ब्रिटेन को पछाड़कर दलवीर भंडारी कैसे बने ICJ के जज
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भारत ने कैसे हासिल की ब्रिटेन के ख़िलाफ़ जीत.
हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय सयुंक्त राष्ट्र की प्रमुख कानूनी संस्था है जिसका काम दुनिया के तमाम देशों के बीच जारी कानूनी विवाद की सुनवाई करना है. लेकिन इस अदालत का काम इतना तकनीकी होता है कि इसे अक्सर अख़बारों के पहले पन्नों पर जगह नहीं मिल पाती है.
ऐसे में ये कोई ताज्ज़ुब की बात नहीं है कि लोगों को ये ना पता हो कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अब तक एक ब्रिटेन का एक जज हमेशा इस कोर्ट के 15 जज़ों में शामिल रहा है. लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. अंतरराष्ट्रीय अदालत में जज के चुनाव के दौरान भारत ने ये बाजी ब्रिटेन से जीत ली है.
आईसीजे से ब्रिटेन की अनुपस्थिति की अहमियत कोर्ट के साथ दुनिया में ब्रिटेन के प्रभुत्व को लेकर भी है.
भारत ने कैसे जीती ब्रिटेन से ये जंग?
अंतरराष्ट्रीय अदालत में हर तीन सालों में 15 में से पांच जजों के पद पर चुनाव होता है. ब्रिटेन के जज सर क्रिस्टोफर ग्रीनवुड को इस चुनाव में अगले नो सालों के कार्यकाल के लिए दोबारा निर्वाचित होने की उम्मीद थी.
ग्रीनवुड एक बेहद प्रतिष्ठित वकील होने के साथ-साथ लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रोफ़ेसर रह चुके हैं. लेकिन इस बार यूएन में लेबनान के पूर्व राजदूत डॉ. नवाफ सलाम ने भी अपनी दावेदारी कर दी. ऐसे में अब पांच पदों के लिए पांच की जगह छह उम्मीदवार दावेदारी कर रहे थे.
यूएन में लंबा समय बिताने वाले डॉ. सलाम ने अपने संबंधों के दम पर एशिया के लिए रिज़र्व स्लॉट पर कब्जा जमा लिया है. ऐसे में भारत के दलवीर भंडारी को उन सीटों पर अपनी दावेदारी करनी पड़ी जो सामान्यत: यूरोपीय जजों के लिए खाली रहती है.
भारत सरकार की मेहनत काम आई
भारत के मामले में ये ब्रिटेन को चुनौती देना था. हाल के दिनों में पांच में से चार सीटों पर जजों की नियुक्ति होने के बाद दलवीर भंडारी और सर क्रिस्टोफर ग्रीनवुड आमने-सामने थे. भंडारी को सयुंक्त राष्ट्र की आम सभा का समर्थन हासिल था तो वहीं ग्रीनवुड को यूएन सुरक्षा समिति से समर्थन मिल रहा था.
लेकिन इस रेस में जीतने वाले को दोनों संस्थाओं की जरूरत थी. ऐसे में कई बार मतदान होने के बाद भी कोई फ़ैसला नहीं निकल सका. भारत सरकार ने इस मामले में भारी मेहनत की. कई तरह से जोड़-तोड़ लगाई गई.
भंडारी के लिए समर्थन जुटाने के लिए कोशिशें अपने चरम पर थीं. भारतीय अखबारों में ब्रिटेन द्वारा चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों के इस्तेमाल से जुड़ी ख़बरें चल रही थीं. कुछ स्तंभकारों ने ब्रिटेन के रवैये की तुलना ब्रिटिश राज के कमांडर रॉबर्ट क्लाइव से भी की. लेकिन कुछ गैर-उपनिवेशवादी अलंकारों को छोड़ दिया गया.
ब्रिटेन ने भी की कोशिश लेकिन...
भारत की तरह पूरी ताकत के साथ कोशिश करने की जगह ब्रितानी मंत्रियों ने कुछ लोगों से संपर्क साधा. ब्रिटेन ने इस पर भी विचार किया कि यूएन के एक नियम को अमल में लाया जाए जो ऐसी स्थिति में ज्वॉइंट कॉन्फ्रेंस करने की आज़ादी देता है.
लेकिन ब्रिटेन ने ये कदम नहीं उठाया क्योंकि उसे डर था कि उसे यूएन सुरक्षा समिति में पर्याप्त समर्थन नहीं मिलेगा. इसके साथ ही भारत के साथ इस संघर्ष से ब्रिटेन को अपने व्यापारिक हितों के लिए ख़तरा दिखाई दे रहा था.
ऐसे में अगले साल की शुरुआत से अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ब्रिटेन का प्रतिनिधित्व ख़त्म हो जाएगा जो साल 1946 से चला आ रहा था. यूएन में ये बदलाव एक शक्ति संतुलन की तरह था. आम सभा में कई देशों में यूएन सुरक्षा समिति, विशेषत: पांच स्थाई सदस्यों, के पास बहुत ज़्यादा ताकत को लेकर नाराजगी का भाव है.
