इच्छा मृत्यु की राह पर चल पड़ी है कांग्रेस?: नज़रिया
कांग्रेस मौजूदा राजनीति के संभवत: अपने सबसे बड़े संकट से जूझ रही है.
पार्टी की उम्मीद कहे जा रहे युवा अध्यक्ष राहुल गांधी ने पद से इस्तीफ़ा दे चुके हैं और कार्यसमिति के सामने इस्तीफ़ा सौंपने के पचास दिन के बाद भी नए नेतृत्व का चुनाव नहीं हो पाया है.
उधर लगातार प्रदेश इकाइयों से कांग्रेस के लिए बुरी ख़बरें आ रही हैं.
कांग्रेस मौजूदा राजनीति के संभवत: अपने सबसे बड़े संकट से जूझ रही है.
पार्टी की उम्मीद कहे जा रहे युवा अध्यक्ष राहुल गांधी ने पद से इस्तीफ़ा दे चुके हैं और कार्यसमिति के सामने इस्तीफ़ा सौंपने के पचास दिन के बाद भी नए नेतृत्व का चुनाव नहीं हो पाया है.
उधर लगातार प्रदेश इकाइयों से कांग्रेस के लिए बुरी ख़बरें आ रही हैं. कर्नाटक में वह जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) के साथ अपनी गठबंधन सरकार बचाने के लिए संघर्ष कर रही है और गोवा में उसके दो तिहाई विधायकों ने रातोंरात भाजपा का पटका पहन लिया है. मध्य प्रदेश में भी मुख्यमंत्री कमलनाथ की बड़ी ऊर्जा विधायकों को एकजुट रखने में ख़र्च हो रही है.
कांग्रेस की ऐसी हालत का ज़िम्मेदार कौन है, क्या पार्टी ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के 'कांग्रेस मुक्त भारत' के सपने की ओर बढ़ चली है और इससे उबरने का क्या कोई रास्ता नज़र आता है?
इन्हीं सवालों के साथ बीबीसी संवाददाता कुलदीप मिश्र ने कांग्रेस की सियासत पर नज़र रखने वाले दो वरिष्ठ पत्रकारों विनोद शर्मा और स्वाति चतुर्वेदी से बात की.
कांग्रेस राजनीति करना ही नहीं चाहती: स्वाति चतुर्वेदी का नज़रिया
'कांग्रेस मुक्त भारत' का सपना नरेंद्र मोदी और अमित शाह नहीं, बल्कि ख़ुद कांग्रेस पार्टी साकार कर रही है. ऐसा लगता है कि उन्होंने ख़ुद इच्छामृत्यु का फ़ैसला कर लिया है.
मैं एक पत्रकार हूं और चुनाव नतीजे आने के पहले ही मैंने लिखा था कि भाजपा यह चुनाव जीतती है तो कांग्रेस की तीनों प्रदेश सरकारें ख़तरे में आ जाएंगी. एक पत्रकार को अगर ये बात पता है तो कांग्रेस के नेता किस दुनिया में रह रहे हैं.
कर्नाटक की वह तस्वीर याद करिए जब मुंबई में कांग्रेस नेता डीके शिवकुमार सरकार बचाने की कोशिश में कितने अकेले नज़र आ रहे थे. जब यह बात ट्विटर पर आ गई तो हाल ही में मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष मिलिंद देवड़ा का बयान आया कि उन्होंने डीके शिवकुमार से फोन पर बात कर ली है. क्या आज कल कांग्रेस नेता शक्तिप्रदर्शन और समर्थन फोन पर करने लगे हैं?
मध्य प्रदेश में ये हाल है कि मुख्यमंत्री कमलनाथ ने एक-एक मंत्री को दस-दस विधायकों पर नज़र रखने की ज़िम्मेदारी दी है ताकि वे टूटे नहीं. ऐसे सरकार कैसे चलेगी?
ये हाल तब है, जब हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र में इसी साल चुनाव होने हैं. यहां सीधे भाजपा और कांग्रेस की टक्कर है. एक ज़माने में कांग्रेस की हाईकमान बड़ी शक्तिशाली समझी जाती है जो अब लगता है कि बिल्कुल ख़त्म ही हो गई है.
