क्या अटल की नक़ल कर रहे हैं राजनाथः नज़रिया
केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह भगवा ताक़तों की तरफ़ से पैदा हुए नफ़रत और संदेह भरे माहौल के बीच ख़ुद को अटल बिहारी वाजपेयी जैसे राजनेता के तौर पर पेश करने की कोशिशों में लगे हैं.
केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह भगवा ताक़तों की तरफ़ से पैदा हुए नफ़रत और संदेह भरे माहौल के बीच ख़ुद को अटल बिहारी वाजपेयी जैसे राजनेता के तौर पर पेश करने की कोशिशों में लगे हैं.
संभवतः अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के अंतिम ऐसे नेता रहे जिन्हें उदारवादी व्यक्तित्व का माना जाता है.
यह तो वक़्त ही बताएगा कि राजनाथ सिंह की कोशिशें लखनऊ में मौजूद उनके समर्थकों को कितनी रास आती हैं, जहां से वो एक बार फिर चुनावी मैदान में उतरे हैं.
क्या लखनऊ के लोग वाजपेयी की तरह राजनाथ को एक बार फिर उतनी ही सहृदयता से स्वीकार करेंगे?
इस सवाल का जवाब भले ही वक़्त के गर्भ में छिपा हो लेकिन राजनाथ सिंह के प्रचार को देखते हुए लगता है कि वे धर्म और जाति से ऊपर उठते हुए ख़ुद को लोगों के बीच का एक आम व्यक्ति साबित करने की कोशिश कर रहे हैं.
राजनाथ सिंह की राजपूत वोट बैंक में पहले से ही एक बनी-बनाई छवि रही है, लेकिन उन्होंने ब्राह्मण और कायस्थ मतदाताओं को भी लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. इन दोनों ही जातियों को लखनऊ में महत्वपूर्ण वोट बैंक के तौर पर समझा जाता है.
मुसलिम धार्मिक गुरुओं से मुलाक़ात
इन सबके बीच बीते मंगलवार को राजनाथ सिंह ने कुछ ऐसा किया जिसने उनके कई क़रीबियों और विरोधियों को अचरच में डाल दिया.
राजनाथ ने पूरा दिन लखनऊ में मौजूद अलग-अलग इस्लामिक धार्मिक नेताओं के बीच बिताया. उनके दिन की शुरुआत ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष मौलाना क़ल्बे सादिक़ से मुलाक़ात के साथ हुई.
अतंरराष्ट्रीय स्तर पर शिया विद्वान के तौर पर पहचाने जाने वाले मौलाना सादिक़ इन दिनों बीमार होने की वजह से अस्पताल में भर्ती हैं.
इसके बाद राजनाथ सिंह का अगला पड़ाव पहुंचा ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के मौलाना मोहम्मद अशफ़ाक़ और उनसे दूसरे स्थान पर मौजूद मौलाना याशूब अब्बास के निवास स्थान पर.
इसके साथ ही वे जाने माने शिया धार्मिक गुरु मौलाना आग़ा रूही के पास भी पहुंचे. कुछ-कुछ ऐसा ही रास्ता पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी अपनाते थे. जिनके लिए माना जाता था कि उन्हें लखनऊ में मौजूद शिया मुसलमानों का अच्छा समर्थन प्राप्त होता है.
इसी तरह से तीन दिन पहले राजनाथ सिंह ने एक और प्रमुख शिया नेता मौलाना क़ल्बे जव्वाद से मुलाक़ात की थी. मौलाना क़ल्बे जव्वाद ने एक आम सभा में राजनाथ सिंह को समर्थन देने की घोषणा भी की और कहा, ''मैं हर अच्छे इंसान का समर्थन करता हूं और इसमें कोई शक नहीं कि राजनाथ सिंह एक अच्छे इंसान हैं.''
सुन्नी धर्मगुरुओं से भी नज़दीकी
इसके बाद राजनाथ सिंह ने सुन्नी धर्मगुरुओं का रुख़ भी किया, क्योंकि भले ही लखनऊ में शिया मुसलमान अच्छी तादाद में रहते हों लेकिन फिर भी वे सुन्नियों से ज़्यादा नहीं हैं.
यही वजह है कि जब राजनाथ सिंह लखनऊ के इमाम और सबसे पुराने स्थानीय इस्लामिक संस्थान फ़िरंगी महल के प्रमुख मौलाना ख़ालिद रशीद के घर पहुंचे तो किसी को हैरानी नहीं हुई.
रशीद ने हालांकि दावा किया कि राजनाथ सिंह किसी राजनीतिक मक़सद से उनके पास नहीं आए थे.
उन्होंने कहा, ''राजनाथ सिंह मेरे पिता मौलाना अहमद मियां के काफ़ी क़रीबी रहे हैं इसलिए वे यहां आए, इस मुलाक़ात के कोई राजनीतिक मायने नहीं हैं.''
