CM केजरीवाल का सिर्फ दिल्ली वालों के इलाज का आदेश 'जीने का अधिकार' का उल्लंघन नहीं है ?
नई दिल्ली- दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने रविवार को ऐलान किया था कि अब से दिल्ली के सरकारी और प्राइवेट अस्पताल सिर्फ दिल्ली वालों के लिए ही रिजर्व रहेंगे। उन्होंने ये भी ऐलान किया था कि यह व्यवस्था तब तक जारी रहेगी, जबतक कोरोना वायरस का संकट दूर नहीं हो जाता। लेकिन, सवाल उठता है कि मुख्यमंत्री केजरीवाल का यह आदेश क्या देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं है ? देश की कोई भी सरकार किसी भी नागरिक से उसके Righ to Life कैसे छीन सकती है? आइए जानने की कोशिश करते हैं कि इस संबंध में हमारा संविधान क्या कहता है और जानकारों की इसपर क्या राय है।
'जीने का अधिकार' का उल्लंधन कर रही है दिल्ली सरकार ?
दिल्ली सरकार के फैसले की संवैधानिक पहलू पर बात करें उससे पहले यह जान लेते हैं कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जो फैसला लिया है, उसमें कहा क्या गया है। रविवार को हुई प्रेस कांफ्रेंस में मुख्यमंत्री केजरीवाल ने दावा किया था कि, 'हमें 7.5 लाख सुझाव प्राप्त हुए और 90 फीसदी लोगों का कहना है कि वे चाहते हैं कि दिल्ली के अस्पतालों के बेड दिल्ली वालों के लिए रिजर्व होना चाहिए।' उनके मुताबिक इन सुझावों पर आगे विचार करने के लिए उनकी सरकार ने एक 5 सदस्यीय एक्सपर्ट कमिटी बनाकर उसे बेड्स की उपलब्धता समझने की जिम्मेदारी सौंपी गई। उनके अनुसार कमिटी ने अपनी जो सिफारिशें दी हैं, उसके हिसाब से जून के आखिर तक कोविड-19 मरीजों के लिए 15,000 बेड की आवश्यकता पड़ेगी, इसलिए दिल्ली के अस्पतालों को दिल्ली के लोगों के लिए ही रिजर्व किया जाना चाहिए। क्योंकि, अगर यह सबके लिए खुले रहेंगे तो 9,000 बेड सिर्फ 3 दिन में ही भर जाएंगे।
मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है?
यहां हम इस बहस में नहीं जाएंगे कि पिछले तीन महीनों में उनकी सरकार ने बेड के मोर्चे पर क्या तैयारियां की थीं। लेकिन, हमें इस आदेश के संवैधानिक पहलू की गंभीरता को समझना बहुत जरूरी है। क्योंकि, भारतीय संविधान हर नागरिक को यहां तक कि विदेशियों को भी कुछ मौलिक अधिकार देता है, जिसे सरकारें भी नहीं छीन सकतीं। 'जीने का अधिकार' भी मौलिक अधिकारों में ही शामिल है। इस विषय पर पटना हाई कोर्ट के सीनियर एडवोकेट आदित्यनाथ झा से वन इंडिया ने खास बातचीत की, जिसमें उन्होंने बताया "संविधान के आर्टिकल-21 के मुताबिक कोई भी सरकार किसी से 'जीने का अधिकार' नहीं छीन सकती। विशेष परिस्थितियों में कानून के द्वारा ही इस अधिकार को सीमित करने का प्रावधान है। जबकि, दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने सिर्फ कैबिनेट से पास कराकर यह आदेश लागू किया है, जो कि अदालत में ठहरने लायक नहीं है। दिल्ली सरकार को बहुत आवश्यकता थी तो दिल्ली के निवासियों के लिए अस्पतालों में बेड्स की एक निश्चित कोटा तय कर सकती थी। लेकिन, दिल्ली के बाहर के लोगों पर सौ फीसदी रोक लगाना असंवैधानिक है। यहां तक कि 'जीने का अधिकार' से तो किसी विदेशी नागरिक को भी वंचित नहीं किया जा सकता, लेकिन दिल्ली में तो भारतीय नागरिकों पर ही यह पाबंदी लगा दी गई है.....जो कि पूरी तरह से मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।"
लोकतांत्रिक देश में उचित है यह आदेश ?
तर्क वेवजह नहीं है। मान लीजिए कि दिल्ली में कोई शख्स रह रहा है। या कोई विदेशी नागरिक ही लॉकडाउन की वजह से फंस गया है। अगर वह बीमार पड़ जाए और उसे फौरन इलाज की आवश्यकता हो तो दिल्ली सरकार उसे अपने सरकारी अस्पतालों या निजी अस्पतालों में इलाज से सिर्फ इसलिए रोक देगी कि वह दिल्ली का निवासी नहीं है। अलबत्ता किसी अस्पताल में बेड उपलब्ध नहीं होगा तो स्वाभाविक है कि उसे दूसरे अस्पताल में जाने के लिए कहा जा सकता है। लेकिन, न तो उसे दिल्ली सरकार अपने अधीन अस्पतालों में भर्ती होने देगी और न ही खर्च करने के बावजूद निजी अस्पतालों में ही इलाज की इजाजत देगी, क्या यह भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में उचित है?
'स्वास्थ्य का अधिकार' से कोई कैसे वंचित कर सकता है ?
हकीकत तो ये है कि दिल्ली सरकार का यह आदेश सिर्फ 'जीने का अधिकार' का ही उल्लंघन नहीं करता, 'समानता का अधिकार' का भी उल्लंघन करता है। इतना ही नहीं समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वास्थ्य का अधिकार को भी संविधान के आर्टिकल-21 के तहत ही माना है। पंजाब सरकार बनाम मोहिंदर सिंह चावला (1997) के केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, 'स्वास्थ्य का अधिकार 'जीवन का अधिकार' का अभिन्न अंग है। स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करना सरकार का संवैधानिक दायित्व है..'
एक वकील ने केजरीवाल को भेजा कानूनी नोटिस
इस बीच मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक एक ऐक्टिविस्ट और वकील गौरव कुमार बंसल ने केजरीवाल सरकार के इस आदेश को बेहद कठोर बताते हुए उसे फौरन वापस लेने के लिए एक कानूनी नोटिस भेजा है। इसमें कहा गया है कि दिल्ली के मरीजों और दिल्ली के बाहर के मरीजों का बंटवारा गैरकानूनी है और यह नागरिकों के जीने का अधिकार जैस मौलिक अधिकारों का तो हनन करता ही है, संविधान से मिली हुई व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी छीनता है। इस आधार पर उन्होंने केजरीवाल सरकार से यह आदेश तुरंत वापस लेने की मांग की है।
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