भारत-चीन समझौता: क्या बातचीत से सुलझ पाएँगे दोनों देशों के विवाद?
भारत और चीन के बीच 10वें दौर की बातचीत में आगे का रास्ता तय नहीं हो पाया है. जानकार अब समझौते पर सवाल उठाने लगे हैं.
पूर्वी लद्दाख़ में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन के बीच बीते 10 महीनों से तनाव बना हुआ था. लेकिन अब परिस्थितियाँ बदलती नज़र आ रही हैं.
इसी क्रम में 20 फ़रवरी को मोल्दो/चुशूल बॉर्डर मीटिंग पॉइंट के चीनी हिस्से पर भारत और चीन के कोर कमांडर्स की बैठक हुई. 10वें दौर की इस बैठक के बाद दोनों देशों की ओर से साझा बयान जारी किया गया.
रक्षा मंत्रालय के मुताबिक़, दोनों पक्षों ने पैंगोंग-त्सो इलाक़े में आमने-सामने आ डटी सेनाओं के पीछे हटने की प्रक्रिया को एक सकारात्मक पहल क़रार दिया है.
दोनों देशों ने यह स्वीकार किया कि पैंगोंग- त्सो इलाक़े में तैनात सेनाओं की वापसी एक महत्वपूर्ण क़दम था, जिसने पश्चिमी क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) समेत दूसरे मुद्दों के समाधान के लिए भी एक अच्छा आधार प्रदान किया.
इस बैठक में दोनों देशों के बीच पश्चिमी क्षेत्र में एलएसी के साथ ही दूसरे अन्य मुद्दों पर चर्चा हुई. बैठक में आपसी बातचीत को जारी रखने को लेकर भी सहमति जताई गई. दोनों देशों ने स्थिति पर नियंत्रण, शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए समाधान तलाशने की बात पर भी सहमति जताई.
क्या था 10वें दौर की बातचीत का आधार
11 फ़रवरी को भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सदन को बताया था कि पैंगोंग इलाक़े में चीन के साथ डिसइंगेजमेंट का समझौता हुआ है.
इस इलाक़े में डिसइंगेजमेंट की प्रक्रिया में चार चरण शामिल थे. डिसइंगेजमेंट के पहले चरण में आर्मर और मैकेनाइज्ड यूनिट्स को मोर्चों से पीछे हटाया जाना था.
दूसरे और तीसरे चरण में नॉर्थ और साउथ किनारों से इंफैंट्री पीछे हटनी थी और चौथे चरण में कैलाश रेंज से डिसइंगेजमेंट होना था.
समझौते के मुताबिक़, चारों चरणों के पूरे होने के बाद दोनों तरफ़ से फ़्लैग मीटिंग करके इसकी पुष्टि की जानी थी और फिर 48 घंटे के भीतर एक कोर लेवल की मीटिंग होनी थी. 20 फ़रवरी को हुई ये 10वें दौर की मीटिंग क़रीब 16 घंटे लंबी चली.
क्या कहते हैं जानकार
10वें दौर की वार्ता के नतीजों को लेकर कुछ जानकारों ने असंतोष जताया है.
रक्षा मामलों के जानकार अजय शुक्ला ने भारत-चीन के साझा समझौते की प्रति को ट्वीट करते हुए लिखा है-
"शनिवार को हुई भारत-चीन कोर कमांडर की बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान आगे के चरण की बारीकियों को स्पष्ट नहीं करता है. भारतीय नेताओं ने कहा था कि 10वें दौर की बैठक में अन्य क्षेत्रों से हटने को अंतिम रूप मिलेगा. लेकिन लगता कि वो कसम भूल गए. यह संयुक्त बयान बेहद साधारण है."
Joint Sino-Indian statement on Saturday's border talks is silent on specifics of next steps.
Indian leaders had said the 10th corps cdrs meeting would finalise pullback from other sectors.
That vow seems forgotten. Joint press release has only generics.https://t.co/OVKxGMdfPr
— Ajai Shukla (@ajaishukla) February 21, 2021
अजय शुक्ल पैंगोंग त्सो इलाक़े को लेकर हुए समझौते पर भी सवाल उठा चुके हैं.
सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फ़ेलो और भारत-चीन मामलों के जानकार सुशांत सिंह मानते हैं, "भारत की कोशिश थी कि अप्रैल 2020 से पहले जो स्थिति थी, वो यथास्थिति दोबारा हो जाए. लेकिन जो डील हुई है, जिस तरह का यह अग्रीमेंट हुआ है, जिसके तहत दोनों सेनाएँ पीछे गई हैं, वो तो होता हुआ नहीं दिखता है. हाँ, लेकिन ये ज़रूर हुआ है कि बॉर्डर एरिया में जो शांति है, उस दिशा में ये एक पहल ज़रूर है."
सुशांत सिंह मानते हैं कि फ़िलहाल जो स्थिति है, उसे सारी समस्याओं का हल मान लेना या ये मान लेना कि इसकी वजह से सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी, अतिशयोक्ति होगी.
वो मानते हैं कि डेपसांग का मसला हल हो पाना तो बेहद मुश्किल है क्योंकि भारत के पास सिर्फ़ पैंगोंग त्सो क्षेत्र में बढ़त थी, वो अब नहीं रही. ऐसे में अब डेपसांग और डेमचांग के लिए काफ़ी समस्या होने वाली है.
