क्या बिहार में बाढ़ एक 'घोटाला' है?
बिहार में बाढ़ कब से आ रही है, कहना संभव नहीं है. लेकिन भारत के आज़ाद होने के बाद पहली बार 1953-54 में बाढ़ को रोकने के लिए एक परियोजना शुरू की गई. नाम दिया गया 'कोसी परियोजना.'
1953 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा शुरू हुई इस परियोजना के शिलान्यास के समय यह कहा गया था कि अगले 15 सालों में बिहार की बाढ़ की समस्या पर क़ाबू पा लिया जाएगा.
लगभग हर साल की तरह इस साल भी बिहार में बाढ़ ने दस्तक दे दी है. पिछले क़रीब दो हफ़्तों से लगातार हो रही बारिश के कारण नदियां उफ़ान पर हैं. नेपाल से सटे सीमावर्ती ज़िलों में हाहाकार मचा हुआ है.
बिहार में पिछले साल भी बाढ़ आई थी. हालांकि, असर उतना ज़्यादा नहीं था. पर उससे एक साल पहले यानी साल 2017 में बाढ़ ने पूरे उत्तर बिहार में भीषण तबाही मचायी थी.
कोसी क्षेत्र में तटबंधों से सटे कुछ इलाक़े तो ऐसे हैं, जहां हर साल बाढ़ आती है. लाखों के जान-माल का नुक़सान होता है. ऐसा लगता है मानो बाढ़ यहां के लोगों की नियति बन चुकी हो.
बिहार में बाढ़ कब से आ रही है, कहना संभव नहीं है. लेकिन भारत के आज़ाद होने के बाद पहली बार 1953-54 में बाढ़ को रोकने के लिए एक परियोजना शुरू की गई. नाम दिया गया 'कोसी परियोजना.'
1953 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा शुरू हुई इस परियोजना के शिलान्यास के समय यह कहा गया था कि अगले 15 सालों में बिहार की बाढ़ की समस्या पर क़ाबू पा लिया जाएगा.
देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने साल 1955 में कोसी परियोजना के शिलान्यास कार्यक्रम के दौरान सुपौल के बैरिया गांव में सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि, "मेरी एक आंख कोसी पर रहेगी और दूसरी आंख बाक़ी हिन्दुस्तान पर."
1965 में लाल बहादुर शास्त्री द्वारा कोसी बराज का उद्घाटन किया गया. बैराज बना कर नेपाल से आने वाली सप्तकोशी के प्रवाहों को एक कर दिया गया और बिहार में तटबंध बनाकर नदियों को मोड़ दिया गया.
परियोजना के तहत समूचे कोसी क्षेत्र में नहरों को बनाकर सिंचाई की व्यवस्था की गई. कटैया में एक पनबिजली केंद्र भी स्थापित हुआ जिसकी क्षमता 19 मेगावॉट बिजली पैदा करने की है.
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क्या उद्देश्य पूरे हुए?
लेकिन सवाल ये उठता है कि कोसी परियोजना जिन उद्देश्यों के साथ शुरू की गई थी, क्या वे उद्देश्य पूरे हुए?
पहला जवाब मिलेगा, "नहीं." कहां तो 15 साल के अंदर बिहार में बाढ़ रोक देने की बात कही गई थी, वहीं आज 66 साल बाद भी बिहार लगभग हर साल बाढ़ की विभीषिका झेल रहा है.
बिहार में बाढ़ तभी आता है जब नदियों का जलस्तर बढ़ने लगता है और तेज़ बहाव के कारण तटबंध टूटने लगते हैं. बीते 66 सालों के दरम्यान कई बार ऐसी भी बाढ़ आयी है जो सबकुछ बहा ले गयी.
अगस्त 1963 में डलवा में पहली बार तटबंध टूटा था. फिर अक्तूबर 1968 में दरभंगा के जमालपुर में और अगस्त 1971 में सुपौल के भटनिया में तटबंध टूटे.