राहुल गांधी को इस्तीफ़ा दिए पचास दिन हो गए. वो दो दिन पहले अमेठी गए. अच्छा होता कि वो मुंबई जाते और वहां कांग्रेस नेता डीके शिवकुमार के बगल में खड़े होते, अपनी मुंबई इकाई को बुलाते, उनके पास तीन पूर्व मुख्यमंत्री हैं, उन्हें बुलाते और एक संदेश देते.
राजनीति सड़कों पर होती है, सोशल मीडिया पर नहीं. पर आज कल ऐसा लगता है कि कांग्रेस राजनीति करना ही नहीं चाहती.
सही बात है कि विपक्ष के बिना लोकतंत्र हो ही नहीं सकता. लेकिन विपक्ष ख़ुद को ख़त्म कर रहा है तो हम इसमें भाजपा को कैसे दोष दे सकते हैं.
यहां तक कि इतना समय बीत जाने के बाद भी नेतृत्व परिवर्तन पर न कोई गंभीरता है, न कोई नेता है.
इसके पीछे एक वजह ये भी हो सकती है कि कांग्रेस ऐसी पार्टी है जिसके केंद्र में वंशवाद है. वहां अब तक ये व्यवस्था थी कि शीर्ष पद गांधी परिवार के साथ रहेगा और बाक़ी सब उनके नीचे होंगे. और गांधी परिवार उन्हें चुनाव जिताएगा. अब गांधी परिवार चुनाव जिता नहीं पा रहा.
अब जो भी नया अध्यक्ष बनेगा, उसे ताक़त के दूसरे केंद्र गांधी परिवार से भी डील करना होगा. कांग्रेस जिस तरह की पार्टी है, वे लोग सब गांधी परिवार की तरफ़ जाएंगे. दरबारी परंपरा इस देश में कांग्रेस के साथ आई है.
मेरी ख़ुद कई नेताओं से बात हुई है और वे कहते हैं कि हमें इस पद से क्या मिलेगा? हम ये पद क्यों लें? एक तो हमें गांधी परिवार की कठपुतली की तरह काम करना होगा और सारी पार्टी हम पर ही हमले करेगी.
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धागे से बंधा पत्थर और कांग्रेस की केंद्रीय ताक़त: विनोद शर्मा का नज़रिया
अभी जो हुआ है, वो बहुत ही विचलित करने वाला है. एक वैज्ञानिक सिद्धांत है कि केंद्रीय बल, जिसे 'सेंट्रिफ्यूगल फोर्स' कहते हैं, जब वो ख़त्म हो जाता है तो यही होता है.
जब आप किसी धागे पर पत्थर बांधकर उसे घुमा रहे हों और बीच में उसे छोड़ दें तो पत्थर धागे समेत छिटककर दूर जा गिरता है. यही हो रहा है. कांग्रेस का नेतृत्व जो उसका केंद्रीय बल था, वो आज नदारद है. इसका असर उसकी प्रांतीय इकाइयों पर दिख रहा है. ख़ासकर उन प्रांतों में जहां कांग्रेस कमज़ोर हैं और जहां नेताओं की नीयत भी ख़राब हैं, वहां टूट-फूट हो रही है.
मैं गोवा को इस संदर्भ में नहीं गिनूंगा. गोवा का 'आयाराम गयाराम' वाला इतिहास रहा है. वहां के विधायक एक पार्टी में स्थिर नहीं रहे और वे दल बदलने में माहिर हैं. लेकिन कर्नाटक में जो हो रहा है और उससे पहले तेलंगाना में जो हुआ, वो परेशान करने वाली स्थिति है.
जहां तक कांग्रेस मुक्त भारत के नारे का ताल्लुक़ है, वो नारा जिसने भी दिया हो, मैं नहीं समझता कि वो आदमी लोकतंत्र में विश्वास रखता है. देश को एक मज़बूत विपक्ष की ज़रूरत होती है.
