भारतीय चुनाव: क्या सरकार महंगाई को क़ाबू कर पाई है?
महंगाई दर में कमी के लिए आरबीआई के नीति आधारित फ़ैसले भी ज़िम्मेदार हैं.
पिछले कुछ वक़्त से आरबीआई ने ब्याज दर में कमी से गुरेज़ किया था. फ़रवरी में घोषित ब्याज दर में कमी पिछले 18 महीनों में पहली बार थी.
ब्याज दर में कमी का मतलब है सिस्टम में ज़्यादा धन, लोगों के पास ज़्यादा पैसा, यानि ज़्यादा ख़र्च और महंगाई दर के ऊपर जाने की संभावना.
दावा: विपक्षी कांग्रेस ने महंगाई पर मोदी सरकार की आलोचना करते हुए कहा है कि उसने अनुकूल अंतरराष्ट्रीय माहौल के बावजूद महंगाई को रोकने के लिए कुछ नहीं किया.
फ़ैसला: महंगाई दर यानि माल या सेवाओं के दाम में बढ़ोत्तरी का दर. पूर्व सरकार के मुक़ाबले ये सरकार महंगाई दर कम रखने में कामयाब रही है. इसका कारण है साल 2014 के बाद अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल के दाम में कमी और गांव के लोगों की आमदनी में गिरावट.
पिछले साल राजस्थान में कांग्रेस नेता सचिन पायलट ने कहा था कि भाजपा महंगाई क़ाबू करने के दावे पर सत्ता में आई थी लेकिन अनुकूल अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के बावजूद सरकार ने कुछ नहीं किया.
इससे पहले साल 2017 में कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी ने महंगाई पर सरकार पर हमला बोला था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कहा था कि या तो वो महंगाई पर नकेल कसें या "गद्दी छोड़ दें".
उधर प्रधानमंत्री मोदी कहते रहे हैं कि भारत में महंगाई दर दशकों में अब अपने न्यूनतम स्तर पर है.
साल 2014 के चुनाव घोषणा पत्र में भाजपा ने महंगाई को क़ाबू में रखने का वायदा किया था.
उसी साल एक सरकारी समिति ने सिफ़ारिश की थी कि महंगाई दर चार प्रतिशत या इस आंकड़े से प्वाइंट दो प्रतिशत इधर-उधर हो. इसे फ़्लेक्सिबल इन्फ़्लेशन टार्गेटिंग कहा जाता है.
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महंगाई दर का रेकॉर्ड
तो कौन सही है?
साल 2010 में जब केंद्र में कांग्रेस सरकार थी तब महंगाई दर क़रीब 12 प्रतिशत तक पहुंच गई थी.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा साल 2014 में सत्ता में आई. इस सरकार के कार्यकाल में महंगाई दर बेहद कम रही है.
साल 2017 में औसत महंगाई दर तीन प्रतिशत से थोड़ा ही ज़्यादा थी.
महंगाई दर का कैसे पता लगाया जाता है?
भारत जैसे विशाल और विविध देश में महंगाई दर का पता लगाना बेहद मुश्किल है.
महंगाई दर जानने के लिए अधिकारी थोक बाज़ार पर नज़र रखते हैं लेकिन साल 2014 में केंद्रीय बैंक रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स यानि सीपीआई का इस्तेमाल तय किया.
सीपीआई यानि घरों में खपत होने वाले सामान और सेवाओं का दाम, या आसान भाषा में कहें रीटेल प्राइसेज़.
सीपीआई का आधार एक सर्वे होता है जिसमें सामान और सेवाओं पर आंकड़े जुटाए जाते हैं.
इस सर्वे में खाद्य के अलावा दूसरी बातों जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य पर भी जानकारी जुटाई जाती है.
ऐसा दूसरे देशों में भी किया जाता है, हालांकि सामान की संख्या, सीपीआई के आंकलन का तरीक़ा अलग होता है.
महंगाई दर कम क्यूं?
जानकारों के मुताबिक़ घटती महंगाई दर के पीछे सबसे बड़ा कारण है तेल के अंतरराष्ट्रीय दाम में लगातार होती कमी.
भारत अपनी तेल की ज़रूरत का 80 प्रतिशत आयात करता है. तेल के दाम में उथल-पुथल का असर महंगाई दर पर पड़ता है.
साल 2011 में जब कांग्रेस सत्ता में थी तब कच्चे तेल का दाम $120 (£90) प्रति बैरल था.
अप्रेल 2016 तक आते-आते कच्चे तेल का दाम $40 प्रति बैरल तक पहुंच गया, हालांकि अगले दो सालों में इसमें एक बार फिर उछाल दर्ज किया गया.
लेकिन अर्थव्यवस्था के दूसरे पहलू भी हैं जिनका महंगाई दर पर असर पड़ता है.
एक महत्वपूर्ण कारण है खाद्य सामान के घटते दाम, ख़ासकर ग्रामीण इलाक़ों में.
यहां ये याद रखना ज़रूरी है कि भारत के 60 प्रतिशत से ज़्यादा लोग ग्रामीण इलाक़ों में रहते हैं.
भारत के पूर्व प्रमुख स्टैटिशियन प्रनब सेन के मुताबिक़ पिछले कुछ सालों में खेती से होने वाली कमाई में कमी भी महंगाई दर में गिरावट का कारण है.
उनका कहना है कि इसके दो मुख्य कारण हैं.
1. ग्रामीण इलाक़ों में आमदनी की गारंटी देने वाली योजनाओं की आर्थिक मदद में कमी.
2. सरकार द्वारा किसानों को फ़सल की ख़रीद के दाम में न्यूनतम बढ़ोत्तरी.
प्रनब सेन कहते हैं, "पिछले आठ से दस सालों के (कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए के) शासनकाल में ग्रामीण रोज़गार योजनाओं के कारण लोगों की कमाई में बढ़ोत्तरी हुई थी, जिससे खाद्य सामान पर ख़र्च में भी तेज़ी आई थी."
लेकिन उनका कहना है कि मेहनताने में वो बढ़ोत्तरी अब कम हो गई है.
इस कारण मांग में कमी आई है, और महंगाई दर में.
भारत का केंद्रीय बैंक
महंगाई दर में कमी के लिए आरबीआई के नीति आधारित फ़ैसले भी ज़िम्मेदार हैं.
पिछले कुछ वक़्त से आरबीआई ने ब्याज दर में कमी से गुरेज़ किया था. फ़रवरी में घोषित ब्याज दर में कमी पिछले 18 महीनों में पहली बार थी.
ब्याज दर में कमी का मतलब है सिस्टम में ज़्यादा धन, लोगों के पास ज़्यादा पैसा, यानि ज़्यादा ख़र्च और महंगाई दर के ऊपर जाने की संभावना.
सरकार की कोशिश है वित्तीय घाटे को क़ाबू में रखा जाए.
कम वित्तीय घाटे से महंगाई दर को क़ाबू में रखने में मदद मिलती है.