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बस्ते का बोझ कम कर पाना क्या वाक़ई मुमकिन है?

लेकिन सवाल ये है कि इसे लागू करना कितनी बड़ी चुनौती होगी. ये सवाल इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है कि देश में कोई एक ही बोर्ड तो है नहीं. बोर्ड अलग हैं तो उनका सिलेबस भी अलग है और सिलेबस अलग है तो किताबों की मोटाई भी. ऐसे में इन सरकारी गाइडलाइन्स को लागू करना कितनी बड़ी चुनौती है.

दिल्ली में प्रतिभा विद्यालयों के डिप्टी एजुकेशन ऑफ़िसर और द्वारका सर्वोदय विद्यालय के प्रिंसिपल टी.पी. सिंह मानते हैं कि इस गाइडलाइन्स को लागू कर पाना चुनौती तो है.

By BBC News हिन्दी
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मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय ने बच्चों की पीठ का बोझ कम करने के लिए नई गाइडलाइन्स जारी की हैं. इसमें क्लास के आधार पर बच्चों के बस्ते का वज़न तय किया गया है.

मसलन कक्षा एक और दो के लिए बस्ते का वज़न डेढ़ किलो तय किया गया है. तीसरी से पांचवी क्लास के लिए ये दो से तीन किलो है. छठवीं और सातवीं क्लास के लिए चार किलो और आठवीं-नौंवी के लिए साढ़े चार किलो और दसवीं के लिए पांच किलो.

जारी की गई गाइडलाइन्स में इस बात का भी ज़िक्र है कि पहली और दूसरी क्लास के बच्चों को कोई होमवर्क नहीं दिया जाए. न ही बच्चों को अलग से कुछ भी सामान लाने की ज़रूरत है.

इन गाइडलाइन्स को जारी करने का मक़सद बच्चों को बस्ते के बोझ से राहत देना है.

डीपीएस नोएडा की प्रधानाचार्या रेनू भी यही मानती हैं. हालांकि वो ये ज़रूर कहती हैं कि उनके स्कूल में पहले से ही ऐसी व्यवस्था है जहां बच्चों के कंधों पर बोझ नही पड़ता.

रेनू कहती हैं, "हमारे स्कूल में हर बच्चे का अपना कबर्ड है. इसलिए बच्चों को अतिरिक्त बोझ नहीं उठाना पड़ता है."

रेनू का मानना है कि पीठ पर बोझ सिर्फ़ पीठ पर बोझ नहीं होता है. इससे बच्चे का मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है. ऐसे में वो सरकार के इस क़दम को बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए उठाया गया एक ज़रूरी क़दम मानती हैं.

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लेकिन सवाल ये है कि इसे लागू करना कितनी बड़ी चुनौती होगी. ये सवाल इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है कि देश में कोई एक ही बोर्ड तो है नहीं. बोर्ड अलग हैं तो उनका सिलेबस भी अलग है और सिलेबस अलग है तो किताबों की मोटाई भी. ऐसे में इन सरकारी गाइडलाइन्स को लागू करना कितनी बड़ी चुनौती है.

दिल्ली में प्रतिभा विद्यालयों के डिप्टी एजुकेशन ऑफ़िसर और द्वारका सर्वोदय विद्यालय के प्रिंसिपल टी.पी. सिंह मानते हैं कि इस गाइडलाइन्स को लागू कर पाना चुनौती तो है. वो इसके पक्ष में तर्क भी देते हैं.

बतौर टीपी सिंह ये चुनौती तो है लेकिन नौंवी के पहली की कक्षाओं के लिए.

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वो कहते हैं, "पहली से आठवीं क्लास के लिए परेशानी ज़्यादा है क्योंकि तब तक बच्चों के पास सब्जेक्ट्स अधिक होते हैं लेकिन नौवीं के बाद से सब्जेक्ट कम हो जाते हैं और लगभग सारे बोर्ड भी यूनिफॉर्मिटी में आ जाते हैं. "

लेकिन वो ये ज़रूर कहते हैं कि ये एक बेहतर क़दम है.

टीपी सिंह सिर्फ़ स्कूल या सिलेबस को बच्चों की पीठ पर बोझ लादने का ज़िम्मेदार नहीं मानते. उनका मानना है कि सरकारी स्कूलों में जो बच्चे पढ़ते हैं उनमें से एक बड़ा वर्ग अनपढ़ परिवार से आता है. ऐसे में मां-बाप को लगता है कि बच्चे को सारी किताबें-कॉपी लेकर जाना चाहिए. उनका मानना है कि ये भी एक बड़ा कारण है कि बच्चों के बस्ते का बोझ बढ़ जाता है.

