इस चुनाव में वोटरों ने इन छोटी-छोटी पार्टियों के जातीय सूरमाओं का किया सफाया
नई दिल्ली- 17वीं लोकसभा के चुनाव में यूपी से लेकर बिहार तक कई छोटे-छोटे दलों के जातीय सूरमाओं को वोटरों ने खूब सबक सिखाया है। ये ऐसी पार्टियां हैं, जिनके नेताओं ने या तो अकेले दम पर या फिर किसी गठबंधन का हिस्सा बनकर चुनाव लड़ा था। लेकिन, वोटरों ने ऐसी पार्टियों को एक भी सीट न देकर इनको लेकर अपना नजरिया पूरी तरह साफ कर दिया है। इन दलों के ज्यादातर नेता तो चुनाव से पहले बड़े-बड़े दावे कर रहे थे, लेकिन नतीजे सामने आने के बाद उनके पास अपने दावों को लेकर बोलने के लिए कुछ नहीं बचा है।
ओम प्रकाश राजभर
अगर यूपी (UP) की बात करें तो इस चुनाव में सबसे ज्यादा मिट्टी पलीद हुई है सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (SBSP) की। इस पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभार (Om Prakash Rajbhar) ने बीजेपी से नाराज होकर 39 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। उनका मुख्य मकसद बीजेपी के प्रत्याशियों को हराना था। लेकिन, उसमें भी उन्हें सफलता नहीं मिली। चुनाव के बाद उन्हें अपना मंत्री पद भी गंवाना पड़ गया। यूपी की 26 सीटों पर राजभरों की 50 हजार से ज्यादा और 13 पर 1 लाख से ज्यादा वोट हैं, लेकिन जिस तरह से उनकी पार्टी अपनी कोई खास मौजूदगी नहीं दिखा पाई है, उससे लगता है कि ओमप्रकाश का राजभरों पर से दबदबा भी खत्म हो चुका है।
कृष्णा पटेल
अपना दल (सोनेलाल) की अध्यक्ष कृष्णा पटेल (Krishna Patel) ने उत्तर प्रदेश में इसबार कांग्रेस से तालमेल करके चुनाव लड़ा था। वे खुद गोंडा सीट से और उनके दामाद पंकज पटेल फूलपुर सीट से कांग्रेस के सिंबल पर चुनाव लड़े। दोनों सीटों पर इनकी जमानतें जब्त हो गईं। दरअसल, कृष्णा पटेल (Krishna Patel) केंद्रीय मंत्री और अपना दल नेता अनुप्रिया पटेल की मां हैं। मां-बेटी में सियासी जंग कुर्मी वोटों को लेकर रहा है, इस चुनाव ने यह फिर साबित किया है कि अनुप्रिया पटेल भी अब पिछड़ों की बड़ी नेता हैं।
शिवपाल यादव
पारिवारिक कलह के चलते शिवपाल यादव (Shivpal Yadav) को समाजवादी पार्टी छोड़नी पड़ी। इस चुनाव में उन्होंने प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) (PSPL) बनाकर यूपी की 55 सीटों पर अपना उम्मीदार उतारा। वे खुद भी फिरोजाबाद से चुनाव मैदान में थे। लेकिन, ज्यादातर सीटों पर इनके उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गईं। कभी यूपी की राजनीति की दिशा तय करने वाले शिवपाल आज की तारीख में बेहद लाचार राजनेता के तौर पर सामने आए हैं।
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राजा भैया
यूपी में इसबार रघुराज प्रताप सिंह (Raghuraj Pratap Singh) ऊर्फ राजा भैया ने भी अपनी पार्टी जनसत्ता दल लोकतांत्रिक (JDL) को पहलीबार चुनाव मैदान में उतारा था। प्रतापगढ़ से तो उन्होंने खुद उनके भाई अक्षय प्रताप सिंह उर्फ 'गोपाल जी' (AKSHAY PRATAP SINGH ALIAS GOPAL JI) को टिकट दिया था, लेकिन उन्होंने अपनी जमानत भी गंवा दी। अलबत्ता कौशांबी सीट पर उनकी पार्टी के उम्मीदवार शैलेंद्र कुमार पासी की ये राहत रही की उनकी जमानत बच गई और वो तीसरे नंबर पर आने में सफल रहे। यूपी में बाबू सिंह कुशवाहा की जनअधिकार मंच पार्टी का भी यही हाल रहा है और वह कहीं भी अपनी खास मौजूदगी दर्ज नहीं करा सकी।
उपेंद्र कुशवाहा
बिहार में ऐसे जातीय सूरमाओं की स्थिति थोड़ी बेहतर जरूर रही क्योंकि, यहां ये नेता आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन के साथ चुनाव लड़े थे। इनमें प्रमुख नाम राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (RLSP) के उपेंद्र कुशवाहा (Upendra Kushwaha) का है, जो उजियारपुर सीट से बुरी तरह चुनाव हारे हैं। उन्हें जीतने वाले बीजेपी उम्मीदवार से आधे से भी कम वोट मिले। पिछली बार वे एनडीए में रहकर चुनाव जीते थे और केंद्र में मंत्री भी बने थे। यही नहीं वह काराकाट सीट से भी चुनाव लड़े थे और वहां भी नाकाम हो गए। जमुई में भी उनकी पार्टी चुनाव नहीं जीत पाई।
जीतन राम मांझी
जीतन राम मांझी (Jitan Ram Manhi) की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (HAM) का भी बिहार में इसके सहयोगी आरजेडी की तरह खाता भी नहीं खुला। बिहार के पूर्व सीएम जीतन राम मांझी गया में और उपेंद्र प्रसाद औरंगाबाद में चुनाव हारे।
मुकेश सहनी
इस चुनाव में एक और पार्टी बिहार में खूब चर्चा में रही- विकासशील इंसान पार्टी (VIP). इसके मुखिया मुकेश सहनी (Mukesh Sahni) को खड़गड़िया में लोक जनशक्ति पार्टी के विजयी उम्मीदवार से लगभग आधे वोट मिल पाए। मधुबनी में तो इनका और बेड़ा गर्क हो गया। मिथिलांचल की इस प्रतिष्ठित सीट पर बीजेपी के जीतने वाले उम्मीदवार को लगभग 62% वोट मिले, जबकि वीआईपी (VIP) के बद्री कुमार पूर्वे के खाते में सिर्फ 14% वोट ही पड़े।
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