आधार अगर ज़रूरी हुआ तो आपकी प्राइवेसी कैसे बचेगी?
सरकारी योजनाओं के दुरुपयोग रोकने और भ्रष्टाचार को कम करने के लिए आधार की योजना बनी थी, लेकिन इसे सभी क्षेत्रों में अनिवार्य बनाने पर सवाल खड़े हो रहे हैं.
पासपोर्ट, बैंक खाते (जनधन के अलावा), ड्राइविंग लाइसेंस, मोबाइल समेत अनेक सुविधाओं में सरकारी सब्सिडी की सुविधा नहीं मिलती तो फिर उन्हें आधार से जोड़ना क्यों ज़रूरी है? सरकार ने इस पर समूचित स्पष्टीकरण शायद ही दिया गया हो.
आधार की अनिवार्यता को हाईकोर्ट के पूर्व जज ने साल 2012 में चुनौती दी थी. नौ जजों की बेंच ने पांच साल बाद 2017 में प्राइवेसी पर ऐतिहासिक फ़ैसला दिया लेकिन आधार पर फ़ैसला आना अभी बाकी है.
संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला देश का क़ानून माना जाता है लेकिन प्राइवेसी पर नए क़ानून बनाने की बात हो रही है. आधार की अनिवार्यता और वैधता के मामले में पांच जजों की बेंच ने 38 दिनों तक सुनवाई की. अब फ़ैसले का इंतज़ार पूरे देश को है.
चेक गणराज्य के संविधान की तर्ज़ पर के.टी. शाह और के.एम. मुंशी ने प्राइवेसी के अधिकार के लिए साल 1946 में संविधान सभा में मसौदा पेश किया था. इस मसौदे में व्यक्ति की बजाय घर की व्यवस्था में प्राइवेसी के अधिकार पर ज़्यादा ज़ोर था.
लेकिन सामूहिक उत्तरदायित्वों पर ज़ोर देते हुए डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने मार्च, 1947 को संशोधित प्रस्ताव पेश किया. जिसमें संविधान के मूल अधिकारों के अध्याय तीन में निजता को अलग से मान्यता नहीं मिली.
नागरिक और राजनैतिक अधिकारों के लिए अंतरराष्ट्रीय संधि पर भारत ने साल 1979 में ही हस्ताक्षर कर दिया था, जिसमें अनुच्छेद 17 के तहत प्राइवेसी के अधिकार के लिए भारत ने प्रतिबद्धता जताई थी.
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने प्राइवेसी के ऐतिहासिक फ़ैसले में कहा कि "व्यक्ति की प्राइवेसी का राज्य द्वारा सम्मान, संविधान की आधारशिला है."
भारत के क़ानूनों में प्राइवेसी-कॉमन लॉ (ब्रिटिश क़ानून व्यवस्था) और अन्य क़ानूनों के तहत भी भारत में प्राइवेसी को मान्यता मिली है. जिनके अनुसारः
- आरटीआई क़ानून के तहत निजी जानकारी तीसरे व्यक्ति को नहीं दी जा सकती है.
- लोगों के टेलीफ़ोन टेप करने के लिए जाँच एजेंसियों को हर मामले में सर्वोच्च स्तर पर अनुमति लेनी पड़ती है.
- संदिग्ध अपराधियों के डीएनए टेस्ट या ब्रेन मैपिंग के लिए अदालत की अनुमति लेनी पड़ती है.
- लोगों के घरों या दफ्तरों में छापा मारने के लिए पुलिस को उच्चाधिकारियों या अदालत से अनुमति लेनी पड़ती है.
- आईपीसी क़ानून के तहत लोगों के निजी जीवन में तांक-झांक करना क़ानूनी अपराध है.
आधार योजना में क़ानूनी विसंगतियाँ
आधार के बारे में दो बिन्दुओं पर विशेष विवाद हैः
- आधार को सही ठहराने के लिए अमरीका के सोशल सिक्योरिटी नंबर (SSN) की दुहाई दी जाती है, लेकिन उसमें लोगों के बायोमैट्रिक्स नहीं लिए जाते हैं. अमरीकी व्यवस्था में SSN लोगों की इच्छा पर है, पर सरकार की तरफ़ से अनिवार्य नहीं है. अमरीका में SSN के लिए पहली दफ़ा 1935 में क़ानून बनाया गया था, जिसमें लोगों की प्राइवेसी के हितों की पूरी सुरक्षा की गई है. भारत में 2006 में शुरू आधार योजना के लिए 10 साल बाद 2016 में संसद ने मनी बिल के चोर दरवाज़े से क़ानून बनाया, जिसकी संवैधानिकता पर अब सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला लंबित है.