लेकिन अभिभावक इस फ़ैसले को कैसे देखते हैं?

ऊषा गुप्ता की बेटी सातवीं में पढ़ती है. वो कहती हैं कि ये फ़ैसला अच्छा है लेकिन कोई ऐसा क़ानून भी बनना चाहिए जहां बच्चे को दर्जनभर सब्जेक्ट पढ़ाने के बजाय वही पढ़ाया जाए जो उसकी प्रैक्टिकल जानकारी बढ़ाए.

ऊषा कहती हैं, "हमारे यहां शिक्षा व्यवस्था की हालत बड़ी कमज़ोर है. क्वालिटी एजुकेशन अब भी सपना है. छोटे-छोटे बच्चों को ऐसा होम वर्क या एक्टिविटी करने को कहा जाता है जो वो कर ही नहीं सकता. उसका होम वर्क मां-बाप करते हैं."

ऊषा कहती हैं कि बच्चे की किताबों से ज़्यादा वज़न तो दूसरी चीज़ों का होता है. कभी चार्ट पेपर, कभी फ़ाइल तो कभी कुछ...वो मानती हैं कि इस गाइडलाइन्स को लागू करना मुश्किल होगा.

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हालांकि बच्चों का बोझ कम करने की ये क़वायद नई नहीं है.

साल 1992 में प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी थी. जिसकी रिपोर्ट जुलाई 1993 में आई. रिपोर्ट में होमवर्क से लेकर स्कूल बैग तक के लिए कई सुधार सुझाए गए लेकिन वह अमल में नहीं आ सके.

साल 2006 में केंद्र सरकार ने क़ानून बनाकर बच्चों के स्कूल का वज़न तय किया, लेकिन यह क़ानून लागू नहीं हो सका.

लेकिन क्या बच्चे इस फ़ैसले से ख़ुश हैं?

सायमा 8वीं में पढ़ती हैं और वो कहती हैं कि उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि बैग कितना भारी है. सायमा कहती हैं, "मेरी स्कूल बस मेरी सोसायटी के गेट पर आ जाती है और स्कूल के अंदर तक जाती है. ऐसे में मुश्किल से ही बैग उठाना पड़ता है. तो इस बात से कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता."

लेकिन वो ये मानती हैं कि जो बच्चे दूर से आते हैं, पैदल आते हैं उनके लिए ये फ़ैसला अच्छा है.

लेकिन जिस सोच के तहत ये फ़ैसला लिया गया है वो कितना महत्वपूर्ण है?

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दरअसल, ये फ़ैसला बच्चों के स्वास्थ्य और उनके विकास को ध्यान में रखकर लिया गया है. जनरल फ़िजिशियन डॉ. अभिषेक कहते हैं कि ये एक अच्छा फ़ैसला है.

उनका कहना है, "रीढ़ की हड्डी हमारे शरीर को आकार देने का काम करती है. हमें पता नहीं चलता लेकिन हमारा ग़लत तरीक़े से चलना, उठना और बैठना इस पर बुरा असर डालता है. भारी बस्ते ढोने से बच्चे की रीढ़ की हड्डी पर तो असर होता है ही, उनका पोश्चर भी ग़लत हो जाता है."

वो इसका एक दूसरा पहलू भी बताते हैं.

अभिषेक कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि किसी को समझ नहीं आता कि बैग भारी हो रहे हैं और बच्चों पर इसका ग़लत असर हो रहा है. बाज़ार में ट्रॉली वाले स्कूल बैग इसी की देन हैं और ये आज से नहीं सालों से बिक रहे हैं."

पर वो इस बात से ख़ुश हैं कि देर से ही सही बच्चों के कंधे से ये बोझ हटेगा.

लेकिन क्या परेशानी आ सकती है?

बच्चों की हड्डी मुलायम होती है. ऐसे में ज़्यादा वज़न से उन्हें गर्दन, कंधे और कमर दर्द की शिकायत हो जाती है. कई बार हड्डी चोटिल भी हो सकती है.

भारी वज़न उठाने से कमज़ोरी और थकान रहने लगती है.

भारी बैग उठाकर चलने से बच्चे आगे की ओर झुक जाते हैं जिससे बॉडी पोश्चर पर असर पड़ता है.

गर्दन और कंधे में दर्द की वजह से चिड़चिड़पन रहने लगता है और सिर दर्द की शिकायत हो जाती है.

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English summary
Is it really possible to reduce the burden of the basket
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