बिहार में AAP जदयू-बीजेपी के खिलाफ कांग्रेसी की बनाई पिच पर खेलेगी? समझिए पूरा खेल?
बेंगलुरू। दिल्ली विधानसभा चुनाव में लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने जा रहे आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की फतह के बाद अब 2020 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट गए हैं। दिल्ली में बड़ी जीत से उत्साहित केजरीवाल एक बार फिर आम आदमी पार्टी के साम्राज्य विस्तार की चिंता सताने लगी है।
यह अलग बात है कि वर्ष 2013 से 2019 के सात सालों के अंतराल में केजरीवाल को पार्टी की हैसियत और जनाधार का पता लग चुका है, लेकिन दिल है कि मानता नहीं मोड में अश्वमेघ के घोड़े को पकड़ने को बेकरार बिहार ही नहीं, अगर 2021 में होने वाले पश्चिम बंगाल विधानसभा में चुनाव में अवतरित हो जाएं तो आश्रचर्य नहीं होना चाहिए।
केजरीवाल में दिल्ली में दोबारा हुई जीत कैसे हुई, इस बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन सच्चाई यह है कि दिल्ली में केजरीवाल जीते नहीं है, उन्हें जिताया गया है। छह महीने से कम समय में केजरीवाल ने सिर्फ लोक लुभावन घोषणा करके दिल्ली की जनता को बरगलाने की कोशिश की जबकि उनके वर्ष 2015 के मेनिफिस्टों में किए गए 70 वादों की दुर्गति से कौन वाकिफ नहीं है, जिसमें से महज 20 फीसदी ही वादे अब तक पूरे किए जा सके है।
वर्ष 2015 और वर्ष 2020 दिल्ली विधानसभा में केजरीवाल की प्रचंड जीत का श्रेय कांग्रेस के दिल्ली में मौजूद एकमुश्त 22-24 फीसदी वोटों की कारण हुई है, जो कांग्रेस ने बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए केजरीवाल के पक्ष में कर दिए। दिल्ली में केजरीवाल की दाल जरूर पकी है, लेकिन तड़का उसमें कांग्रेस ने ही लगाई है।
क्योंकि अगर कांग्रेस वोट के एकमुश्त 22-24 वोटों का तड़का केजरीवाल की पकाई गई 25.30 फीसदी दाल में नहीं लगता तो केजरीवाल एक बार भी दिल्ली में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने की हैसियत में नहीं आ सकती थी। यह केजरीवाल भी अच्छी तरह जानते हैं। बावजूद इसके जब केजरीवाल साम्राज्य विस्तार की ओर छलांग लगाने की कोशिश करते हैं तो यह सवाल मौजू हो जाता है कि क्या केजरीवाल कांग्रेस की ओर से खेल रहे हैं या कांग्रेस केजरीवाल के जरिए बीजेपी का खेल बिगाड़ने में जुटी है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि कांग्रेस और केजरीवाल के बीच कुछ तो पकता आया है वरना वर्ष 2013 में दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से केजरीवाल एंड पार्टी सरकार में शामिल नहीं हो सकती थी। केजरीवाल का दिल्ली से भागना और मोदी के खिलाफ अचानक खड़ा हो जाना भी सवाल खड़े करता है।
ये वही केजरीवाल हैं, जो दिल्ली का चुनाव केजरीवाल बनाम मोदी होने से सभी अधिक खौफ खाते रहे हैं, वो मोदी को चैलेंज देने वाराणसी पहुंच गए। बहुत हद तक संभव है कि यह भी कांग्रेस का ही गेम प्लान था ताकि आंदोलन की आंधी से निकले केजरीवाल के जरिए वह बीजेपी के वोटों में सेंध लगा सके।
महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या केजरीवाल फिर जल्दबाजी कर रहे है या महज कांग्रेस के इशारे पर पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनाव में हिस्सा लेने की घोषणा की है। माना जा रहा है कि बिहार में जदयू-बीजेपी गठबंधन की सरकार बनना एक बार फिर तय है, क्योंकि कांग्रेस की बिहार में कोई खास हैसियत बची नहीं है और लालू की अनुपस्थिति में राजद में जनाधार लायक कोई नेता सामने नहीं है।
