तो 'मंगेतर' की वजह से हारीं इरोम शर्मिला?
अपनी पार्टी बनाकर चुनावी मैदान में उतरीं इरोम को महज़ 90 वोट मिले.
इरोम शर्मिला की जीत की उम्मीद करना हवा में शीश महल बनाने जैसा था.
मुझे तो लगता है कि इरोम शर्मिला को भी इसका अहसास हो चुका था कि उनके नए संघर्ष में 'विजय' एक शब्द भर है.
लेकिन चूंकि लड़ना उनकी आदत का हिस्सा है तो वो आख़िरी वक़्त तक लड़ती रहीं.
उस क़ैद से आज़ाद हो पाएँगी इरोम शर्मिला ?
मगर सिर्फ़ लड़ने से जीत हासिल नहीं हो सकती, जीत हासिल करने के लिए रणनीति भी चाहिए जो 44-वर्षीय मानवाधिकार कार्यकर्ता के पास नहीं थी.
उनके चुनावी क़ाफ़िले में समर्थकों की तादाद सुरक्षाकर्मियों के मुक़ाबले नगण्य होती, भाषण सुनने या मिलने वालों की भीड़ का दूर-दूर तक नामो निशान तक न होता और जो आते भी उनमें से अधिक सिर्फ़ उन्हें देखने को - 16 लंबे सालों तक भूख हड़ताल करनेवाली 'देवी' शर्मीला को.
विडंबना ये भी है कि इरोम शर्मिला को - जिसने राज्य में सेना को मिले विशेषाधिकार के ख़ात्मे के लिए 16 सालों तक भोजन का त्याग किया, जिसे ज़िंदा रखने के लिए नाक के रास्ते लिक्विड अदालत के हुक़्म से दिया जाता था, जो महज़ आधे घंटे से कम वक़्त के लिए बाहरी लोगों से मिल पाती थीं, पिछले साल अनशन तोड़ने के फ़ैसले के बाद मणिपुरियों ने उन्हें बाहरी मान लिया था.
कई ने मुझसे बातचीत के दौरान कहा कि उनके मंगेतर/बॉयफ्रेंड डेसमंड आयरलैंड में रहते हैं, वो मणिपुरी नहीं हैं.
'विदेशी' का जो मुद्दा सोनिया गांधी के मामले में कुछ लोगों ने कभी उठाया था वो इरोम और डेसमंड केस में दूसरी तरह से काम कर रहा था.
डेसमंड के भारतीय जासूस होने, इरोम शर्मिला को अनशन तोड़ने को प्रेरित करने की बात भी मणिपुर की गलियों-सड़कों का चक्कर लगाती रही.
इरोम के पास आइडिया था, उन्होंने मणिपुर के सबसे शक्तिशाली राजनेता इबोबी सिंह को चैलेंज किया, कुछ उसी अंदाज़ में जैसे आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने लोकसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी को किया था.
जीते तो ख़ैर अरविंद केजरीवाल भी नहीं थे, लेकिन उनके पास एक रणनीति थी, तब की भी, और आगे की भी.
केजरीवाल के समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया पर मौजूद था, धन की वैसी कमी नहीं थी जो इरोम शर्मीला के पास देखने में साफ़ नज़र आती.
सो केजरीवाल के नाम की जाप हर वक़्त सुनने को मिलती रही, बनारस में उनके चुनाव प्रचार और हार के एलान तक और उसके बाद भी.
इरोम के नाम की जाप स्थानीय मीडिया में नहीं बाहरी मीडिया में होती रही, और ये बात भी स्थानीय लोगों में मज़ाक़ और व्यंग्य का निशाना रही.
इरोम मुख्यमंत्री बनना चाहती थीं, लेकिन मुख्यमंत्री की दावेदारी करनेवाले राजनीतिक दल पीपल्स रिसर्जेंस एंड जस्टिस एलांयस ने चुनावी मैदान में महज़ तीन ही उम्मीदवार उतारे थे!
वोटरों ने इरोम शर्मिला को गंभीरता से नहीं लिया लेकिन क्या वो सीरियस थी?
चुनाव के दौरान, उनकी बातों में डेसमंड और चुनाव के बाद शादी की बात बार-बार होती रहीं.
और वो डेसमंड इरोम के जीवन के बड़े संघर्ष के दौरान नदारद दिखे.
नतीजा सामने है 90 वोट मिले इरोम शर्मिला को. उनके बाकी दो उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गई. नोटा को, यानी वैसे लोग जिन्हें कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं था, 143 लोगों ने अपना समर्थन दिया।