क्या मोदी विरोधी गठबंधन की कमजोर कड़ी है कांग्रेस? उपचुनाव नतीजों ने उठाए सवाल
नई दिल्ली। क्या कांग्रेस ही मोदी विरोधी गठबंधन की कमजोर कड़ी है? ये सवाल अहम हो गया है। ताजा उपचुनाव के नतीजे इस सवाल को पैदा करते हैं। यूपी में 2 लोकसभा सीट, बिहार में एक लोकसभा और दो विधानसभा चुनाव नतीजों से ये सवाल पैदा हो रहे हैं।
भभुआ
में
कांग्रेस
जीत
जाती
तो
नज़ारा
कुछ
और
होता
अगर
कांग्रेस
ने
भभुआ
में
बेहतर
प्रदर्शन
किया
होता
और
वहां
बीजेपी
को
जीतने
से
रोक
चुकी
होती,
तो
आज
मोदी
विरोधी
गठबंधन
की
राजनीति
में
कांग्रेस
ऊंचे
मनोबल
के
साथ
खड़ी
रहती।
सवाल
ये
भी
उठता
है
कि
अगर
कांग्रेस
की
जगह
आरजेडी
ने
खुद
अपना
उम्मीदवार
दिया
होता
तो
क्या
नतीजे
भिन्न
हो
सकते
थे?
निश्चित
रूप
से
इस
सवाल
के
सामने
कांग्रेस
के
लिए
भविष्य
में
अपनी
दावेदारी
कमजोर
दिखेगी।
कांग्रेस
को
हर
जगह
से
इसी
किस्म
का
धक्का
लग
रहा
है।
कांग्रेस के नाम से संकोच बरकरार
दरअसल बीजेपी का उदय ही कांग्रेस विरोध के नाम पर हुआ है। जनता तुरंत बीजेपी के विकल्प के तौर पर कांग्रेस को स्वीकार नहीं कर पा रही है। मोदी विरोधी गठबंधन के मार्ग में कांग्रेस के लिए यह बड़ी चिन्ता का विषय है। उपचुनाव में कांग्रेस के संदर्भ में यूपी की चर्चा इसलिए बहुत जरूरी नहीं लगती क्योंकि कांग्रेस यहां चुनाव लड़कर ही एसपी-बीएसपी की मदद कर रही थी। हार वह चुनाव लड़ने से पहले ही मान चुकी थी।
कांग्रेस के लिए मुश्किल था बीजेपी की सीट छीनना
उपचुनाव में एनडीए का सूपड़ा साफ हो जाता अगर कांग्रेस ने भभुआ सीट जीत ली होती। मगर, क्या कांग्रेस के लिए यह आसान था? आसान तो कतई नहीं था क्योंकि यह सीट कांग्रेस को बीजेपी से छीनना होती। मगर, मुश्किल काम करके ही तो मुकाम पाया जाता है। भभुआ बीजेपी की सीट थी। बीजेपी उम्मीदवार रानी पांडे ने अपने पति की खाली की हुई सीट पर चुनाव लड़ रही थीं। मगर, जहां उनके पति ने पिछला चुनाव 7,444 मतों से जीता था, रिंकी पांडे ने 14,866 मतों से चुनाव जीतकर दिखाया। दूसरी बात ये भी है कि पिछले चुनाव में बीजेपी ने जेडीयू प्रत्याशी को हराया था और वह महागठबंधन का प्रत्याशी था। इस बार बीजेपी और जेडीयू एक होकर चुनाव लड़ रहे थे।
आरजेडी ने जहानाबाद में जीत का अंतर बढ़ाया
आरजेडी ने जहानाबाद में अपनी सीट बचायी, मगर उसने जीत का अंतर बढ़ाया। यह गठबंधन की ताकत है। जहानाबाद में जीतन राम मांझी का समर्थन भी काम आया। इससे भी जीत की राह आसान हुई। मगर, अररिया लोकसभा सीट पर जीत का अंतर घटा, तो भी यह उत्साह घटाने वाली बात नहीं है। ऐसा इसलिए कि आरजेडी यह चुनाव बीजेपी और जेडीयू की मिली जुली ताकत के खिलाफ लड़ रहा था। इसमें सीट बच गयी, यही उपलब्धि है।
आरजेडी के मुकाबले कांग्रेस के पास नहीं था सक्षम नेतृत्व
एक बड़ा कारण ये भी है कि आरजेडी के पास तेजस्वी के रूप में नेतृत्व था, जबकि कांग्रेस के पास ऐसा कोई स्थापित नेतृत्व नहीं है। इसलिए कांग्रेस अगर अपने अंतर में झांककर देखे तो उसे यह बात समझनी होगी कि उसके पास बिहार में नेतृत्व का अभाव है। उपचुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके नेता और कई एमएलसी जेडीयू में शामिल हो गये थे।
अररिया लोकसभा सीट कर तेजस्वी ने दिखाया अपना ‘तेज’
अगर अररिया लोकसभा सीट की बात करें तो यहां से आरजेडी गठबंधन को सिर्फ दो विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली, जबकि चार विधानसभा सीटों पर गठबंधन पिछड़ गया। इस लिहाज से ये बात साफ है कि अररिया सीट पर भी आरजेडी की नहीं, गठबंधन की हुई है। अररिया में आरजेडी प्रत्याशी सरफराज आलम ने 61 हज़ार से ज्यादा वोटों से जीत हासिल की। यह अंतर पिछले चुनाव की तुलना में आधा है। आरजेडी को उन इलाकों में ही बढ़त मिल पायी जहां मुसलमानों की तादाद ज्यादा थी। इतना जरूर है कि तेजस्वी ने अपने जनाधार को खिसकने नहीं दिया और अपने नेतृत्व को स्थापित किया।
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