1965 की भारत-पाकिस्तान जंग और अय्यूब ख़ान का चीन का ख़ुफ़िया दौरा
23 सितंबर 1965 को भारत-पाकिस्तान की सेनाओं ने कई हफ़्तों की लड़ाई के बाद बंदूकें नीचे रखी थीं. पाकिस्तान में इस जंग को एक सुनहरा मौक़ा बताया जाता है. पर असलियत क्या है?
1965 की भारत-पाकिस्तान जंग को 55 साल से ज़्यादा का वक़्त गुज़र चुका है. यह जंग जहां पाकिस्तान की तारीख़ का एक सुनहरा अवसर समझा जाता है वहीं कुछ ऐसे सुबूत मिलते हैं जिससे पता चलता है कि हालात वह नहीं थे जो बयान किए जाते हैं.
इस जंग की आधिकारिक रूप से शुरुआत छह सितंबर, 1965 को हुई थी जब भारत ने पाकिस्तान पर हमला करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमा पार किया लेकिन इतिहासकारों के अनुसार यह जंग 26 अप्रैल 1965 को शुरू हो गई थी जब पाकिस्तानी सेना ने कच्छ के इलाक़े में कंजरकोट और बयारबेट के इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर लिया था.
कुछ दिनों के बाद ब्रितानी प्रधानमंत्री हेरल्ड विलसन ने भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के बीच सुलह कराने के लिए पेशकश की जिसके कारण 30 जून, 1965 को भारत और पाकिस्तान ने युद्ध विराम के एक दस्तावेज़ पर दस्तख़त कर दिए और यह मामला एक अंतरराष्ट्रीय ट्राइब्यूनल के हवाले कर दिया गया.
जुलाई 1965 में पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर और पाकिस्तानी सेना ने भारत प्रशासित कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए एक गौरिल्ला ऑपरेशन शुरू किया जिसे 'जिबरॉल्टर' का नाम दिया गया था.
इस ऑपरेशन की योजना अय्यूब ख़ान के निर्देश पर 12 डिविज़न के जनरल ऑफ़िसर कमांडिंग जनरल अख़्तर हुसैन मलिक ने की थी. तत्कालीन विदेश मंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो और विदेश सचिव अज़ीज़ अहमद को भी इस ऑपरेशन की जानकारी थी और उनकी भी सहमति थी.
ऑपरेशन 'जिबरॉल्टर' की ज़िम्मेदारी सेना के पाँच दस्तों को दी गई थी जिनके नाम इस्लामी इतिहास के सैन्य विजेताओं तारिक़, क़ासिम, ख़ालिद, सलाहउद्दीन और ग़ज़नवी के नाम पर रखे गए थे.
इस ऑपरेशन की सफलता के लिए एक और ऑपरेशन किया गया था जिसका नाम था 'नुसरत'. यह तमाम दस्ते 24 जुलाई को अपने-अपने पोस्ट के लिए रवाना हुए और 28 जुलाई को अपनी-अपनी मंज़िल पर पहुँच गए.
मगर उसके बाद जो कुछ हुआ वो पाकिस्तान, ख़ासकर कश्मीर की तारीख़ का दुखद चैप्टर है. यह तमाम दस्ते अपने मिशन में बुरी तरह नाकाम हुए और सिवाए ग़ज़नवी दस्ते के जो कुछ इलाक़ों पर क़ब्ज़ा करने में कामयाब हुआ था, पूरा ऑपरेशन 'जिबरॉल्टर' बिखर कर दम तोड़ गया.
इस ऑपरेशन के नाकाम होने के कई कारण थे. पहली वजह तो यह थी कि इसमें शामिल होने वाले सैनिकों की ट्रेनिंग नहीं थी.
फिर पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय और ख़ुफ़िया एजेंसी की जानकारी की तुलना में भारत का अपना सुरक्षा इंतज़ाम काफ़ी बेहतर था और उसने प्रभावित इलाक़ों में किसी संभावित गड़बड़ी को दबाने के लिए प्रभावी और बहुत 'क्रूर' ज़रिया अपनाया था.
पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व ने ऑपरेशन 'जिबरॉल्टर' की नाकामी के बाद ऑपरेशन 'ग्रैंड सलाम' शुरू किया. इस ऑपरेशन का उद्देश्य भारत प्रशासित कश्मीर में तैनात सैनिकों की सप्लाई लाइन काटने की नीयत से रेल के इकलौते संपर्क को काटने के लिए अखनूर सेक्टर पर क़ब्ज़ा करना था.
मगर ये ऑपरेशन भी पूरी तरह नाकाम रहा.
सैन्य विशेषज्ञों का कहना है कि ऑपरेशन 'ग्रैंड सलाम', ऑपरेशन 'जिबरॉल्टर' से पहले होना चाहिए था. विशेषज्ञों के अनुसार ऑपरेशन 'जिबरॉल्टर' की नाकामी के बाद इस ऑपरेशन को लॉन्च करना ख़ुदकुशी करने के बराबर था.