सहरसा में तीन बार अगस्त 1980, सितंबर 1984 और अगस्त 1987 में बांध टूटे. जुलाई 1991 में भी नेपाल के जोगिनियां में कोसी का बांध टूट गया था. 2008 में फिर से कुसहा में बांध टूटा, जिसने भारी तबाही मचाई. इस बार अब तक दो जगहों पर कमला बलान तथा झंझारपुर में तटबंध टूटे हैं.
फ़ैसला ग़लत था?
इस तरह कोसी परियोजना अपने सबसे बड़े उद्देश्य को साधने में अब तक नाकाम रही है. ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या तटबंध बनाकर नदियों को मोड़ने का फ़ैसला ही ग़लत था?
2017 में बागमती के किनारे बनाए जा रहे तटबंध को रुकवाने के लिए आंदोलन करने वाले पर्यावरण कार्यकर्ता अनिल प्रकाश कहते हैं, "बांध बनाकर नदी को मोड़ना हमेशा से ख़तरनाक रहा है."
"अंग्रेजों के समय में भी यह प्रस्ताव आया था. मगर उन्होंने इसपर अमल नहीं किया. क्योंकि वे जानते थे कि तटबंध तोड़कर आया पानी सीधे नदी से आ रहे पानी से ज़्यादा ख़तरनाक है."
वो कहते हैं, "नदी को बांध कर नहीं रख सकते. तटबंध तब टूटते हैं जब वे कमज़ोर होते हैं और जलस्तर बढ़ने के बाद बहाव को सह नहीं पाते. जहां तक बैराज की बात है तो लगातार सिल्ट और गाद आने से वहां की सतह उथली होती चली गई है."
"जलस्तर पहले से बढ़ा हुआ है. नेपाल में जम कर पहाड़ काटे जा रहे हैं. इसी तरह अगर चलता रहा तो अभी तो तटबंध टूट रहे हैं, कल को बैराज भी उखड़कर बह जाएगा."
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कितनी तैयारी होती है बाढ़ से निपटने की?
कोसी परियोजना शुरू में 100 करोड़ रुपए की परियोजना थी. जिसे 10 सालों में पूरा करने का लक्ष्य रखा गया था.
सुपौल के वीरपुर के पास रहने वाले कृष्ण नारायण मिश्र कहते हैं, "कोसी परियोजना को लेकर जो भी असल में काम हुआ था, इन्हीं 10 सालों के दौरान हुआ. चाहे वह कोसी के दो तरफ़ तटबंध बनाकर पानी को मोड़ना हो, पूर्वी और पश्चिमी कैनाल बनाकर सिंचाई की व्यवस्था करनी हो, या फिर कटैया में पनबिजली घर का निर्माण."
लेकिन कृष्ण नारायण मिश्र यह भी कहते हैं कि, "उसके बाद के सालों में मरम्मत, नए निर्माण, बाढ़ राहत और बचाव के नाम पर जम कर पैसे का बंदरबांट हुआ. लगभग हर साल इस मद में फंड पास होता है, एस्टिमेट बनता है, लेकिन काम क्या होता है? यदि तटबंधों का मरम्मत और बाढ़ से निपटने की तैयारियां पहले कर ली जाए तो फिर वे टूटेंगे कैसे?"
सरकारी दस्तावेज़ों के अनुसार अगर पिछले कुछ सालों के दौरान कोसी परियोजना के अंतर्गत बड़े कामों का ज़िक्र करें तो दो योजनाएं बनायी गईं.
पहली योजना बाढ़ राहत और पुनर्वास की थी. जिसके तहत विश्व बैंक से 2004 में ही 220 मिलियन अमरीकी डॉलर का फंड मिला था. उससे तटबंधों के किनारे रहने वाले बाढ़ प्रभावित लोगों के लिए पक्का घर बनाए जाने थे और ज़मीन देनी थी. कुल दो लाख 76 हज़ार लोगों को चिह्नित किया गया था जिनके मकान बनने थे.