इन तमाम दौरों की अंतिम छाप के तौर पर राजनाथ सिंह नदवतुल-उलेमा पहुंचे. यह भारत का सबसे पुराना इस्लामिक संस्थान है जिसे नदवा के नाम से जाना जाता है. इस संस्थान में दुनियाभर से मुस्लिम छात्र पढ़ने आते हैं.
यहां राजनाथ सिंह ने नदवा के प्रमुख 80 बरस के मौलाना राबे हसन नदवी से मुलाक़ात की.
सभी वर्गों में पहचान
कुल मिलाकर देखा जाए तो राजनाथ सिंह भाजपा के उन नेताओं में अलग खड़े दिखते हैं जिनकी भगवाधारी पहचान नहीं है.
बीते कुछ सालों में भगवा ताक़तों और मुसलमान समाज के बीच खाई बढ़ती हुई देखी गई है लेकिन राजनाथ सिंह इस खाई के बीच भी किसी पुल की तरह प्रतीत होते हैं, जोकि मुसलमान समाज के भी क़रीब हैं.
इस तरह से देखें तो छह मई को होने वाले चुनाव में राजनाथ सिंह लखनऊ से एक मज़बूत उम्मीदवार के तौर पर नज़र आते हैं जिनका सभी तबक़ों में जनाधार दिखता है.
भले ही गठबंधन की ओर से समाजवादी पार्टी ने फ़िल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी पूनम सिन्हा को लखनऊ से उतारा हो और कांग्रेस ने एक और ग़ैर-राजनीतिक चेहरे प्रमोद कृष्णन को टिकट थमाया हो, लेकिन राजनाथ के लिए ये कोई बहुत बड़ी चुनौती पेश करते नहीं दिखते.
इसके बावजूद राजनाथ सिंह अपनी पार्टी की छवि से बाहर निकलते हुए मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं, ठीक अटल बिहारी वाजपेयी की तरह जो कई सालों तक लखनऊ के लोगों के चहेते बने रहे.
मुश्किलों को आसान करने के हुनर
मुश्किल हालात को आसान बनाने की राजनाथ सिंह की क्षमता पहली बार साल 1998 में देखने को मिली थी जब उन्होंने कल्याण सिंह की सरकार बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
उस समय बसपा प्रमुख मायावती ने कल्याण सिंह की सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था. तब राजनाथ सिंह ने अपने निजी संबंधों के आधार पर एक प्राइवेट एयरलाइन के ज़रिए कल्याण सिंह के समर्थन में तमाम विधायक जुटाए और अगली सुबह राष्ट्रपति के सामने बहुमत साबित कर दिखाया.
उस एयरलाइन ने पहले से तय कमर्शियल फ़्लाइट को रद्द कर राजनाथ सिंह की मांग को तरजीह दी थी.
इसी तरह जब कल्याण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी के बीच मुश्किल हालात पैदा हुए तो राजनाथ सिंह ने बिना एक भी शब्द कहे अटल बिहारी का पक्ष अपनाया.
यहां तक कि मीडिया ने उनसे कई तरह के मुश्किल सवाल किए लेकिन राजनाथ ने सिर्फ़ एक मुस्कान के ज़रिए सभी मुश्किलों को टाल दिया.
इसमें कोई शक नहीं कि अटल बिहारी के दौर के बाद अब राजनाथ के भीतर ही वह कला बाक़ी रह गई है जहां वे उन लोगों के भी क़रीब रहने का हुनर जानते हैं जो उनसे विचारधारा से मेल नहीं खाते हों.
एनडीए को एकजुट किया
साल 2014 के आम चुनाव के दौरान राजनाथ सिंह पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे थे और उन्होंने उस समय एनडीए गठबंधन को एकजुट बनाए रखा था.
कुछ-कुछ इसी तरह से अटल बिहारी वाजपेयी ने साल 1998 से लेकर साल 2004 तक एनडीए को टूटने नहीं दिया.
वाजपेयी के राजनीति से विदा लेने के दस साल बाद भाजपा को किसी ऐसे शख़्स की तलाश थी जो एक बार फिर एनडीए गठबंधन को एकसाथ ला सके.
ऐसे में राजनाथ सिंह ने वह काम किया और एक समान विचार रखने वाले दलों को साथ लेकर आए. भाजपा के नेतृत्व में 30 से अधिक राजनीतिक दल गठबंधन का हिस्सा बने और इस सब का श्रेय सिर्फ़ और सिर्फ़ राजनाथ सिंह को जाता है.
यह ज़रूर कहा जा सकता है कि इस गठबंधन की आधारशिला एक दशक पहले राजनाथ सिंह के राजनीतिक गुरु अटल बिहारी वाजपेयी ने रख दी थी. यही वजह है कि आज राजनाथ सिंह को दूसरे अटल के तौर पर देखा जा रहा है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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