25 अगस्त, 1965 को भारतीय सेना ने दाना के इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर लिया. अब भारतीय सेना मुज़फ़्फ़राबाद के क़रीब थी. फिर 28 अगस्त को भारतीय सेना ने दर्रा हाजीपीर पर क़ब्ज़ा कर लिया था.
उस समय सेना अध्यक्ष रहे जनरल मूसा का सब्र का बांध टूट गया और वो बहुत दुखी हालत में विदेश मंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के पास पहुँचे और कहा कि मेरे जवानों के पास लड़ने के लिए पत्थरों के सिवा कुछ भी नहीं है.
जंग का एलान
छह सितंबर 1965 को भारत ने अंतरराष्ट्रीय सीमा पार की जिसकी जानकारी अय्यूब ख़ान को सुबह चार बजे के क़रीब मिली.
उसके बाद भारत और पाकिस्तान के बीच आधिकारिक तौर पर युद्ध की घोषणा कर दी गई. पाकिस्तान के कुछ इलाक़े भारत के क़ब्ज़े में और भारत के कुछ इलाक़े पाकिस्तान के क़ब्ज़े में आ गए.
11 सितंबर को रक्षा सचिव नज़ीर अहमद ने जनरल अय्यूब को बताया कि कुछ देशों ने पाकिस्तान को हथियार देने से मना कर दिया है.
15 सितंबर को अमरीकी राष्ट्रपति जॉनसन ने शांति बहाली की अपील की.
उसी दिन भारत ने भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कहा कि वो युद्ध बंद करने को तैयार है लेकिन युद्ध जारी रहा.
17 सितंबर को चीन ने एक बयान जारी कर कहा कि भारत कश्मीर के मसले को कश्मीरी जनता की इ्च्छा के अनुसार हल करे.
पाकिस्तान ने चीन के इस बयान का स्वागत किया. यह वो समय था जब पश्चचिमी देशों ने पाकिस्तान पर दबाव डालना शुरू किया कि वो युद्ध विराम का समझौता स्वीकार करे.
ख़ुद पाकिस्तान भी कश्मीरी समस्या को सैन्य शक्ति की बजाए कूटनीतिक तरीक़े से हल करने के पक्ष में था. ऐसे मौक़े पर राष्ट्रपति अय्यूब ख़ान ने मुनासिब समझा कि वो अपने पुराने दोस्त चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई से सीधे संपर्क कर विचार विमर्श करें.
लिहाज़ा 19 और 20 सितंबर की दरम्यानी रात को राष्ट्रपति अय्यूब ख़ान पेशावर से एक जहाज़ के ज़रिए बीजिंग पहुँचे और अगले दिन वापस आ गए.
ख़ुफ़िया दौरा
अय्यूब ख़ान के इस दौरे को पूरी तरह ख़ुफ़िया रखा गया था और पाकिस्तान में बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी थी. राष्ट्रपति भवन में रोज़मर्रा की तरह काम होता रहा.
अय्यूब ख़ान के लिए सुबह की चाय ले जाने वाला उसी तरह बर्तन सजाकर उनके कमरे तक ले गया और ख़ाली ट्रे वापस लाया.
राष्ट्रपति भवन के सुरक्षाकर्मियों को ज़रा भी शक नहीं हुआ कि अय्यूब ख़ान अंदर मौजूद नहीं हैं.
इस दौरे में विदेश मंत्री भुट्टो भी अय्यूब ख़ान के साथ थे. दोनों ने चाउ एन लाई और मार्शल चिन शी के साथ दो बार लंबी मुलाक़ातें की.
अय्यूब ख़ान ने चीनी नेताओं को स्थिति से अवगत कराया और उन्हें बताया कि भारत ने किस तरह संख्या बल के आधार पर सैन्य बरतरी हासिल करना शुरू कर दी है और भारत को किस तरह पश्चिमी देशों का समर्थन हासिल है जो सोवियत संघ को समझौता कराने के लिए दबाव डाल रहे हैं.
चाउ एन लाई ने कहा कि भारत का संख्या बल, पाकिस्तानी जनता के इरादों को तोड़ नहीं सकता. इस पर अय्यूब ख़ान ने कहा कि पंजाब का मैदानी इलाक़ा दुश्मन की बढ़ती हुई सेना के ख़िलाफ़ गौरिल्ला युद्ध के लिए मुनासिब नहीं है.
इस पर मार्शल चिन शी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि हर छोटी-बड़ी नहर और टीले को मोर्चे के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है.
चीनी दोस्तों ने पाकिस्तान से कहा कि उन्हें बातचीत के लिए तैयार होने के बजाए एक लंबी जंग लड़ने के लिए तैयार हो जाना चाहिए.