बिहार सरकार के योजना विकास विभाग ने इस काम को करने का लक्ष्य 2012 रखा. पहले चरण में कुल 1 लाख 36 हज़ार मकान बनाने का लक्ष्य रखा गया.
लेकिन 2008 में कुसहा के समीप तटबंध टूटने से त्रासदी आ गई. पहले चरण का काम 2012 तक भी पूरा नहीं हो पाया. पिछले साल यानी 2018 तक काम चलता रहा. लेकिन मकाम बन पाए मात्र 66 हज़ार के क़रीब. पहले चरण के बाद अब उस योजना को बंद कर दिया गया है.
बाक़ी का पैसा क्या हुआ? कृष्ण नारायण मिश्र कहते हैं, "किसी को नहीं पता क्या हुआ पैसा? हां, 2008 की त्रासदी के बाद वीरपुर में कौशिकी भवन का निर्माण किया गया."
"मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस आलीशान भवन से उद्घाटन के समय कहा था कि यहीं से पूरे कोसी क्षेत्र के बाढ़ पर नज़र रखी जाएगी, लेकिन आप जा कर देखिए कौशिकी भवन में तो आपको समझ में नहीं आएगा कि आख़िर इतनी बड़ी इमारत किसके लिए बनायी गई थी. कोई काम करने वाला ही नहीं है उधर."
अब क्या स्थिति है कौशिकी भवन की?
हम जब कौशिकी भवन पहुंचे तो सच में हमें वहां कोई अधिकारी नहीं मिला. इक्के-दुक्के कर्मचारी थे जो इधर-उधर घूम रहे थे. पूछने पर पता चला कि साहेब लोग साइट पर गए हैं.
कोसी नवनिर्माण मंच के संस्थापक महेंद्र यादव कहते हैं कि, "वास्तव में कौशिकी भवन 2008 की कुसहा त्रासदी के बाद मरे हुए लोगों के लिए बनाया गया एक स्मारक है. जो बनाया तो गया था बाढ़ रोकने के लिए और पुनर्वास सुचारू करने के लिए, मगर अब केवल नाम के लिए रह गया है."
वर्ल्ड बैंक की वेबसाइट से पता चला कि अभी भी कोसी क्षेत्र में बिहार कोसी बेसिन डेवलेपमेंट प्रोजेक्ट नाम से एक योजना चालू है. 2015 में शुरू हुए इस प्रोजेक्ट का लक्ष्य 2023 रखा गया है. यह कुल 376 मिलियन अमरीकी डॉलर का प्रोजेक्ट है."
इसका मुख्य उद्देश्य बाढ़ के संभावित ख़तरे से निपटना है तथा जल का वितरण कर कोसी क्षेत्र के किसानों के लिए सिंचाई की सुविधा उपलब्ध करानी है.
रिपोर्टिंग के दौरान कई जगहों पर तटबंधों की मरम्मती होती दिखी. स्थानीय इंजीनियरों ने बताया कि यह काम इसी योजना के अंतर्गत चल रहा है.
ऐेसे में जब कोसी का पानी तटबंधों को तोड़ने लग गया हो, सभी जगह तटबंधों के पानी ने छू लिया है, तब मरम्मत का काम करने का मतलब क्या है?
अररिया ज़िले के डीएम वैजनाथ प्रसाद कहते हैं, "कोई मतलब नहीं है. अब तो पानी आ गया है. तटबंधों की मरम्मती तो तब की जानी थी जब पानी प्रवेश नहीं कर पाया था. हमारे यहां तटबंधों पर काम नहीं चल रहा है. हम राहत और पुनर्वास के काम पर फोकस किए हैं."