ऐसे में कांग्रेस महागठबंधन से इतर आम आदमी पार्टी को बिहार से लड़वा कर कांग्रेस बीजेपी-जदयू के वोटों को काट सकती है। पिछले बिहार विधानसभा चुनान में जदयू का वोट शेयर 29. 21 फीसदी थी और बीजेपी का वोट शेयर 21 फीसदी था और दोनों ने क्रमश 71 और 53 विधानसभा सीटों पर कब्जा किया था, जबकि राजद का वोट शेयर 32. 92 फीसदी वोट शेयर और कांग्रेस 11.11 फीसदी वोट शेयर के साथ क्रमशः 80 और 27 सीटों पर कब्जा किया था।
अगर केजरीवाल की बिहार चुनाव में एंट्री होती है अगर आम आदमी पार्टी जदयू और बीजेपी के 10 फीसदी वोट भी काटने में सफल हुए तो कांग्रेस नीत महागठबंधन के लिए बिहार की सत्ता में काबिज होना आसान हो सकता है। हालांकि यह इतना आसान नहीं होगा, क्योंकि कांग्रेस का बिहार में कोई जनाधार नहीं है, वह बैशाखियों के सहारे वहां खड़ी है।
इसलिए माना जा रहा है कि दिल्ली में दोबारा रिकॉर्ड जीत के बाद अगर केजरीवाल बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की रणनीति के तहत चुनाव लड़ते हैं, तो एक बार फिर आम आदमी पार्टी की भद्द पिट सकती है और केजरीवाल और पार्टी की क्रेडिबिलिटी पर बुरा असर पड़ सकता है, क्योंकि कांग्रेस काठ की हांडी तो बदल तो सकती है, लेकिन काठ की हांडी को बार-बार इस्तेमाल नहीं करेगी। अभी कांग्रेस के लिए आम आदमी पार्टी बीजेपी को सत्ता से दूर रखने की महज एक टूल बनी हुई है और जिस दिन कांग्रेस को उसकी जरूरत नहीं होगी, वह उससे दूरी बनाने में देर नहीं लगाएगी।
वर्ष 2013 में जब पहली बार दिल्ली चुनाव में किस्मत आजमाने उतरी AAP
केजरीवाल एंड पार्टी ने वर्ष 2013 में जब पहली बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमाने उतरी थी, तो उसे उम्मीदों से बेहतर सफलता मिली थी। एक जन आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी को दिल्ली की जनता ने खूब प्यार दिया और लगातार 15 वर्षों तक दिल्ली की सत्ता पर काबिज रही लोकप्रिय शीला दीक्षित की सरकार को उखाड़ फेंकने में कामयाब रही थी, लेकिन यह केजरीवाल एंड पार्टी की सत्ता की लोलुपता और उतावलापन ही था कि उसने स्वगठित उच्च आदर्शों वाली नैतिकता और भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन की आत्मा को गिरवी रखकर कांग्रेस के समर्थन से दिल्ली के मुख्यमंत्री बन बैठे।
कांग्रेस पार्टी के समर्थन से सरकार पर काबिज हुई केजरीवाल एंड पार्टी
केजरीवाल एंड पार्टी ने उस कांग्रेस पार्टी के समर्थन से सरकार पर काबिज हुई थी, जिसके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की झड़ी लगाकर आम आदमी पार्टी का अभ्युदय हुआ था, लेकिन केजरीवाल ने सभी वसूलों और आदर्शों को ताख पर रखकर मुख्यमंत्री बने, यह अलग बात है कि यह अनैतिक सरकार महज 49 दिनों में धाराशाई हो गईं। केजरीवाल को कांग्रेस ने बिना शर्त समर्थन दिया था, लेकिन कांग्रेस पर ब्लेम लगाकर केजरीवाल इस्तीफा देकर लोकसभा चुनाव 2014 में बीजेपी के प्रधानमंत्री कैंडीडेट नरेंद्र मोदी को टक्कर देने वाराणसी कूच कर गए। क्योंकि केजरीवाल को आभास हो गया था कि बहती गंगा में हाथ ही धोना है तो सीएम की कुर्सी के बजाय पीएम की कुर्सी पर दांव क्यों ने खेला जाए।
दिल्ली को डस्टबिन में डाल प्रधानमंत्री बनने वाराणसी चले गए केजरीवाल
