"इलैक्ट्रॉनिक सिटी" की रोशनी में अंधेरा भी है
अनिल कुमार "अमरोही"@बेंगलोर। बेंगलोर का नाम बेंगलूरू हो गया। पहले से ज्यादा चकाचौंध भी बढ़ी। बड़ी-बड़ी इमारतें और उसके स्याह काले शीशे ऐसे जैसे काली सच्चाई बता रहे हैं। बेंगलूरू देश का एक ऐसा शहर है जिसे लोग इलैक्ट्रॉनिक सिटी के रूप में जानते हैं। इलैक्ट्रॉनिक सिटी की इस आंखे चुंधिया जाने वाली रोशनी के आगे थोड़ा सा चलें तो घना अंधेरा भी है।
बरसों से यहां इमारते जब से बननी शुरू हुई, एक ऐसा तबका यहां अपनी रोजी-रोटी तलाशने आने वाले वो, जिन्होंने इन इमारतों में लगीं इंटें अपने हाथों से लगाई हैं। बेंगलोर के जेपीनगर बस स्टैंड के बिलकुल सामने अगर देखे तो इमारतें दिखाई देंगी लेकिन थोड़ा नीचे देखें तो जुग्गी झोपड़ियां और उसमें पसरा सन्नाटा।
घर के मुखिया रोज मर्रा की तरह ही इमारतों में ईंट-सीमेंट-रोड़ा लगाने जा चुके थे तो ज्यादातर महिलाएं कई इमारतों में पौंचा झाड़ू करने जा चुकी थीं। इन जुग्गियों में पसरे सन्नाटें में पंद्रह अगस्त पर लालकिले पर खड़े प्रधानमंत्री क्या बोल रहे होंगे, झंडा कैसे फहराया जाएगा, इसे सुनने की भी ललक नहीं थी। ललक थी तो एक अदद दो रोज की रोटी की।
कब मिलेगी गरीबी से आजादी-
दोपहरी में, घड़ी की सुइयां 2 पर टिक चुकी थीं। तभी मिट्टी से सने हाथों वाला मजदूर। दोपहर का भोजन करने करने पहुंचा। नाम पूछने पर बताया रंजीथ। खाने-खाते हुए बताया कि पूरी जुग्गी में करीब 200 परिवार रहते हैं। जो सुबह काम करने निकल जाया करते हैं। इनमें से कोई तमिलनाडू से आया है, तो कोई आंध्रा से, तो कई कहीं दूर के राज्य से। सभी का चूला मजदूरी करने के बाद ही जल पाता है।
15 अगस्त। भारत आजादी का जश्न मना रहा है। लेकिन एक ऐसा भी तबका है जिसका कोई दिन ऐसा नहीं जिस दिन वह जश्न मना पाए। 60 बरस पहले हमें अंग्रेजी हुकूमत से तो आजादी मिल गई थी लेकिन क्या गरीबी से आजादी मिल पाई। कर्नाटक स्लम विकास बोर्ड के आंकड़े की बात करें तो वर्ष 2003 में 473 स्लम क्षेत्र थे। जो बढ़कर 2013 में 597 हो गए हैं।