैं. नागरिकता संशोधन क़ानून के मुद्दे पर तो अभी तक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपना मुंह नहीं खोला है लेकिन एनआरसी को लेकर वे घोषणा कर चुके हैं कि बिहार में एनआरसी नहीं आने देंगे.
भाजपा के लिए क्या होगा सबक?
पिछले एक साल के अंदर पांच राज्यों की सत्ता गंवाने वाली भाजपा के लिए बिहार का विधानसभा चुनाव बहुत कठिन होने वाला है. इसका अहसास उसे महाराष्ट्र और झारखंड की सत्ता गंवाने के बाद हो गया होगा.
भाजपा के लिए परिस्थिथियां बिहार में भी कमोबेश वैसी ही हैं जैसी महाराष्ट्र और झारखंड में थी.
महाराष्ट्र के चुनाव में सबसे अधिक सीटें जीतने के बाद भी पार्टी सत्ता से दूर है. क्योंकि वहां मुख्यमंत्री पद को लेकर शिवसेना से बात नहीं बन सकी.
यहां बिहार में भी मुख्यमंत्री पद को लेकर किचकिच है.
पिछले दिनों बिहार भाजपा के कद्दावर नेता संजय पासवान ने कहा था कि "नीतीश कुमार लगातार 15 सालों से मुख्यमंत्री पद पर रह लिए. जनता ने उन्हें इन सालों में देख लिया. अब उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का मौका भाजपा को देना चाहिए".
एक और तथ्य ये है कि बिहार में आज तक भाजपा का मुख्यमंत्री नहीं बन सका है. जबकि जद-यू की चाहत है कि उसका भी कोई प्रधानमंत्री हो.
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बीजेपी का मुख्यमंत्री
लेकिन क्या झारखंड का चुनाव परिणाम और महाराष्ट्र का अलगाव सहने के बाद भी भाजपा बिहार में अकेले लड़ने का सोच रही है?
भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता निखिल आनंद कहते हैं, "हमारे नेता पहले ही कह चुके हैं कि बिहार का विधानसभा चुनाव एनडीए लड़ेगा. इसलिए उसपर कोई बात ही नहीं होनी चाहिए. रही बात महाराष्ट्र की तो वहां हमनें गठबंधन के तहत ही चुनाव लड़ा था. पर शिवसेना ने हमें अंत में धोखा दे दिया. और मुझे नहीं लगता कि झारखंड के चुनाव परिणाम का बिहार में असर पड़ेगा".
आखिर क्यों असर नहीं पड़ेगा? जैसे वहां विपक्षी एकजुट थे, यहां भी हैं.
निखिल आनंद कहते हैं, "केवल विपक्षियों के एकजुट हो जाने से सबकुछ नहीं होता. चुनाव के कई फैक्टर्स होते हैं. हमलोग झारखंड के चुनाव परिणामों की समीक्षा कर रहे हैं. उसके बाद ही इस बारे में बात कर पाएंगे कि हम झारखंड का चुनाव क्यों हारे."
जो लोग झारखंड के विधानसभा चुनाव परिणाम का असर बिहार के आगामी विधानसभा चुनाव पर पड़ने की बात कह रहे हैं, उनका एक तर्क ये भी है कि झारखंड बिहार से ही अलग होकर एक राज्य बना है. यदि आदिवासी समुदाय जिसकी आबादी झारखंड की आबादी की करीब 28 फीसदी है, को हटा दिया जाए तो वोटर्स लगभग एक जैसे हैं. आदिवासियों के मुद्दों के अलावा मुद्दे भी प्राय: मिलते जुलते हैं.
रांची के पत्रकार आनंद दत्त जो मूल रूप से बिहार के मधुबनी के रहने वाले हैं, कहते हैं, "विधानसभा चुनाव हाइपरलोकल मुद्दों पर लड़ा जाता है. हो सकता है कि सिस्टर्स स्टेट होने के कारण दोनों राज्यों के वोटर्स और मुद्दों में समानता हो, मगर ये जरूरी भी तो नहीं कि परिस्थितियां और वोटिंग पैटर्न एक साल बाद भी ऐसा ही हो. हां ये जरूर कह सकते हैं कि झारखंड की नई सरकार जो बीजेपी को हराकर बनी है वह कैसे फैसले लेती है और कैसा काम करती है अगले 11 महीनों में, उससे बिहार के विधानसभा चुनाव में असर पड़ सकता है. "