अय्यूब ख़ान ने पूछा कि आपकी ये मदद कब तक बरक़रार रहेगी?
चाउ एन लाई ने अय्यूब ख़ान की आंखों में आंखें डाल कर कहा कि 'जब तक आपको इसकी ज़रूरत होगी, चाहे आपको पहाड़ों तक चढ़ाई क्यों ना करना पड़े.'
चीन ने पाकिस्तान से स्पष्ट शब्दों में कहा कि अमरीका और रूस दोनों ही भरोसे के योग्य नहीं हैं और पाकिस्तान को न उनके सामने झुकना चाहिए और न ही उनपर विश्वास करना चाहिए.
अय्यूब ख़ान हैरान थे कि वो इस बिना शर्त के प्रस्ताव का क्या जवाब दें. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री (चाउ एन लाई) आप शायद कुछ जल्दबाज़ी में यह सब कह रहे हैं.
इस पर चाउ एन लाई ने मुस्कुराते हुए अय्यूब ख़ान को अमरीकी दबाव के सामने झुकने से इनकार करने की सलाह दी.
उन्होंने आगे कहा, "पाकिस्तान को रूस के जाल में भी नहीं फँसना चाहिए, वो विश्वास के लायक़ नहीं हैं, आपको आख़िरकार ख़ुद ही पत चल जाएगा."
बातचीत ख़त्म होते-होते ये बिल्कुल साफ़ हो गया था कि अगर पाकिस्तान चीन का पूरा समर्थन चाहता है तो उसे एक लंबी जंग के लिए तैयार हो जाना चाहिए, जिसमें लाहौर और कुछ दूसरे शहर दुश्मन के क़ब्ज़े में भी जा सकते हैं.
चीनी नेताओं का ख़याल था कि पाकिस्तान को पहुँचने वाला हर नुक़सान पाकिस्तान की जनता को एकजुट करेगी और भारतीय सेना जनता के विरोध के सामने फँस कर रह जाएगी मगर भुट्टो और अय्यूब दोनों में से कोई भी इस काम के लिए तैयार नहीं था.
पाकिस्तानी नेतृत्व एक लंबी जंग लड़ने के लिए तैयार नहीं था. थल और वायु सेना के प्रमुख भी युद्ध समाप्त करना चाहते थे क्योंकि उनकी ताक़त दिन-ब-दिन घटती जा रही थी.
हथियार और दूसरे कल-पुर्ज़ों की सख़्त क़िल्लत के कारण जनरल मूसा का हौसला भी पस्त हो रहा था और वायुसेना प्रमुख एयरमार्शल नूर ख़ान विमानों की रोज़ घटती संख्या के कारण मायूस थे.
वायुसेना की हर झड़प के बाद पाकिस्तान के एक-दो लड़ाकू विमान कम हो जाते थे, इसलिए पाकिस्तान को चीन की सलाह को नज़रअंदाज़ करना पड़ा और वही हुआ जो अमरीका और रूस चाहते थे. अगले दिन 20 सितंबर, 1965 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने एक प्रस्ताव मंज़ूर किया जिसमें पाकिस्तान और भारत को आदेश दिया गया था कि वो 22-23 सितंबर की दरम्यानी रात को युद्ध बंदी की घोषणा करें.
विदेश मंत्री भुट्टो को यूएन भेजा गया जहां वो सुरक्षा परिषद के सामने पाकिस्तान का पक्ष रख सकें और उन्हें बताएं कि कश्मीर का हल तलाश किए बग़ैर जंग समाप्त करना संभव नहीं.
भुट्टो 23 सितंबर को न्ययॉर्क पहुँचे और सीधे यूएन मुख्यालय पहुँचे जहां सुरक्षा परिषद की बैठक जारी थी.
भुट्टो ने इस मौक़े पर शानदार तक़रीर की.
भुट्टो ने अपने भाषण में कहा कि पाकिस्तान पर एक बड़े देश ने हमला किया है और इस वक़्त हम अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.
उन्होंने कहा कि अपने अस्तित्व के लिए अगर हमें भारत से एक हज़ार साल तक लड़ना पड़ा तो हम लड़ेंगे. उनका भाषण जारी था, तभी उन्हें अय्यूब ख़ान का एक संदेश लाकर दिया गया.
इसमें अय्यूब ख़ान ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के अनुसार जंग ख़त्म करने पर अपनी सहमति जताई थी.
भुट्टो ने अय्यूब ख़ान के संदेश को सुरक्षा परिषद के सदस्यों को पढ़कर सुनाया और कहा कि पाकिस्तान युद्ध बंद करने को तैयार हो गया है.
भुट्टो ने कहा कि इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र को कश्मीर के मसले का हल तलाश करना पड़ेगा वर्ना पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र से अलग हो जाएगा.
