क्या भ्रूण को भी है जीने का अधिकार?
इसलिए 1971 में गर्भपात के लिए नया क़ानून, 'द मेडिकल टरमिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी ऐक्ट' यानी एमटीपी ऐक्ट पारित हुआ और इसमें गर्भ धारण करने के 20 हफ़्तों तक गर्भपात करवाने को क़ानूनी अनुमति दी गई.
इस अनुमति की शर्त ये कि बच्चा पैदा करने से मां को शारीरिक या मानसिक हानि पहुंचती हो और पैदा होनेवाले बच्चे में मानसिक या शारीरिक विकलांगता होने की संभावना हो.
मुंबई हाई कोर्ट ने एक बलात्कार पीड़िता की गर्भपात की दरख़्वास्त नामंज़ूर कर दी है.
18 साल की पीड़िता के गर्भ में पल रहा भ्रूण 27 हफ़्ते का हो गया है और डॉक्टरों के मुताबिक उसे गिराने से मां की जान को ख़तरा हो सकता है.
इससे पहले अदालत ने ये भी कहा कि ऐसे मसले में भ्रूण के अधिकारों की समीक्षा भी करनी चाहिए.
भारतीय संविधान की धारा 21 के मुताबिक हर व्यक्ति को आज़ादी से जीने का अधिकार है जब तक वो किसी क़ानून का उल्लंघन नहीं कर रहा हो.
सवाल ये कि क्या भ्रूण को व्यक्ति का दर्जा दिया जा सकता है? दुनियाभर में इस पर एक राय नहीं है.
भारतीय दंड संहिता यानी इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) में दो दशक पहले तक भ्रूण की कोई परिभाषा ही नहीं थी.
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क्या होता है भ्रूण?
1994 में जब गर्भ में पल रहे भ्रूण की लिंग जांच को ग़ैर-क़ानूनी बनाने वाला पीसीपीएनडीटी क़ानून लाया गया, तब भ्रूण पहली बार परिभाषित हुआ.
एक औरत के गर्भ में पल रहे एम्ब्रियो को आठ हफ़्ते बाद यानी 57वें दिन से बच्चा पैदा होने तक क़ानून की नज़र में 'फ़ीटस' यानी 'भ्रूण' माना गया.
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लड़कियों के मुकाबले लड़के पसंद करनेवाली सोच की वजह से भ्रूण की लिंग जांच कर, गर्भपात करवाया जाता रहा है.
अंतरराष्ट्रीय मेडिकल पत्रिका 'लैनसेट' के शोध के मुताबिक़ 1980 से 2010 के बीच भारत में एक करोड़ से ज़्यादा भ्रूण इसलिए गिरा दिए गए क्योंकि लिंग जांच में पाया गया कि वो पैदा होकर लड़की होंगे.
ऐसी भ्रूण हत्या को रोकने के मक़सद से लाए गए पीसीपीएनडीटी ऐक्ट के तहत, लिंग जांच करवाने के लिए डॉक्टर और परिवारवालों - सभी को तीन साल की सज़ा और जुर्माना हो सकता है.
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किसे है भ्रूण के जीवन पर फ़ैसले का अधिकार?
लड़की पसंद ना करने के अलावा भी गर्भपात की और वजहें हो सकती हैं. मसलन बलात्कार की वजह से गर्भवती हुई महिला या गर्भ-निरोधक के ना काम करने पर गर्भवती हुई महिला जब बच्चा ना पैदा करना चाहे.
लेकिन कुछ दशक पहले तक भारत में गर्भपात पूरी तरह से ग़ैर-क़ानूनी था. सिर्फ़ एक ही सूरत में इसकी अनुमति थी - अगर बच्चा पैदा करने से महिला की जान को ख़तरा हो.
इसलिए 1971 में गर्भपात के लिए नया क़ानून, 'द मेडिकल टरमिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी ऐक्ट' यानी एमटीपी ऐक्ट पारित हुआ और इसमें गर्भ धारण करने के 20 हफ़्तों तक गर्भपात करवाने को क़ानूनी अनुमति दी गई.
इस अनुमति की शर्त ये कि बच्चा पैदा करने से मां को शारीरिक या मानसिक हानि पहुंचती हो और पैदा होनेवाले बच्चे में मानसिक या शारीरिक विकलांगता होने की संभावना हो.
भ्रूण के जीवन के बारे में ये फ़ैसला करने पर मां और पिता राय और सहमति तो दे सकते हैं, लेकिन आख़िरी फ़ैसले का अधिकार डॉक्टर के पास रहता है.
12 हफ़्ते से पहले गर्भ गिराने का फ़ैसला एक पंजीकृत डॉक्टर कर सकता है और 12 से 20 हफ़्ते तक विकसित हो चुके भ्रूण के फ़ैसले में दो पंजीकृत डॉक्टरों की राय ज़रूरी है.
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भ्रूण गिरवाने पर सज़ा
अगर एमटीपी ऐक्ट की शर्तें पूरी ना हों और एक औरत अपना भ्रूण गिरवा दे या कोई और उसका गर्भपात करवा दे तो ये अब भी जुर्म है जिसके लिए उस औरत को ही तीन साल की सज़ा और जुर्माना हो सकता है.
गर्भवती औरत की जानकारी के बिना उसका गर्भपात करवाने पर उम्रक़ैद हो सकती है.
गर्भपात करवाने की नीयत से औरत की हत्या करना या कोई भी ऐसा काम करना जिसका मक़सद हो कि पैदा होने से पहले ही गर्भ में बच्चा मर जाए या पैदा होने के फ़ौरन बाद बच्चा मर जाए तो इसके लिए 10 साल की सज़ा हो सकती है.
अगर एक व्यक्ति की वजह से गर्भवती महिला की मौत हो जाए या उसे इतनी चोट लगे की कोख में पल रहे भ्रूण की मौत हो जाए तो इसे 'कल्पेबल होमिसाइड' यानी ग़ैर-इरादतन हत्या माना जाएगा जिसके लिए 10 साल की सज़ा हो सकती है.
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