नीतीश अगर आज सीएम हैं तो इसमें जेटली की भी है अहम भूमिका
पटना। अरुण जेटली भाजपा में नीतीश कुमार के सबसे करीबी नेता थे। इस दोस्ती की बुनियाद तब पड़ी थी जब अरुण जेटली और नीतीश कुमार छात्र नेता थे। 1996 में जब नीतीश भाजपा के साथी बने तो अरुण जेटली से पुरानी जान पहचान निकटता में बदलने लगी। अरुण जेटली ने ही भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को सलाह दी थी कि अगर बिहार में लालू के पिछड़ावाद को रिप्लेस करना है तो नीतीश कुमार को आगे लाना होगा। नीतीश कुमार भी जेटली की व्यवहार कुशलता और विद्वता के कायल थे। नीतीश जब 2013 में भाजपा से अलग हुए थे तब भी उनकी जेटली से दोस्ती अटूट रही थी। जेटली ने नीतीश के लिए बहुत कुछ किया था। नीतीश के दिल में भी जेटली के लिए बहुत इज्जत थी। तभी तो वे बीमार जेटली के देखने के लिए पटना से दिल्ली पहुंच गये थे।
छात्र राजनीति की यादें
1975 में इमरजेंसी लगने के पहले जयप्रकाश नारायण ने देश भर के 21 छात्र नेताओं को चुन कर छात्र युवा संघर्ष वाहिनी बनायी थी। अरुण जेटली को इसका कन्वेनर बनाया गया था। जेपी ने जेटली की योग्यता से प्रभावित हो कर उन्हें यह पद दिया था। नीतीश कुमार भी जेपी के छात्र आंदोलन का हिस्सा थे। नीतीश कुमार उसी समय अरुण जेटली के नाम से वाकिफ हुए थे। बाद में दोनों सक्रिय राजनीति में आये। 1996 में जब नीतीश कुमार भाजपा के साथ आये तो उनकी अरुण जेटली से नजदीकी बढ़ने लगी।
जेटली- आडवाणी ने बनाया सीएम मटेरियल
1999 में नीतीश, शरद, जॉर्ज और रामविलास पासवान जदयू से जीत कर वाजपेयी सरकार में मंत्री बने थे। लेकिन जब 2000 में बिहार विधानसभा चुनाव हुआ तो एनडीए में रहते हुए भी नीतीश और जॉर्ज फर्नांडीस ने फिर से समता पार्टी खड़ी कर ली। समता और जदयू ने कई सीटों पर एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा। एनडीए को नुकसान हुआ। किसी दल को बहुमत नहीं मिला। उस समय बिहार झारखंड एक था और विधानसभा की कुल सीटों की संख्या 324 थी। लालू की पार्टी 124 सीटों पर जीती। भाजपा ने 67 सीटों पर कब्जा जमाया। नीतीश की समता पार्टी को 34 तो जदयू को 21 सीटें मिलीं। राज्यपाल ने सबसे बड़े गठबंधन एनडीए को सरकार बनाने का न्योता दिया। नीतीश कुमार उस समय केन्द्र में मंत्री थे। तब भाजपा के विधायकों की संख्या 67 थी फिर उसने 34 विधायकों वाले नीतीश को ही मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया। यही वह पहला मौका था जब भाजपा ने नीतीश को बिहार में चुनावी चेहरा बनाय़ा था। इस फैसले के पीछे दिमाग जेटली का था और पहल लालकृष्ण आडवाणी की थी। हालांकि बहुमत नहीं जुटा पाने की वजह से नीतीश ने सात दिनों के बाद ही इस्तीफा दे दियी था, लेकिन इस सेवेन डेज वंडर ने नीतीश को बिहार में सीएम मटेरियल बना दिया। अधिक सीटों के बावजूद भाजपा ने नीतीश को सीएम बनाया था।
2005 में सीएम कैंडिडेट बनाने में मदद
फरवरी 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में किसी दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला। उस समय अरुण जेटली भाजपा के बिहार प्रभारी थे। तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह ने केन्द्र के इशारे पर बिहार में राष्ट्पति शासन लागू करा दिया था। विधानसभा भंग कर दी गयी थी। अरुण जेटली देश के जाने माने वकील भी थे। बिहार प्रभारी होने की वजह से जेटली राष्ट्रपति शासन लगाये जाने के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। नीतीश भी उनके साथ थे। सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन लगाये जाने के असंवैधानिक ठहरा दिया। इस दौर में जेटली और नीतीश का जुड़ाव और गहरा हुआ। अक्टूबर 2005 में फिर विधानसभा चुनाव की घोषणा हुई। शुरू में एनडीए का सीएम कैंडिड्ट घोषित नहीं हुआ था। अरुण जेटली ने लालकृष्ण आडवाणी से नीतीश को सामने लाने की गुजारिश की। जेटली बिहार प्रभारी थे। उनकी राय बहुत मायने रखती थी। लेकिन जॉर्ज फर्नांडीस नीतीश को सीएम कैंडिडेट बनाने के पक्ष में नहीं थे। जॉर्ज के ना नुकुर को देख कर जेटली खुल कर नीतीश के समर्थन में आ गये और कहा कि केवल नीतीश ही लालू को हरा सकते हैं। इसके बाद आडवाणी ने बिना किसी की परवाह किये नीतीश को सीएम कैंडिडेट घोषित कर दिया। फिर तो इतिहास बन गया। लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन का अंत हो गया। बिहार में नीतीश- भाजपा के नये युग की शुरुआत हुई। जेटली ने नीतीश के लिए बहुत कुछ किया लेकिन कभी जताया नहीं। इस बडप्पन की वजह से नीतीश ने हमेशा अरुण जेटली का दिल से सम्मान किया।