वो कहते हैं, "मुझे नहीं लगता है कि डेपसांग की समस्या इतनी आसानी से हल होने वाली है."
वहीं लेफ़्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) संजय कुलकर्णी ने 10वें दौर की इस कोर मीटिंग के संदर्भ में कहा, "रक्षा मंत्री ने जैसे कहा था कि एक बार डिस्इंगेजमेंट की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी, तो उसके 48 घंटे बाद दोनों देश मिलेंगे और बाक़ी फ़िक्शन प्वाइंट्स जैसे हॉट-स्प्रिंग, गोगरा, डेपसांग को बातचीत से सुलझाया जाएगा. लेकिन जो बातचीत हुई है, उसमें दोनों देशों ने एक तरह से संतोष जताया है कि कम से कम दोनों देशों ने बातचीत से ही पैंगोंग त्सो इलाक़े में पैदा हुए गतिरोध का समाधान निकाला है."
लेफ़्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) संजय कुलकर्णी कहते हैं, "25 जून के आस-पास जो पहला डिस्इंगेजमेंट हुआ था, उसमें ऐसा नहीं था कि सेनाएँ बिल्कुल ही आगे-पीछे नहीं हुईं. थोड़ा-बहुत आगे-पीछे हुईं. गलवान में भी क़रीब डेढ़ किलोमीटर पीछे गईं. हॉट-स्प्रिंग और गोगरा में भी थोड़ा पीछे गई हैं. लेकिन जिस तरीक़े से फ़ौज़ों को पीछे जाना चाहिए था, बेशक उस तरीक़े से नहीं गए हैं."
संजय कुलकर्णी कहते हैं, "ऐसा नहीं था कि सेनाएँ यहाँ बिल्कुल आमने-सामने आ गई थीं, लेकिन काफ़ी पास आ गई थीं और यहाँ मसले को सुलझाने में थोड़ा वक़्त ज़रूर लगेगा. वक़्त कैसे लगेगा, इसके लिए ये समझना ज़रूरी है कि जब बातचीत होती है, तो एकबार में कुछ तय नहीं हो जाता. कभी वो कहते हैं कि आप पीछे जाइए, कभी दूसरा कहता है कि आप पीछे जाइए. बातचीत को सहमति बनने में वक़्त लगेगा. लेकिन यह मसला बातचीत से ही सुलझेगा."
पैंगोंग त्सो और डेपसांग अलग-अलग
डेपसांग विवाद पर संजय कुलकर्णी कहते हैं कि दोनों देशों के बीच इसे लेकर सबसे अधिक विवाद है.
हालाँकि वो इसे अप्रैल 2020 से शुरू हुए सीमा विवाद से हटकर बताते हैं.
वो कहते हैं कि डेपसांग विवाद का अप्रैल 2020 से शुरू हुए विवाद से कुछ लेना-देना नहीं है. तक़रीबन 10 साल से इसे लेकर विवाद है. यह 2013 में क़रीब 20 दिन तक चले फ़ेस-ऑफ़ के बाद से ही विवाद का केंद्र है. उस फ़ेस-ऑफ़ के बाद से जो समझौता हुआ, उसे चीन ने नहीं माना. इस इलाक़े में जो भी गश्त होती है, उसमें चीन दख़लअंदाज़ी करता है.
संजय कुलकर्णी कहते हैं, "डेपसांग की स्थिति और पैंगोंग की स्थिति को एक-जैसा नहीं मान सकते हैं. पैंगोंग झील के इलाक़े में सेनाएँ इतनी क़रीब आ गई थीं कि कभी भी युद्ध जैसी स्थिति हो सकती थी. लेकिन डेपसांग में ऐसा नहीं है. डेपसांग में सेनाएँ बिल्कुल आमने-सामने नहीं खड़ी हैं. ये ज़रूर है कि वो बीच में आकर खड़ी ज़रूर हो जाएंगी."
लेकिन क्या ये विवाद सुलझता नज़र आ रहा है?
इस सवाल के जवाब में लेफ़्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) संजय कुलकर्णी कहते हैं कि विवाद सुलझ सकता है, अगर चीन की मंशा हो तो.
वो कहते हैं, "चीन पर विश्वास करना बहुत मुश्किल है. चीन जब ख़ुद चाहता है, तो फ़टाफ़ट कार्रवाई करता है, जैसे उसने पैंगोंग इलाक़े में की है. लेकिन अगर उसे अपना दबदबा दिखाना होता है, तो वो धीरे-धीरे ही आगे बढ़ेगा."
संजय कुलकर्णी चीन को लेकर सतर्क रहने की बात भी कहते हैं. वो कहते हैं कि चीन से बातचीत के दौरान इस तरीक़े से बातचीत होनी चाहिए, जैसे दो समान देश करते हैं. किसी भी देश को ख़ुद को बड़ा और दूसरे को छोटा या फिर ख़ुद को छोटा और दूसरे को बड़ा समझकर बातचीत नहीं करनी चाहिए. बातचीत दो बराबर के देशों की तरह होनी चाहिए.
संजय कुलकर्णी कहते हैं चीन यह समझ चुका है कि भारतीय फ़ौज़ आसान नहीं और यही वजह है कि वो पीछे हटने को राज़ी हुआ, लेकिन मंशा को लेकर सतर्क रहना ज़रूरी है.