टीम इंडिया में कप्तानों के दबदबे के कारण ऐसा हुआ?
भारतीय कप्तानों के दबदबे की बात करें तो सौरव गांगुली के समय से इसकी शुरुआत मान सकते हैं और महेंद्र सिंह धोनी और विराट कोहली का दबदबा इतना ज़्यादा हो गया कि टीम चयन में इनकी ही अधिक चलने लगी.
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की सीनियर चयन समिति में लाला अमरनाथ, पॉली उमरीगर, अजित वाडेकर, गुंडप्पा विश्वनाथ, श्रीकांत, सैयद किरमानी और यशपाल शर्मा जैसे धुरंधर बल्लेबाज़ शामिल रहे हैं.
लेकिन पिछले कुछ सालों से दिग्गज क्रिकेटरों का रुझान इस तरफ़ कम हुआ है.
यही वजह है कि एमएसके प्रसाद की अगुआई वाली चयन समिति के सदस्यों को टेस्ट खेलने का अनुभव न के बराबर था.
वहीं इस बार चेतन शर्मा की अगुआई वाली चयन समिति को टेस्ट खेलने का अनुभव तो है पर उनके साथ देबाशीष मोहंती और एबे कुरुविला को चयनकर्ता बनाए जाने पर समिति के सभी सदस्य गेंदबाज़ हो गए हैं. इसकी वजह यह है कि पहले दो चयनकर्ता सुनील जोशी और हरविंदर भी गेंदबाज़ हैं.
शायद बीसीसीआई की चयन समिति के इतिहास में यह पहला मौक़ा होगा, जब इसमें किसी बल्लेबाज़ को शामिल नहीं किया गया है.
दिग्गज़ों का इस तरफ़ आकर्षण कम
अब सवाल यह है कि पहले की तरह दिग्गज़ क्रिकेटर इस तरफ़ आकर्षित क्यों नहीं हो रहे हैं. हालांकि अब पहले की तरह चयनकर्ताओं की अवैतनिक नियुक्ति नहीं होती है. इस लिहाज से दिग्गज़ों को तो इस तरफ़ ज़्यादा आकर्षित होना चाहिए था. पर शायद इसकी वजह पूर्व खिलाड़ियों के लिए कई ऐसी राहें खुल जाना है, जिसमें इसके मुक़ाबले ज़्यादा कमाई है.
पहले टेलीविजन चैनलों पर सिर्फ अंग्रेज़ी में कमेंटरी होती थी. लेकिन अब सभी मैचों की हिंदी ही नहीं अन्य भाषाओं में भी कमेंटरी होती है और कमेंटेटरों को कई करोड़ रुपये मिलते हैं, जिससे इसमें कई पूर्व क्रिकेटर व्यस्त हो गए हैं.
इसके अलावा तमाम न्यूज चैनल भी पूर्व क्रिकेटरों को अपने पैनल में रखते हैं. वहीं कोचिंग और सपोर्ट स्टाफ के तौर पर पूर्व क्रिकेटर पहले ही ज़िम्मेदारी निभाते रहे हैं. इस कारण खिलाड़ियों के लिए ज़्यादा राहें खुलने की वजह से इस तरफ़ रुझान में कमी आना माना जा सकता है.
युवा चयनकर्ताओं पर ध्यान
इस संबंध में पूर्व टेस्ट क्रिकेटर और मौजूदा क्रिकेटर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष अशोक मल्होत्रा ने कहा, "दिग्गज क्रिकेटरों का इस तरफ़ रुझान नहीं होने की प्रमुख वजह अब चयनकर्ता बनने के लिए उम्र सीमा 60 साल निर्धारित कर देना है. पहले के समय में तो चंदू बोर्डे और अजित वाडेकर जैसे क्रिकेटर 70 साल की उम्र तक चयनकर्ता रहे थे. इसके अलावा टी-20 क्रिकेट आने से खेल काफ़ी तेज़ हो गया है और इस वजह से अब युवाओं को चयनकर्ता बनाने पर जोर दिया जा रहा है."
उन्होंने कहा कि इससे पहले वाली चयन समिति में तो टेस्ट खेलने का कोई ख़ास अनुभव नहीं था पर मौजूदा समिति में टेस्ट खेलने वाले तो शामिल हैं.