केजरीवाल ने दिल्ली की जनता का आदेश और जनादेश दोनों को एक साथ डस्टबिन में डालकर प्रधानमंत्री बनने वाराणसी चले गए। दिल्ली की जनता का आदेश इसलिए क्योंकि केजरीवाल ने यह प्रचारित करके कांग्रेस के समर्थन लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने का दावा किया था कि उन्होंने दिल्ली की जनता से रायशुमारी करने के बाद जनता के लिए सरकार में काबिज हुए थे। बाकी जनादेश तो दिल्ली की जनता ने किसी भी पार्टी को ठीक से नहीं दिया था। दिल्ली छोड़कर वाराणसी पहुंचे केजरीवाल को पूरा भरोसा था कि अगर दिल्ली में उन्हें पहली चुनाव में 70 में 28 सीट मिल सकता है, तो जन आंदोलन की आंधी रंगे पूरे देश में उस आधार पर कम से कम 218 सीट तो मिल ही जाएगी। केंद्र में सरकार बनाने की हैसियत नहीं होगी, लेकिन किंग मेकर की भूमिका में तो आ ही जाएंगे
अफसोस केजरीवाल की मंशा और मंसूबों दोनों को बड़ा झटका लगा
2014 लोकसभा चुनाव के नतीजे आए तो वाराणसी से केजरीवाल ही बड़े बेआबरू होकर ही नहीं लौटे, कमोबेश भारत में केजरीवाल को निराश किया। एक पंजाब प्रदेश को छोड़कर केजरीवाल की दाल कहीं नहीं गली। पंजाब में आम आदमी पार्टी के खाते में 4 लोकसभा सीटें आ गईं, लेकिन 2017 में पंजाब विधानसभा चुनाव में कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी जो पंजाब में सरकार बनाने की कोशिश में थी, उसे और बड़ा झटका लगा। पंजाब विधानसभा में केजरीवाल एंड पार्टी महज 19 सीटों पर ही सिमट गई थी जबकि राजनीतिक गलियारों में यह हलचल थी कि दिल्ली के सीएम पद से इस्तीफा देकर केजरीवाल पंजाब के मुख्यमंत्री बनने जा रहे है और मनीष सिसोदिया को दिल्ली का मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा।
केजरीलाल के सपने मुंगरी लाल के हसीने थे, जो पूरे नहीं हो सके
खैर, केजरीलाल के सपने मुंगरी लाल के हसीने थे, जो पूरे नहीं हो सके। केजरीवाल लोकसभा चुनाव 2019 तक आम आदमी पार्टी के साम्राज्य विस्तार पर पैसा और पसीना खूब खर्च किया। दिल्ली की जनता के टैक्स के पैसों के विज्ञापन आम आदमी पार्टी ने उन प्रदेशों में छपवाए, जहां आम आदमी पार्टी को कोई दूर-दूर तक पूछ नहीं रहा था। केजरीवाल को अपनी और आम आदमी पार्टी की हैसियत का पता 2019 लोकसभा चुनाव में लगा जब केजरीवाल की पार्टी दिल्ली की लोकसभा सीटों के सातों सीटों पर हुए चुनाव नतीजों में तीसरे नंबर आई। यह केजरीवाल के लिए डबल झटके के समान था, क्योंकि 22 फीसदी वोट शेयर के साथ कांग्रेस न केवल लोकसभा चुनाव 2019 में दिल्ली में दूसरे नंबर थी, बल्कि दिल्ली नगर निगम चुनाव में भी उसने आम आदमी पार्टी को तीसरे नंबर ढकेल दिया था।
2019 लोकसभा चुनाव के नतीजे आए तो 1 माह कोप भवन में रहे केजरीवाल
2019 लोकसभा चुनाव के नतीजे 23 मई को घोषित किए गए थे और नतीजों के बाद केजरीवाल 23 के बाद कोप भवन में चले गए थे। आत्म मंथन और आत्म अवलोकन वाले कोप भवन में केजरीवाल करीब सवा महीने रहे और इस बीच उन्होंने बिल्कुल बयानबाजी नहीं और मीडिया से बातचीत तो दूर की बात थी। केजरीवाल समझ गए थे कि अब नहीं चेते तो छह महीने बाद आसन्न दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 में आम आदमी पार्टी का वजूद मिटना तय है। जून के अंत में केजरीवाल ने जुबान खोली और खुद को दिल्ली पर केंद्रित करने का आह्वान किया और दिल्ली की जनता के लिए काम करने का वादा किया। केजरीवाल ऐसा वादा वर्ष 2013 में दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा और लोकसभा चुनाव 2014 के परिणामों के बाद भी दिल्ली की जनता से किया था, लेकिन उस पर खरे नहीं उतरे थे। यह किसी से छिपा नहीं है।
केजरीवाल एंड पार्टी की दिल्ली में दोबारा कैसे मिली रिकार्ड जीत?