ज़्यादातर विकासशील देश के जी77 समूह काफी समय से ज़्यादा प्रभाव हासिल करने की कोशिश कर रहा था. ब्रिटेन पर भारत की जीत को जी77 सुरक्षा समिति में पारंपरिक ताकतों को हराने में एक जीत की तरह देखी जाएगी.
क्या ब्रिटेन को मिली करारी कूटनीतिक हार?
विदेश मंत्रालय से जुड़े सूत्र बताते हैं कि आईसीजे से ब्रिटेन का बाहर जाना कोई नई मिसाल नहीं है. ये इंटरनेशनल लॉ कमीशन से फ्रांस और ह्युमन राइट्स कमीशन से रूस का प्रतिनिधित्व ख़त्म होने की ओर इशारा था. लेकिन ये भी सच है कि ये ब्रिटेन के लिए एक हार की तरह है. ये ब्रिटेन की कूटनीतिक हार है.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कार्यालय डाउनिंग स्ट्रीट ने इस बात की पुष्टि करने से इनकार कर दिया कि टेरीज़ा मे ने आईसीजे में ब्रिटेन की ओर से कोई लॉबिंग की है. हालांकि, उन्होंने केवल इतना कहा कि सरकार के आला अधिकारियों ने कोशिशें की थीं. लेकिन बोरिस जॉन्सन और विदेश मंत्रालय के मंत्री जरूर शामिल थे जो सयुंक्त राष्ट्र की आम सभा में समर्थन हासिल करने में सफल नहीं हुए.
यूएन में ब्रिटेन के प्रसिद्ध राजदूत मैथ्यू रायक्रॉफ्ट ने कहा है कि यूके इसलिए पीछे हट गया क्योंकि वह यूएन का अहम समय जाया नहीं करना चाहता था और वह खुश हैं कि भारत जैसा गहरा दोस्त जीत गया. हालांकि, सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद सयुंक्त राष्ट्र में ब्रिटेन की कूटनीतिक हार को दुनिया में ब्रिटेन के घटते प्रभुत्व के रूप में देखा जाएगा.
किसी ने नहीं की ब्रिटेन की परवाह?
ब्रिटेन ने एक चुनाव जीतने की कोशिश की लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने उनकी जगह किसी और का समर्थन किया. ऐसा करते हुए इन देशों ने ब्रिटेन की एक ना सुनते हुए पारंपरिक विश्व शक्ति की ओर से बदले की कार्रवाई की चिंता भी नहीं की.
कुछ लोग इसके लिए ब्रेक्सिट को दोष देंगे लेकिन ऐसा करना थोड़ा आसान होगा. कुछ देश ब्रेक्सिट के प्रति ब्रिटेन जितने ही उतावले हैं. ये उनके लिए ये अहम नहीं है. लेकिन जो चीज साफ है वो ये कि कई देश यूएन में ब्रिटेन को चुनौती देने के लिए तैयार थे और कुछ साल पहले ऐसा देखने को नहीं मिल रहा था.
सरकार ग्लोबल ब्रिटेन की बात करना चाहती है जो यूरोपीय संघ से मुक्त हो और अपने हितों को लेकर दुनिया भर में व्यापार करे. लेकिन समस्या ये है कि इसके लिए अब तक कोई मजबूत नीति नहीं है.
इसकी जगह, चाहें ये सही हो या गलत, कई देश ब्रेक्सिट की जटिलताओं से निकलने के लिए ब्रिटेन को अपना नुकसान करता देख रहे हैं. ये लोग इस कदम को अंतरराष्ट्रीय मंच से पीछे हटने के संकेत के रूप में देख रहे हैं चाहें ब्रेक्सिट समर्थक इसके पक्ष में कोई भी तर्क दें.
ये देश इस खाली जगह को भरने पर काम कर रहे हैं. इसी साल जून में हम इसके संकेत देख चुके हैं जब सयुंक्त राष्ट्र की आम सभा ने ब्रिटेन के ख़िलाफ़ वोट करके हिंद महासागर में ब्रिटेन और मॉरिशस के बीच कुछ द्वीपों पर विवाद की सुनवाई से इनकार किया.
किसी दूसरे दौर में ब्रिटेन ने अपनी ताकत के बल पर भारत का सामना किया होता. लेकिन अब इसकी जगह ब्रिटेन ने पीछे हटने का फैसला किया ताकि एक अल्पाविधी नुकसान के बदले में लंबे दौर के आर्थिक नुकसान को बचाया जा सके. आखिरकार, 71 सालों में पहली बार अंतरराष्ट्रीय कोर्ट से ब्रिटेन का प्रतिनिधित्व ख़त्म हो गया है.