राहुल गाँधी के लिए दक्षिण भारत नया ठिकाना है, या मुश्किल राजनीति से पलायन?
केरल से सांसद चुने जाने के बाद राहुल गाँधी दक्षिण भारत के ज़्यादा दौरे करने लगे हैं. क्या है राहुल की रणनीति और क्या वे इसमें सफल हो पाएँगे?
राहुल गाँधी ने अरब सागर में छलाँग लगाई और आराम से दूर तक तैरते गए. केरल में नाव पर सवार सभी मछुआरे हैरान रह गए.
तमिलनाडु में राहुल से आधी से भी कम उम्र की एक लड़की ने उन्हें फ़िटनेस चैलेंज दिया, तो उन्होंने बड़ी सहजता से इसे स्वीकार कर लिया. राहुल ने किसी नौजवान की तरह दिखाया कि वो अइकिडो मार्शल आर्ट जानते हैं.
पिछले हफ़्ते सोशल मीडिया पर राहुल गाँधी की ये गतिविधियाँ छाई रहीं, ख़ासकर दक्षिण भारत में. दूसरी तरफ़ मुख्यधारा के मीडिया, अख़बार और टीवी दोनों पर राहुल गाँधी की छात्रों और मछुआरों से बातचीत को पूरी प्राथमिकता दी गई. उत्तर भारत के चैनलों में राहुल को लेकर शायद ही ऐसा रुख़ होता है.
ऐसा लगा कि 50 साल के राहुल गाँधी दक्षिण भारत के सभी राज्यों और ख़ास कर चुनाव वाले तमिलनाडु और केरल में लोगों का ध्यान आकर्षित करने में कामयाब रहे और लोगों के बीच किसी अजनबी की तरह नहीं लगे.
राहुल गाँधी के दौरे और उनकी गतिविधियों को लेकर दक्षिण भारत के मीडिया और सोशल मीडिया में जिस तरह की तवज्जो मिली, उसे लेकर यहाँ के मीडिया विश्लेषक हैरान नहीं हैं. कुछ तो ऐसा मानते हैं कि दक्षिण भारत उनके लिए मुश्किल राजनीति से पलायन है.
भारत के पहले स्थानीय टेलीविज़न चैनल के संस्थापक शशि कुमार कहते हैं, ''राहुल के लिए यह कोई कच्चा सौदा नहीं है. मीडिया उन्हें लंबी पारी देना चाहता है. ज़ाहिर है कि कई बार वे इसके लिए बोलते भी हैं. क्षेत्रीय टीवी चैनल अपने इलाक़े में बहस को पैदा करने का माद्दा रखते हैं, लेकिन ये मर्यादा से बाहर नहीं जाते हैं.''
दूसरे काराण भी
मीडिया में राहुल को लेकर इस रुख़ के दूसरे कारण भी हैं. द हिंदू अख़बार के पूर्व प्रधान संपादक एन राम कहते हैं, ''दक्षिण भारत की राजनीति उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की तरह कम ज़हरीली है, जहाँ हिन्दुत्व की राजनीति बेलगाम है. यहाँ की राजनीति में वैसी असभ्यता नहीं है.''
शशि कुमार कहते हैं कि ऐसा इसलिए नहीं है कि कांग्रेस का यहाँ आधार है, बल्कि इसलिए है कि अपवाद स्वरूप कर्नाटक को छोड़ दें, तो दक्षिण भारत में बीजेपी का कोई दख़ल नहीं है.
शशि कुमार कहते हैं, ''मुझे यह काफ़ी चौंकाने वाला लगा कि राहुल समंदर में तैर सकते हैं, पुशअप्स मार सकते हैं और किसी एथलीट की तरह हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना में क़द काठी के मामले में भी आगे हैं. लेकिन यह अच्छा विरोधाभास है. सियासत में मांसपेशियों के प्रदर्शन को हवा राजीव गाँधी ने नहीं दी, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी ने दी. 56 इंच के सीने की बात पहली बार मोदी ने ही कही थी."
Modi ji, Please don't try this at home 🙏 pic.twitter.com/soptQGCYom
— Srinivas B V (@srinivasiyc) March 1, 2021
एन राम कहते हैं, ''राहुल तमिलनाडु में ज़्यादा ख़ुश दिखते हैं, जबकि यहीं उनके पिता की हत्या कर दी गई थी. यह बहुत ही अहम बात है कि इन चीज़ों से राहुल गाँधी ऊपर उठ गए हैं और उनके मन में इसे लेकर कोई स्थायी घाव नहीं है. राहुल गाँधी अपनी दादी इंदिरा गाँधी और पिता राजीव गाँधी की तुलना में तमिलनाडु में ज़्यादा सहज दिखते हैं.''
जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक बीआरपी भास्कर कहते हैं, ''अमेठी में मिली हार और केरल के वायनाड से लोकसभा सांसद चुने जाने के कारण राहुल का दक्षिण भारत आना बढ़ा है. यह राजनीतिक रूप से काफ़ी अहम है. दरअसल, राहुल गाँधी यहाँ जनसमर्थन को फिर से खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं, जो नेहरू-गाँधी परिवार के लिए हमेशा से रहा है. कांग्रेस पार्टी अपनी पकड़ खो सकती है, लेकिन नेहरू ख़ानदान में इसे हासिल करने की क्षमता रहती है.''
राहुल गाँधी की 'कूल छवि'
नक्कीरन मैगज़ीन के दामोदरन प्रकाश कहते हैं, ''तमिल मीडिया में राहुल गाँधी को लेकर रुख़ बहुत सकारात्मक रहता है. यहाँ तक कि उन्हें तमिलनाडु के बच्चे की तरह देखा जाता है. राहुल को कूल व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है, जबकि गृह मंत्री अमित शाह को यहाँ विलेन की तरह देखा जाता है. यह छवि पूरे तमिलनाडु में है.''
तेलुगू राज्य आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में राहुल को लेकर राय बहुत अलग नहीं है. हैदराबाद स्थित उस्मानिया यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता के पूर्व प्रोफ़ेसर पद्मजा शॉ कहते हैं, ''उत्तर भारत के मीडिया में राहुल को जिस तरह से निशाने पर लिया जाता है, वैसा यहाँ नहीं है. अंग्रेज़ी मीडिया को पता है कि यहाँ की सत्ताधारी क्षेत्रीय पार्टी को किसी से ख़तरा नहीं है.''
LIVE: Shri @RahulGandhi interacts with students at St. Joseph’s Matric Hr. Sec. School, Kanyakumari. #TNwithRahulGandhi https://t.co/VWwcRMKxmV
— Congress (@INCIndia) March 1, 2021
सीनियर पत्रकार जिंका नागार्जुन कहते हैं, ''तेलुगू मीडिया में ज़्यादा रिपोर्ट नहीं पब्लिश होती है, लेकिन जो भी प्रकाशित होती है वो सकारात्मक स्टोरी होती है. राहुल गाँधी की युवाओं से बातचीत को काफ़ी सकारात्मक लिया जाता है.''
कन्नड़ अख़बार उदयवाणी की पूर्व संपादक पूर्णिमा आर कहती हैं, ''कन्नड़ मीडिया राहुल गाँधी को लेकर राष्ट्रीय मीडिया से अलग नहीं है. ख़ास करके 2014 के बाद कन्नड़ मीडिया में राहुल गाँधी को लेकर बकवास होती है या उनकी आलोचना.''
केरल के वायनाड से लोकसभा सांसद चुने जाने के कारण राहुल गाँधी का यहाँ आना-जाना बढ़ा है. इससे कांग्रेस को फ़ायदा हुआ है. यहाँ के स्थानीय मीडिया के लिए भी राहुल गाँधी अहम हैं. एन राम कहते हैं कि राहुल गाँधी सबरीमला जैसे मुद्दों पर अपने नेताओं के फालतू बयान को रोकने में नाकाम रहे हैं. ऐसे में राहुल गाँधी की राजनीति यहाँ बहुत गंभीर नहीं हो पाई है.
कांग्रेस के एक नेता ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा, ''यह हैरान करने वाला है कि जो सवाल सरकार से किए जाने चाहिए थे, वे सवाल राहुल गाँधी से पूछे जाते हैं. राहुल गाँधी को लेकर मीडिया का पक्षपाती रवैया है.''
इंडिया जर्नलिजम रिव्यू के संपादक कृष्णा प्रसाद कहते हैं, ''राहुल गाँधी, सचिन तेंदुलकर की तरह हैं. तेंदुलकर बोलने से ज़्यादा खेलने में भरोसा रखते थे. राहुल गाँधी के लिए दक्षिण भारत जटिल राजनीति से बचने ठिकाना है. जो भी राहुल को सलाह दे रहा है, वो लंबी अवधि की राजनीति को लेकर चल रहा है. पुशअप्स तो केवल दिखावे के लिए है.''
कृष्णा प्रसाद कहते हैं, ''यह अमेरिका की शैली की राजनीति है. दरअसल, कांग्रेस वही खेल खेल रही है, जिसे बीजेपी ने छह साल पहले खेला था. मीडिया ने राहुल की पप्पू वाली छवि गढ़ी. लेकिन राहुल ने अपनी मज़बूती दिखाई और बिना चिंता किए अपना काम करते रहे. राहुल की राजनीति के दिखावे की उम्र बहुत कम है. अभी ये देखना बाक़ी है कि राहुल की राजनीति वोट हासिल करने में किस हद तक कामयाब रहती है.''
शशि कुमार को लगता है कि राहुल गाँधी परिपक्व हुए हैं. राहुल गाँधी ये भी बता रहे हैं उनकी अपनी शैली है. आप भी इस बात को जानते हैं कि नई पीढ़ी आज के वक़्त में दिखावे से शायद ही बहुत प्रभावित होगी.