केजरीवाल की दिल्ली में दोबारा हुई जीत कैसे हुई, इस बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन सच्चाई यह है कि दिल्ली में केजरीवाल जीते नहीं है, उन्हें जिताया गया है। छह महीने से कम समय में केजरीवाल ने सिर्फ लोक लुभावन घोषणा करके दिल्ली की जनता को बरगलाने की कोशिश की जबकि उनके वर्ष 2015 के मेनिफिस्टों में किए गए 70 वादों की दुर्गति से कौन वाकिफ नहीं है, जिसमें से महज 20 फीसदी ही वादे अब तक पूरे किए जा सके है। वर्ष 2015 और वर्ष 2020 दिल्ली विधानसभा में केजरीवाल की प्रचंड जीत का श्रेय कांग्रेस के दिल्ली में मौजूद एकमुश्त 22-24 फीसदी वोटों की कारण हुई है, जो कांग्रेस ने बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए केजरीवाल के पक्ष में कर दिए।
क्यों बीजेपी को दिल्ली की सत्ता से दूर रखना चाहती है कांग्रेस
कांग्रेस वर्ष 2015 और 2020 दोनों दिल्ली विधानसभा चुनावों में ढुलमुल रवैया अपनाया। दोनों ही चुनावों में कांग्रेस न दिल्ली को सीएम कैंडीडेट दिया और न ही आक्रामक कैंपेन ही किया। 2020 चुनाव में दिवंगत शीला दीक्षित के फोटो के सहारे चुनावी मैदान में उतरी कांग्रेस पार्टी वर्ष 2015 दिल्ली विधानसभा चुनाव से दूर रखा था। मकसद साफ था कि 32-38 फीसदी वोट शेयर वाली बीजेपी को दिल्ली की सत्ता से दूर रखना। कांग्रेस अच्छी तरह से जानती थी कि दिल्ली में अगर कांग्रेस आक्रामक चुनाव लड़ती है तो बीजेपी को ही फायदा मिलेगा, क्योंकि बीजेपी वोटर आम आदमी पार्टी को वोट नहीं देंगे और पिछले तीन विधानसभा चुनावों के आंकड़े इसके गवाह हैं।
वर्ष 2015 चुनाव में 29.5 से 53.5 फीसदी कैसे हुआ AAP का वोट शेयर
वर्ष 2013 दिल्ली विधानसभा चुनाव नतीजे में बीजेपी का वोट शेयर 32 फीसदी था और पार्टी ने कुल 31 सीटें जीती थीं और वर्ष 2015 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 1 फीसदी घटकर 31 फीसदी वोट शेयर था और पार्टी था और बीजेपी 31 सीटों से सीधे 3 सीटों पर सिमट गई, क्योंकि वर्ष 2013 विधानसभा चुनाव में 24 वोट शेयर पर कब्जा करने वाली कांग्रेस ने वर्ष 2015 दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपने वोट आम आदमी पार्टी में ट्रांसफर करवा दिए, जिससे वर्ष 2013 में 29.5 फीसदी वोट शेयर पर कब्जा करके 28 सीट जीतने वाली आम आदमी पार्टी कांग्रेस के वोट बैंक की मदद से वर्ष 2015 में 29.5 से 53.5 फीसदी वोटों पर कब्जा हो गया और केजरीवाल 70 में से 67 सीट जीतने में कामयाब रहे।
कांग्रेस के 22-24 फीसदी वोट फिर AAP के लिए संजीवनी साबित हुए
कुछ ऐसा ही नजारा दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 में भी देखने को मिला। कांग्रेस ने ढुलमुल रवैया अपनाए रखा और केजरीवाल को दोबारा रिकॉर्ड जीत तक पहुंचने में मदद की, क्योंकि वर्ष 2013 से कांग्रेस के पास एकजुट रहे 22-24 फीसदी दिल्ली वोटर एक बार केजरीवाल के लिए संजीवनी साबित हुए।