कप्तानों के दबदबे से महत्व हुआ कम
हम भारतीय कप्तानों के दबदबे की बात करें तो सौरव गांगुली के समय से इसकी शुरुआत मान सकते हैं और महेंद्र सिंह धोनी और विराट कोहली का दबदबा इतना ज़्यादा हो गया कि टीम चयन में इनकी ही अधिक चलने लगी.
इस स्थिति में चयनकर्ताओं का बोझ निश्चय ही कम हुआ है. इस दबदबे को हम एक घटना से समझ सकते हैं. यह बात 2012 की है, जब महेंद्र सिंह धोनी की अगुआई में टीम इंडिया का ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ टेस्ट सिरीज़ में 0-4 से सफ़ाया हो जाने पर तत्कालीन चयन समिति के प्रमुख मोहिंदर अमरनाथ चाहते थे कि धोनी को कप्तानी की ज़िम्मेदारी से मुक्त करके सहवाग को दे दी जाए. पर इस मामले में उन्हें अपने उत्तर क्षेत्र का ही समर्थन नहीं मिला और बाकी चयनकर्ता तो उनसे सहमत थे ही नहीं.
मोहिंदर अमरनाथ के इस प्रयास का परिणाम यह हुआ कि जब अगली चयन समिति का गठन किया गया तो उनका नाम नदारद था. इस पर यह कहा गया था कि आमतौर पर चयनकर्ताओं का चयन एक साल के लिए होता है और वह अधिकतम चार साल के लिए इस पद पर रह सकते हैं इसलिए उन्हें दोबारा चयनकर्ता नहीं बनाना तकनीकी मामला है.
इस समय मोहिंदर अमरनाथ को लेकर यह खबर भी उड़ी थी कि उन्होंने अपने पिता का बल्ला बीसीसीआई को देने के बजाय क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया के तत्कालीन कार्यकारी प्रमुख जेम्स सदरलैंड को दे दिया था, इस कारण बोर्ड उनसे नाराज़ था. पर इस बात में इसलिए दम नज़र नहीं आया था, क्योंकि उस समय बीसीसीआई का कोई म्यूज़ियम नहीं था.
पर जिस बात की सबसे ज़्यादा चर्चा थी कि उस समय बोर्ड के अध्यक्ष एन श्रीनिवासन थे और धोनी उनकी आईपीएल टीम चेन्नई सुपरकिंग्स के भी कप्तान थे और उनके ऊपर अध्यक्ष का वरदहस्त होना स्वाभाविक है. इस कारण धोनी का विरोध उन्हें महंगा पड़ गया. पर किस बात में ज़्यादा सच्चाई थी, कहना मुश्किल है. पर मोहिंदर अमरनाथ चयनकर्ता बनने से क़रीब दो दशक पहले यानी 1989 में चयन समिति को 'जोकरों का समूह' कह चुके थे.
यह बात उन्होंने उस समय खुद को टीम में नहीं चुने जाने पर कही थी.
बाद में मोहिंदर अमरनाथ चयनकर्ता ज़रूर बने पर 2009 में बीसीसीआई का उनको लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड देने पर उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा था कि उन्हें अपनी इस टिप्पणी पर कोई अफ़सोस नहीं है. यही नहीं आगे भी कई खिलाड़ियों ने माना कि चयनकर्ता जोकरों का समूह ही हैं.
कप्तान को पसंद की टीम देने का चलन
यह सही है कि लोढ़ा समिति की सिफ़ारिशें लागू करने के बाद से चयन समिति की बैठक में कप्तान और कोच को बुलाया तो जाता है और चयन के समय उन्हें अपने विचार रखने की भी छूट होती है. लेकिन चयन के समय यदि मतदान होता है तो उन्हें मत देने का अधिकार नहीं होता है.
यह तो हो गई नियम की बात है. पर वास्तविकता यह है कि मौजूदा दौर में कप्तान विराट कोहली और मुख्य कोच रवि शास्त्री जिन खिलाड़ियों को चाहते हैं, उनको ही टीम में चुना जाता है.