मनोविज्ञान में 'एंटी नेस्ट सिन्ड्रोम' होता है. जब चिड़िया के बच्चे घोंसला छोड़कर उड़ जाते हैं तो उनकी मां डिप्रेशन में आ जाती है. ये 134 बरस की पार्टी राहुल गांधी के घर छोड़ जाने से डिप्रेशन के दौर से गुज़र रही है. उसे समझ नहीं आ रहा है कि फ़ैसला कैसे ले.
'काफ़ी दोष राहुल का, पर सारा नहीं'
अगर आप ये चाहते हैं कि इसका सारा दोष मैं राहुल गांधी पर मढ़ दूं, तो उन्हें सारा दोष तो नहीं लेकिन बहुतेरा दोष ज़रूर दूंगा. अगर वो पद छोड़ना चाहते थे तो उससे पहले उन्हें अपने अंतरिम उत्तराधिकारी के चुनाव की प्रक्रिया शुरू करानी चाहिए थी. उस अंतरिम नेता के तत्वाधान में कार्यसमिति या नए अध्यक्ष के चुनाव हो सकते थे. ऐसे चिट्ठी लिखकर चले जाना कोई अच्छी प्रथा नहीं है.
अगर आप जा रहे हैं तो आप अपने तमाम नेताओं को बुलाइए, एक समागम कीजिए, अपनी बात रखिए और कहिए कि अध्यक्ष पद पर न रहते हुए भी आप पार्टी में सक्रिय रहेंगे. ये सब उन्हें करना चाहिए था जिससे कार्यकर्ता का हौसला बना रहता, उसे लगता कि यह नेतृत्व परिवर्तन हो रहा है लेकिन पार्टी विघटित नहीं हो रही.
जब मैं नेतृत्व परिवर्तन की बात करता हूं तो मैं व्यवस्था परिवर्तन की भी बात करता हूं. अगर आपको याद हो तो मशीरुल हसन साहब ने तीन-चार अंकों में कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्तावों का एक सारांश प्रकाशित किया. वो जलवा था उस समय कांग्रेस कार्यसमिति का कि उसके प्रस्ताव देश का राजनीतिक एजेंडा तय करते थे.
'सामूहिक नेतृत्व की ज़रूरत'
आपको कांग्रेस कार्यसमिति को एक सामूहिक नेतृत्व के स्वरूप में स्वीकार करना चाहिए. कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव हों. वहां जो साठ-सत्तर लोग बैठते हैं, उनकी जगह कोई 12 या 21 लोग बैठे हों. जो संजीदा हों और विवेकशील हों और जिनका पार्टी में सम्मान हो.
ये सामूहिक नेतृत्व राजनीतिक फ़ैसले लेने में नए अध्यक्ष की मदद करे. मैं समझता हूं कि इस नए सामूहिक नेतृत्व में गांधी परिवार की भी भूमिका हो सकती है.
ये बात सच है कि गांधी परिवार कांग्रेस के लिए बोझ भी है और ताक़त भी है. बोझ इसलिए कि उसके साथ कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप नत्थी होता है. लेकिन हमें ये समझना चाहिए कि गांधी परिवार लोकतांत्रिक वंशवाद का उदाहरण है. वो चुनाव लड़कर आते हैं, चुनाव में हारते और जीतते हैं.
लोकतांत्रिक वंशवाद के ऐसे उदाहरण पूरे दक्षिण एशिया और पूरी दुनिया में हैं. मैं नहीं कहता कि ये अच्छी बात है. इसके बिना अगर आप काम चला सकते हैं तो चलाइए. लेकिन मैं समझता हूं कि आने वाले वक़्त में गांधी परिवार की एक भूमिका होगी और वह भूमिका फ़ैसले लेने की सामूहिकता तक सीमित होना चाहिए. ऐसा न हो कि वो पार्टी के भीतर ताक़त का एक समांतर केंद्र बन जाएं.
इसके लिए मानसिक बदलाव लाना होगा. रवैया बदलना होगा. संगठन में बदलाव करने होंगे और फ़ैसला लेने की प्रक्रिया को बदलना होगा. सामूहिक नेतृत्व में ही कांग्रेस को आगे बढ़ना चाहिए.
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं. इसमें शामिल तथ्य और विचार बीबीसी के नहीं हैं और बीबीसी इसकी कोई ज़िम्मेदारी या जवाबदेही नहीं लेती है.)