- भारत में आधार को अनिवार्य बनाने के साथ इसके तहत लोगों की निजी सूचनाएँ और बायोमैट्रिक्स लिए जा रहे हैं. आधार के क़ानून, आईटी एक्ट और 2011 के सम्मिलित नियमों के तहत आधार डेटा को गोपनीय रखना ज़रूरी है पर यूआईडीएआई और सरकार इसकी क़ानूनी जवाबदेही लेने के लिए तैयार नहीं हैं.
निजी कम्पनियों की आधार डेटा में सेंध, आधार योजना के ख़िलाफ़ हज़ारों शिकायतें आने के बावजूद धोनी जैसे इक्का-दुक्का मामलों में ही पुलिस शिकायत दर्ज कराई जाती है. संसद द्वारा पारित क़ानून के अनुसार यूआईडीएआई को संवेदनशील निजी डाटा लेने का अधिकार है लेकिन निजी कम्पनियों और एजेन्टों को यह हक़ कैसे मिल सकता है?
यूआईडीएआई के 125 रजिस्ट्रार और 556 एनरोलमेंट एजेन्सियों के माध्यम से क्रियान्वित किया गया. लेकिन निजी एजेन्सियों द्वारा डेटा लीक के लिए सरकार की जवाबदेही नहीं होती.
निजी कम्पनियों को आधार के ऑनलाइन वेरिफ़िकेशन की सुविधा देने से डेटा लीक होने की आशंकाएँ व्यक्त की जा रही हैं. तो फिर इसे ऑफ़लाइन वेरिफ़िकेशन तक सीमित क्यों नहीं रखा जाता?
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आधार की अनिवार्यता और निगरानी तंत्र
सरकारी योजनाओं के दुरुपयोग रोकने और भ्रष्टाचार को कम करने के लिए आधार की योजना बनी थी, लेकिन इसे सभी क्षेत्रों में अनिवार्य बनाने पर सवाल खड़े हो रहे हैं.
पासपोर्ट, बैंक खाते (जनधन के अलावा), ड्राइविंग लाइसेंस, मोबाइल समेत अनेक सुविधाओं में सरकारी सब्सिडी की सुविधा नहीं मिलती तो फिर उन्हें आधार से जोड़ना क्यों ज़रूरी है? सरकार ने इस पर समूचित स्पष्टीकरण शायद ही दिया गया हो.
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के सोशल मीडिया हब के प्रस्ताव को सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त कर दिया तो फिर आधार के बढ़ते निगरानी तंत्र को कैसे जायज़ ठहराया जा सकता है?
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सरकार की बिना तैयारी इसे लागू करना और विरोधाभास
आधार शुरू से ही विवादों में रहा है. कॉन्क्रीट की ऊँची दीवारों की सुरक्षा व्यवस्था के बीच आधार डेटा को पूर्ण सुरक्षित बताते हुए एटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में हैरतअंगेज़ दावे किेए. दूसरी ओर 2500 रुपये में आधार डेटा हैक करने के सॉफ्टवेयर की ख़बरों से लोग सकते में हैं.
यूआईडीएआई के 12 अंकों के आधार नंबर को गोपनीय रखने के लिए 16 अंकों की वर्चुअल आईडी (वीआईडी) व्यवस्था को लागू किया जाता है.
दूसरी ओर ट्राई के चेयरमैन आधार नंबर को सोशल मीडिया पर जारी करते ही डिजिटल कुश्ती शुरू हो जाती है.
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देशभर में लोगों को आधार कार्ड जारी करने के बाद इसे सुरक्षा के लिए ख़तरा बताया जाना बिना ठोस योजना के आधार के क्रियान्वयन को दर्शाता है.
आधार के दौर में राइट टू बी फॉरगॉटेन यानी जीवन में पहले घटित घटनाओं को भूलने का अधिकार- ट्राई द्वारा जारी कंसलटेशन पेपर और जस्टिस श्री कृष्णा समिति की रिपोर्ट के बावजूद जनता को अपने डेटा पर अधिकार नहीं मिला है. आधार के डेटा लीक और इससे नुकसान के लिए जनता को कैसे राहत मिल सकती है, इस बारे में भी आधार क़ानून में स्पष्टता नहीं है.
प्रस्तावित डेटा सुरक्षा क़ानून में यूआईडीएआई पर क़ानूनी जवाबदेही के माध्यम से आधार डेटा की सुरक्षा और हर्जाने का क़ानूनी तंत्र बनाया जा सकता है. यूरोपियन यूनियन की तर्ज़ पर श्री कृष्णा कमेटी ने राइट टू फॉरगॉटेन पर क़ानून बनाने की सिफारिश की है.
सवाल यह है कि सरकारी दफ़्तरों में क़ैद बायोमैट्रिक्स अब 120 करोड़ लोगों को भूलने की इजाज़त कैसे देंगे?
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