पिछले तीन चुनावों में कांग्रेस की मदद के बिना तीसरे स्थान पर थी AAP
आंकडे गवाही देते हैं कि वर्ष 2014 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस (22 फीसदी वोट शेयर) और आम आदमी पार्टी (18 फीसदी वोट शेयर) क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर थे और 60 फीसदी से अधिक वोट शेयर के साथ बीजेपी दिल्ली के सातों सीटों पर विजयी रही थी वर्ष 2017 में हुए दिल्ली नगर निगम चुनाव (एमसीडी, एनडीएमसी) में भी कांग्रेस और आम आदमी पर क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे थे और लोकसभा चुनाव 2019 में भी कांग्रेस ने केजरीवाल को पछाड़ते हुए 22 फीसदी वोट पर कब्जा बरकरार रखा और आम आदमी पार्टी महज 18 फीसदी वोटों पर कब्जा जमा पाई थी। यही नहीं, केजरीवाल ने 2019 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन करने के लिए बुरी तरह से गिड़गिड़ाना पड़ा था, लेकिन फिर भी कांग्रेस ने गठबंधन नहीं किया था।
दिल्ली में केजरीवाल की पकी दाल में तड़का कांग्रेस ने ही लगाई है
दिल्ली में केजरीवाल की दाल जरूर पकी है, लेकिन तड़का उसमें कांग्रेस ने ही लगाई है, क्योंकि अगर कांग्रेस वोट के एकमुश्त 22-24 वोटों का तड़का केजरीवाल की पकाई गई 25.30 फीसदी दाल में नहीं लगता तो केजरीवाल एक बार भी दिल्ली में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने की हैसियत में नहीं आ सकती थी। यह केजरीवाल भी अच्छी तरह जानते हैं। बावजूद इसके जब केजरीवाल साम्राज्य विस्तार की ओर छलांग लगाने की कोशिश करते हैं तो यह सवाल मौजू हो जाता है कि क्या केजरीवाल कांग्रेस की ओर से खेल रहे हैं या कांग्रेस केजरीवाल के जरिए बीजेपी का खेल बिगाड़ने में जुटी है।
दिल्ली छोड़ केजरीवाल मोदी को चैलेंज देने अचानक वाराणसी कैसे पहुंच गए
इसमें कोई दो राय नहीं है कि कांग्रेस और केजरीवाल के बीच कुछ तो पकता आया है वरना वर्ष 2013 में दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से केजरीवाल एंड पार्टी सरकार में शामिल नहीं हो सकती थी। केजरीवाल का दिल्ली से भागना और मोदी के खिलाफ अचानक खड़ा हो जाना भी सवाल खड़े करता है। ये वही केजरीवाल हैं, जो दिल्ली का चुनाव केजरीवाल बनाम मोदी होने से सभी अधिक खौफ खाते रहे हैं, वो मोदी को चैलेंज देने वाराणसी पहुंच गए। बहुत हद तक संभव है कि यह भी कांग्रेस का ही गेम प्लान था ताकि आंदोलन की आंधी से निकले केजरीवाल के जरिए वह बीजेपी के वोटों में सेंध लगा सके।
बीजेपी भी कांग्रेस और केजरीवाल के रिश्तों पर कई बार उठा चुकी है सवाल