स्थानीय पत्रकार दिनेश चंद्र झा कहते हैं, "यही तो घोटाला है. जहां तक पानी पहुंच गया है वहां कंक्रीट और बालू के बैग डालकर क्या मतलब है. किसी को कैसे दिखाइएगा कि कितने बैग डाले गए. क्योंकि सब तो पानी के नीचे है. 100 बैग डालकर हज़ार का भी एस्टिमेट बनाएं तो कोई जांच करने वाला नहीं है. अगर कोई जांच करेगा भी तो क्या? कॉन्ट्रैक्टर के लिए यह कहना बड़ा आसान हो जाता है कि मैंने सबकुछ किया था मगर धार सब बहा ले गई. "
इस प्रोजेक्ट का एक मुख्य उद्देश्य यह भी है कि कोसी के पानी को नहरों के ज़रिए निकाल कर सिंचाई की सुविधा सुनिश्चित की जाए.
इसके लिए दो कैनालों (पूर्वी से पश्चिमी) से वितरणी नहरें निकालनी थी. फिलहाल तो सब जगह पानी ही पानी है क्योंकि बाढ़ आई है. लेकिन स्थानीय निवासी कहते हैं कि वितरणी में अब पानी नहीं आता. कैनाल में तो पानी रहता है लेकिन उन कैनालों से जो छोटी नहरें निकाली गईं थीं, उनपर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया.
कृष्ण नारायण मिश्र पानी में डूबे एक पंपिंग सेट को दिखाते हुए कहते हैं, "अगर वितरणी में पानी ही आता तो पंपिंग सेट लगाने की क्या ज़रूरत पड़ती!"
कोसी परियोजना के अंतर्गत कटैया में जो पनबिजली घर बनाया गया था, उसकी भी हाल बेहाल ही है. कहां तो इसे 19 मेगावॉट बिजली का उत्पादन करना था, वहीं अब उत्पादन तो दूर, इसके मोटर और संयत्र को चालू रखने के लिए बाहर से 20 मेगावॉट बिजली लेनी पड़ती है.
स्थानीय इंजीनियर कहते हैं कि कुछ सालों पहले इसे दोबारा चालू किया गया था. 12 मेगावॉट बिजली का उत्पादन भी होने लगा, लेकिन फिर रख रखाव और मेंटेनेंस नहीं हो पाया.
कोसी परियोजना को लेकर सबसे ख़राब बात यह है कि इसकी नाकामियों पर कोई बात नहीं करना चाहता. अब जबकि बाढ़ से हाहाकार मचा है, अधिकारी सवालों का जवाब देने से बच रहे हैं. अपने ऊपर के अधिकारियों पर थोपने लगे हैं.
जब हमने बात की जल संसाधन विभाग में तो चीफ़ इंजीनियर राजेश कुमार ने कहा कि इसके लिए आपदा विभाग से बात करिए.
आपदा प्रबंधन विभाग के प्रिंसिपल सेक्रेटरी कहते हैं, "इस वक़्त हमारा सारा ध्यान बाढ़ से निपटने पर फोकस करने पर है. इसके पहले क्या हुआ, नहीं हुआ, इसका हिसाब तो बाद में किया ही जाएगा."
कोसी परियोजना पर सवालों का जवाब देने से प्रत्यय अमृत बचते नज़र आए. साफ़ कहा कि परियोजना के अंतर्गत काम जल संसाधन विभाग के तहत होता है, हिसाब उनसे लिया जाए."
प्रत्यय अमृत जिन बातों का हिसाब लेने के लिए कहते हैं, उसका एक सच और भी है. कोसी नवनिर्माण मंच के महेंद्र यादव कहते हैं, "आज तक 2008 के हज़ारों बाढ़ पीड़ितों को मुआवज़ा नहीं मिल पाया है."
"कुसहा की त्रासदी के समय जो जांच कमेटी बनाई गई थी, उसने अपने रिपोर्ट में कहा था कि यह सबकुछ सिस्टम के फेलियर और लापरवाही की वजह से हो रहा है. लेकिन किसी पर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई."
स्पष्ट है कि कोसी परियोजना के नाम पर बेहिसाब पैसा ख़र्च हुआ है. अभी भी हो रहा है. लेकिन इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि जिन कामों के लिए पैसा ख़र्च किया गया वो आज तक नहीं हो पाए.