इस जंग के दौरान ही सोवियत संघ ने भारत और पाकिस्तान दोनों को एक शांतिपूर्ण समझौते तक पहुँचने के लिए अपनी मदद की पेशकश की थी.
नवंबर 1965 में भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने कहा कि वो पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए सोवियत संघ जाने के लिए तैयार हैं लेकिन वो कश्मीर के मसले के अलावा भारत और पाकिस्तान के बीच हर तरह के मसले पर बातचीत के लिए तैयार हैं.
उधर पाकिस्तानी विदेश मंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो भी मॉस्को पहुँचे और कहा कि भारतीय प्रधानमंत्री का बयान बहुत सकारात्मक नहीं है लेकिन इसमें बातचीत शुरू करने की इच्छा जताई गई है.
दिसंबर 1965 में अय्यूब ख़ान अमरीका रवाना हुए. उन्होंने अमरीकी राष्ट्रपति जॉनसन से मुलाक़ात की और संयुक्त राष्ट्र महासभा के सम्मेलन में शामिल हुए.
अय्यूब ख़ान ने अमरीकी राष्ट्रपति को यह बताने की कोशिश की कि भारतीय उपमहाद्वीप में सोवियत संघ को निर्णायक किरदार अदा करने की इजाज़त देना अक़्लमंदी का फ़ैसला नहीं होगा, मगर अमरीका और उसके पश्चिमी साथियों का ख़याल था कि सिर्फ़ सोवियत संघ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी ऐसे गठबंधन को रोक सकता है जिसमें चीन और पाकिस्तान एक तरफ़ हों और सोवियत संघ और भारत दूसरी तरफ़.
अमरीका ने पाकिस्तान से कहा कि अमरीका इस समय वियतनाम की जंग में पूरी तरह फँसा हुआ है और उसका मानना है कि चीन को भारतीय उप-महाद्वीप के मामलों में शामिल करना ख़तरनाक होगा.
सोवियत संघ भी किसी सूरत में चीन के साथ कोई झगड़ा मोल लेना नहीं चाहता था.
इन हालात ने सोवियत संघ को भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थ बना दिया. अय्यूब ख़ान अमरीका से मायूसी की हालत में वापस लौटे और जनवरी 1966 के पहले हफ़्ते में 16 सदस्यों के प्रतिनिधिमंडल के साथ उज़बेकिस्तान की राजधानी ताशक़ंद पहुँच गए.
भारत और पाकिस्तान के बीच ये ऐतिहासिक बातचीत सात दिनों तक चली.
इस दौरान कई मर्तबा बातचीत स्थगित भी हुई क्योंकि भारतीय प्रधानमंत्री शास्त्री ने बातचीत में कश्मीर का ज़िक्र शामिल करने से इनकार कर दिया था.
उनके नज़दीक कश्मीर का मसला तय किया जा चुका था और ताशक़ंद में बातचीत सिर्फ़ उन मसलों को हल करने के लिए की जा रही है जो हाल की जंग के कारण पैदा हुए हैं.
पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल का कहना था कि ऐसे हालात में इस बातचीत का कोई फ़ायदा नहीं और पाकिस्तान को कोई समझौता किए बग़ैर लौट जाना चाहिए.
मगर बातचीत के आख़िरी दिनों में सोवियत संघ के प्रधानमंत्री ने अय्यूब ख़ान से कई बार मुलाक़ात की और उन्हें भारत के साथ किसी न किसी समझौते पर पहुँचने के लिए राज़ी कर लिया.
इस तरह 10 जनवरी, 1966 को राष्ट्रपति अय्यूब ख़ान और भारतीय प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने ताशक़ंद समझौते पर अपने दस्तख़त कर दिए.
इसके तहत ये तय किया गया कि दोनों देश की सेना अगले डेढ़ महीने में पाँच अगस्त, 1965 वाली स्थिति में वापस चली जाएगी और दोनों देश कश्मीर की समस्या को संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों पर पाबंद रहते हुए बातचीत के आधार पर हल करेंगे.
लेकिन ताशक़ंद समझौता अय्यूब ख़ान की सियासी ज़िंदगी का सबसे ग़लत फ़ैसला साबित हुआ. इसी समझौते के कारण पाकिस्तानी जनता में उनके ख़िलाफ़ ग़ुस्से की लहर पैदा हुई और आख़िरकार अय्यूब ख़ान को अपना ओहदा छोड़ना पड़ा.
पाकिस्तान की जनता का आज तक यही सोचना है कि पाकिस्तान ने कश्मीर की समस्या को ताशक़ंद की सरज़मीन पर हमेशा के लिए दफ़न कर दिया था और वो जंग जो ख़ुद सरकारी दावों के अनुसार मैदान में जीती जा चुकी थी, बातचीत की मेज़ पर हार दी गई.