बीजेपी भी कांग्रेस और केजरीवाल के रिश्तों पर कई बार सवाल उठा चुकी है। कांग्रेस केजरीवाल की मददकर दो बार बीजेपी को दिल्ली की सत्ता से बाहर कर चुकी थी वरना दोनों बार दिल्ली में बीजेपी की सरकार बननी तय थी। केजरीवाल ने पंजाब में अकाली दल-बीजेपी गठबंधन को नुकसान पहुंचाया और 23 फीसदी वोट हासिल कर अकाली दल-बीजेपी गठबंधन तीसरे नंबर पर पहुंच गई। अकाली दल-बीजेपी गठबंधन 25.33 फीसदी वोट हासिल कर सकी। जबकि पिछले चुनाव में अकाली-बीजेपी गठबंधन ने 35 फीसदी वोट हासिल करके सरकार में काबिज हो गए थे। 2017 में हुए पंजाब विधानसभा चुनाव में सत्ता में काबिज कैप्टन अमरिंदर सरकार के हिस्से में 38.64 फीसदी वोट आएं और आम आदमी पार्टी नहीं होती तो अकाली-बीजेपी गठबंधन की सरकार पंजाब में एक बार फिर बन सकती थी, जिसने कुल 23 फीसदी वोट कांग्रेस और बीजेपी के हिस्से के काट लिए।
क्या कांग्रेस के इशारे पर AAP ने बिहार चुनाव में हिस्सा लेने की घोषणा की
महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या केजरीवाल फिर एक बार फिर जल्दबाजी करने जा रहे है या केजरीवाल महज कांग्रेस के इशारे पर बिहार विधानसभा चुनाव में हिस्सा लेने की घोषणा की है, क्योंकि बिहार में जदयू-बीजेपी गठबंधन की सरकार बनना एक बार फिर तय माना जा रहा है। कांग्रेस की बिहार में कोई खास हैसियत बची नहीं है और लालू की अनुपस्थिति में राजद में जनाधार लायक कोई नेता सामने नहीं है। ऐसे में कांग्रेस महागठबंधन से इतर आम आदमी पार्टी को बिहार से लड़वा कर बीजेपी-जदयू के वोटों काट सकती है।
केजरीवाल की बिहार चुनाव में एंट्री होती है तो महागठबंधन को फायदा होगा
पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू का वोट शेयर 29. 21 फीसदी थी और बीजेपी का वोट शेयर 21 फीसदी था और दोनों ने क्रमश 71 और 53 विधानसभा सीटों पर कब्जा किया था, जबकि राजद का वोट शेयर 32. 92 फीसदी वोट शेयर और कांग्रेस 11.11 फीसदी वोट शेयर के साथ क्रमशः 80 और 27 सीटों पर कब्जा किया था। अगर केजरीवाल की बिहार चुनाव में एंट्री होती है अगर आम आदमी पार्टी जदयू और बीजेपी के 10 फीसदी वोट भी काटने में सफल हुए तो कांग्रेस नीत महागठबंधन के लिए बिहार की सत्ता में काबिज होना आसान हो सकता है। हालांकि यह इतना आसान नहीं होगा, क्योंकि कांग्रेस का बिहार में कोई जनाधार नहीं है, वह बैशाखियों के सहारे वहां खड़ी है।
AAP बीजेपी को सत्ता से दूर रखने का कांग्रेस की महज एक टूल बन गई है
इसलिए माना जा रहा है कि दिल्ली में दोबारा रिकॉर्ड जीत के बाद अगर केजरीवाल बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की रणनीति के तहत चुनाव लड़ते हैं, तो एक बार फिर आम आदमी पार्टी की भद्द पिट सकती है और केजरीवाल और पार्टी की क्रेडिबिलिटी पर बुरा असर पड़ सकता है, क्योंकि कांग्रेस काठ की बदल तो सकती है, लेकिन काठ की हांडी को बार इस्तेमाल नहीं करेगी। अभी कांग्रेस के लिए आम आदमी पार्टी बीजेपी को सत्ता से दूर रखने का एक महज टूल है और जिस दिन कांग्रेस को उसकी जरूरत नहीं होगी, वह उससे दूरी बनाने में देर नहीं लगाएगी।