इस स्थिति में चयन समिति के सामने करने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं रह गया है. इसलिए इस समिति में सिर्फ़ गेंदबाज़ हैं तो इसका क्या फ़र्क़ पड़ना है. वैसे भी किसी भी टीम में 10-12 खिलाड़ियों का चयन पक्का होता है और बाकी दो-चार खिलाड़ियों के लिए ही चयनकर्ताओं को थोड़ी माथा-पच्ची करनी पड़ती है. पर इसमें भी आमतौर पर कप्तान और कोच की राय ज़्यादा मायने रखती है.
जॉन राइट भी थे ज़ोनल सिस्टम के ख़िलाफ़
उस समय चयन की खामियों की वजह चयन समिति के चयन में जोनल सिस्टम को माना जा रहा था. इस संबंध में टीम इंडिया के सफ़ल कप्तानों में शुमार रहे जॉन राइट की किताब 'जॉन राइट इंडियन समर्स' में इसका उल्लेख मिलता है.
उन्होंने ज़ोनल सिस्टम की आलोचना करते हुए कहा था कि भारत यदि ज़ोन के आधार पर चयनकर्ताओं का चयन करता रहा तो सर्वश्रेष्ठ कोच को लाने का भी कोई फ़ायदा नहीं होगा.
उन्होंने सुझाव दिया था कि बीसीसीआई को इस बारे में पेशेवर रवैया अपनाना चाहिए और अवैतनिक चयनकर्ताओं के बजाय भुगतान वाले चयनकर्ता नियुक्त करना चाहिए. उन्होंने कहा था कि चयनकर्ता अपना सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास करते हैं पर ज़ोनल सिस्टम की वजह से उनके ऊपर दवाब रहता है. असल में चयनकर्ता पर अपने क्षेत्र के खिलाड़ी का नाम आगे करने का हमेशा दवाब रहता था.
जॉन राइट ने ही नहीं बल्कि इससे पहले भी इस सिस्टम की मुख़ालफ़त होती रही है. 1998 में रूल्स रिवीज़न कमेटी ने भी अवैतनिक चयनकर्ताओं की नियुक्ति होने के बजाय तीन पेड चयनकर्ताओं की सिफारिश की थी.
इस समिति में राजसिंह डूंगरपुर, जेवाई लेले, सतविंदर सिंह, एसके नायर, एन सुब्बा राव, रत्नाकर शेट्टी, बिभूति दास और रणबीर सिंह शामिल थे. इस सिफारिश में यह भी कहा गया था कि चयनकर्ता को 20 टेस्ट या 50 रणजी मैच खेलने का अनुभव होना चाहिए. पर इन सिफारिशों को क्यों नहीं लागू किया गया, कोई नहीं जानता.
इसी तरह शशांक मनोहर की अगुआई वाली संविधान समीक्षा समिति ने भी 2006 में ज़ोनल सिस्टम ख़त्म करने की सिफ़ारिश की थी पर राज्य एसोसिएशनों का समर्थन नहीं मिल पाने से यह भी लागू नहीं हो पाई.
झटके से हुआ सुधार
भारतीय क्रिकेट टीम 2007 के विश्व कप से पहले दौर में ही बाहर हो गई. इस कारण बीसीसीआई ने भुगतान वाले चयनकर्ता रखने की शुरुआत की. पर फिर भी ज़ोनल सिस्टम को ख़त्म नहीं किया गया. पर लोढ़ा समिति की सिफ़ारिशें लागू करने की मजबूरी की वजह से ज़ोनल सिस्टम को तो ख़त्म कर दिया गया. पर उसकी सिफारिश के अनुसार तीन चयनकर्ता रखने के बजाय पाँच चयनकर्ताओं की परिपाटी को जारी रखा गया.
अगस्त 2018 में तो चयनकताओं को अच्छी खासी रक़म दी जाने लगी है. इस समय किए गए फ़ैसले के अनुसार चयनकर्ताओं को 60 के बजाय 90 लाख रुपये और मुख्य चयनकर्ता को 80 लाख के बजाय एक करोड़ रुपये मिलने लगे हैं. पर यह रक़म भी दिग्गज़ों को इस तरफ़ इसलिए आकर्षित नहीं कर पा रही है, क्योंकि कमेंटरी आदि में इससे कहीं ज़्यादा पैसे मिलते हैं और खिलाड़ी लाइम लाइट में भी बने रहते हैं.